भक्ति
की धारा में सभी साधक किसी न किसी रू में जगदीश्वर की ही उपासना करते हैं; श्री हरी भी उन्हें उनके श्रद्धा के
मुताबिक़ वैसी अवस्था में भक्ति और आस्था को और अधिक दृढ रू से प्रतिष्ठित कर देते हैं।
".
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भक्ति योग का अभ्यासी अपने ईष्ट को
ही सर्वोयरी सत्य मानते हुए उनकी शरणागति पाने का प्रयास करेगा; यही अपेक्षित भी है,
और समीचीन भी; उसके ऊपर अगर मन में भक्ति की धारा का प्रवाह उत्पन्न हो तो फिर बात
ही कुछ और ठहरी।[i]
भक्ति मार्ग काफी सरल भी
है और काफी जटिल भी; यह निर्भर करता होग्गा उस भक्त के स्वरुप के ऊपर जिसे अपने रूचि
के अनुसार कर्म, भक्ति या ज्ञान की धारा का अवलम्बन लेते हुए जगदीश्वर के सन्निकट खुद
के अस्तित्व का अनुसंधान करना है; खुद की भूमिका बांधना है, और दिव्य जन्म को सार्थक
करते हुए दिव्य कर्म के लिए प्रवृत्त होना है। [ii] 'मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ताः उपासते' --
मन वहीं लगता है, जहाँ प्रेम होता है। जिसमें प्रेम होता है, उसका चिन्तन स्वतः होता
है; "नित्ययुक्ताः " का टाटरी हुआ सदा सर्वदा हर परिस्थिति में आत्मा के
समीप जगत के नियंता परम तत्व के रूप में जगदीश्वर के अधिष्ठान का अनुभव करते हुए नित्य
क्रिया (यज्ञ, दानं और तप ) में लगे रहना; क्रमशः उस गहराई तक खुद को ले जाना जहां
आत्मा और परमात्मा का भेद समाप्त हो जाता होगा; जहां से सिर्फ पूर्णता पाने का मार्ग
शेष रहता होगा; जहां के बाद हम जगदीश्वर के पास शरणागति पाकर अभय रूप धन के धनी बन
जाते होंगे; जिसके बाद कुछ भी पाने लायक शेष नहीं रह जाता; जिसके बाद सिर्फ और सिर्फ
जगदीश्वर के अधिष्ठान विषययक सत्य की ही अनुभूति शेष रहती होगी। हर परिस्थिति में यह
कहना भी समीचीन न होगा कि मन की वृत्तियाँ आराम से साधक के नियंत्रण में आ जाए और उसे
भक्तिमार्ग का पथिक बना दे, अनन्य भक्ति की धारा में लगा दे और वैसा अभ्यास करने के
लिए सुगमता से लगा दे जिसके बाद जगदीश्वर को साधक अपने ही सन्निकट अधिष्ठान होता हुआ
महसूस करने लग जाए। इस दृष्टि से भी साधना में “निरंतरता” का महत्व माना गया; भक्त
को प्रयत्न करते ही रहना होगा; भक्ति की धारा में भक्त को क्रमशः आगे ही चलना होगा
; किसी भी पड़ाव की चिंता छोड़कर क्रमिक उन्नति और क्रमिक परिपक्वता की ओर। निर्गुण उपासना
की हमारा ध्यान केंद्रित करने के लिए इन्द्रिय संयम का अभ्यास करते हुए अक्षर ब्रह्म
को अपना उपास्य बनाने की बात कही गई;[iii]
परमात्मा और जीवात्मा के
बीच में निहित समानता की बात भी जगह जगह पर शाश्त्र, पुराण, वेद, उपनिषद् में बारी
बारी से किये गए हैं।[iv]
यह कुछ वैसे ही तुल्य हुआ जैसे समुद्र के जल में जल का कण और नदी के जल में लिप्त जल
का कण; अपने विविध जलाधार में रहते हुए भी जल के शुद्ध गुणों का न विघटन होना; शुद्ध
स्वारूप और अस्तित्व को बनाये रखना । “सर्वमिदं ततम् पदोंसे” और नवें अध्यायके चौथे
श्लोकमें 'मया ततमिदं सर्वम्' पदोंसे परमात्माको सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त बताया गया
है। इसी प्रकार दूसरे अध्यायके सत्रहवें श्लोकमें 'येन सर्वमिदं ततम्' पदोंसे जीवात्माको
भी सम्पूर्ण जगत्में व्याप्त बताया गया है।
"सर्वभूत
हिते रता। " -- इस कथन से ईश्वर के सर्व व्याई वृहत स्वरू को दर्शाया गया। 'सर्वत्र समबुद्धयः'-- इस पदका भाव यह है कि निर्गुण-निराकार
ब्रह्मके उपासकोंकी दृष्टि सम्पूर्ण प्राणी जगत में रहते हुए भी उस परमात्म तत्व पर
आकर टिक जायेगी जिसके आधार पर उन सभी अवयवों में पूर्ण ब्रह्म के अधिष्ठान विषयक सत्य
का उदघाटन हो सके। और फिर परमात्मा को सैम
भी कहा गया (श्रीमद्भागवद्गीता, अध्याय ५ श्लोक १९ ) । 'समबुद्धयः'
पदकी सार्थकता विशेषरूपसे व्यवहारकालमें ही
प्रतिफलित हो पाएगी; इसका तात्विक आधार रहने के साथ साथ एक व्यावहारिक आधार भी माना
गया।
'ते
प्राप्नुवन्ति मामेव' -- निर्गुणके उपासक कहीं यह समझ लें कि निर्गुण तत्त्व कोई दूसरा
है और सगुण से भिन्न कोई सत्ता स्वरुप भी
हो सकता ; इस भ्रम को विक्सित न होने देने के लिए महर्षि वेदवतास यह प्रतिपादित कर
दिए कि निर्गुण ब्रम्ह जगदीश्वर से और कुछ हैं ही नहीं; (सन्दर्भ: श्रीमद्भागवद्गीता,
अध्याय ५ श्लोक ४; अध्याय १४, श्लोक २७ )।
अतः सगुन और निर्गुण दोनों ईश्वर के ही स्वरुप होंगे। परिपक्वता न पाने की स्थिति में भक्त के समीप किसी
प्रतीक के जरिये प्रकट होंगे, और ज्ञानी जनों के सम्मुख अपने शुद्ध बुद्ध स्वरुप में
प्रकट हो जाएंगे। जैसे हम सूर्य की किरणों
के होने और न होने का निर्णय वास्तु के दृष्टिगोचर होने और न होने से कर लेते हैं;
हवा के हने और न होने का निर्णय पत्तों के हिलने और न हिलने से कर लेते हैं ; वस्तु
के जरिये तत्व का विश्लेषण उसी सगुन उपासना का अभिक्रम माना जाएगा। निर्गुण तत्व को
विशेषित करने के लिए kul मिलाकर आठ विशेषण को उपयोग में लाया गया; जिस निर्गुणतत्त्वके
लिये 'अक्षरम्' और 'अव्यक्तम्' दो विशेषण को उपयोग में लाया गया था उसीका वर्णन करनेके लिये छः और विशेषण अर्थात् कुल आठ
विशेषण को उपयोग में लाया गया जिनमें पाँच
निषेधात्मक (अक्षरम्, अनिर्देश्यम्, अव्यक्तम्, अचिन्त्यम् और अचलम्) तथा तीन विध्यात्मक
'(सर्वत्रगम्, कूटस्थम्' और 'ध्रुवम्)' विशेषण का सम्मलेन हुआ।
कभी
हिमालय की गोद में बसे एक कसबे में अपनी दुकान लगानेवाले एक भक्त को उसीके ईष्ट देवता ने सपने में यह कहा कि वो भक्त की दुकान पर आएँगे।
उस भक्त को अपने ईष्ट के प्रति भक्ति तो थी; पर प्रत्यक्ष रूप से इस बात पर
उसे यह विश्वास नहीं आ रहा था कि उपास्य देवता प्रत्यक्ष रूप से उसकी दुकान पर भला कैसे आएंगे! विश्वास में कुछ कमी रहने पर
भी उसने प्रस्तुति जारी रखा; और अपने उपास्य देवता के स्वागत के लिए बी तैयारी करने
लगा; कुछ मीठा भी विशेष रूप से पकाया गया; लड्डू, पकवान आदि भी रखे गए; पर व्यापार
बंद रखने का फैसला किया गया।
सबेरा होते ही एक वृद्धा
दुकान पर आई; अन्य दिनों की भाँति उसे चाय पीना था , कुछ नाश्ता भी करना था; उसे दुकानदार
महाशय ने कुछ मीठा और पकवान देकर विदा किया।
"पैसे! नहीं नहीं, आज मेरा व्यापार बंद है ; कोई मेहमान आनेवाले हैं।
" दुकानदार को बड़ा ही आनंद मिल रहा था; पर सच बताने से कहीं लोग हंसाने न लगें,
इस दृष्टि से उसने हकीकत को छिपा लेना ही मुनासिब समझा।
इतने में एक बालक हाथ में
सेव लेते हुए दौड़कर दुकान में घुसा! उसके पीछे
ही वागवान लाठी लेकर दौड़ रहे थे। दुकानदार
समझ गया; बालक का चेहरा भी बहुत कुछ बता ही रहा था। उस बालक को भी मीठे मीठे लड्डू मिले; वेगवान का
सेव बाहर फेक दिया गया।
दोपहर का समय बीत रहा था; बाहर बर्फ
गिरना भी कुछ काम हो चला था। अपने भेद बकरियों
को किनारे में रखकर चरवाहा भी नाश्ता पानी पाने के आग्रह से दुकान में दाखिल हुआ; पकवान
और मीठा लेकर ही उसे संतोष करना पड़ा। उसने
भी पुछा, "आज कुछ विशेष बात है क्या?"
"हाँ, आज मेरे प्रभु, मतलब कि
मेरे एक ख़ास मेहमान आनेवाले हैं। "
फिर बात आगे नहीं बढ़ी; मुस्कुराते
हुए चरवाहा चल पड़ा। संध्या वेला का प्रकाश
ढलान पर था; अँधेरा बस छाने ही वाला था; दुकान के कपाट अधखुले ही रह गए; रोशनी की लकीरें
बर्फ पर एक निशान बना रही थी; दूर दराज से
आनेवाले लोग बड़ी ही सुगमता के साथ उस लकीर की भाँति निशान को देख पाते होंगे! इतने में एक बंजारे का भी आगमन
हुआ; एक कारीगर, एक सिपाही, कपड़ा बेचनेवाला और चर्मकार महाशय भी आकर गए। बस कुछ ही लड्डू और दो तीन पकवान बचे होंगे।
इतने में दुकानदार को नींद
भी आने लगी; अधखुला कपाट छोड़कर ही वो सो गया।
उसके बाद फिर क्या! भोर बेला में जब नींद खुली तब तक चूहे बाकी बचे सब चट कर
गए थे ! दुकानदार को सपना भी आया, " तुमने इतना सुन्दर मीठा बनाया था कि मैं बार
बार आया, बार बार खाया; पर मेरा भक्त शायद मुझे पहचान ही न पाया!"
भक्ति
अगर विशुद्ध हो, अनन्य हो, एक ईष्ट के प्रति समर्पण की भावना से अगर हो तो जगदीश्वर
प्रकट हो जाते हैं; फिर भक्त को संतोषी बनाते हुए अभय देते है। यही भक्ति मार्ग में चरम उत्कर्ष की अवस्था है। सबकी यही अभिलाषा रहती होगी उस चरम अवस्था का आनंद उठाया जाय और जीवन को साथक बनाया
जाय; "पर कैसे!" -- इसका अनुसंधान कर लेना अति आवश्यक है।
[i] श्रुतानुमानप्रज्ञाभ्यामन्यविषया
विशेषार्थत्वात् ।।
(पातंजल
योग दर्शन-१ .४९ )
"भक्ति योग के अभ्यास द्वारा आत्मज्ञान (जिसे
कभी कभी आत्मसाक्षात्कार भी कहते होंगे; जो कि दिव्य ज्ञान का भी सूचक बनता होगा) पा
लेना धार्मिक ग्रंथों के सैद्धान्तिक ज्ञान से कहीं श्रेष्ठ है।"
[ii] "एक
नौका के द्वारा किसी सड़क मार्ग की यात्रा नहीं
की जा सकती ; न हवाई जहाज के द्वारा समुद्र यात्रा; न ही साइकिल से साठ मील प्रति घंटे की गति से दूरी तय किया जा सकता; प्रत्येक वाहन की अपनी सीमाएं,
विशेषताएं और उपयोगिताएं हैं। परन्तु किसी
भी साधन का बुद्धिमत्ता तथा कौशल का सावधानीपूर्वक उपयोग करने से गन्तव्य तक पहुँचा
जा सकता है; सही प्रकार के वाहन को उपयोग में भी लाया जा सकता है। आत्मविकास के लिए, खुद को जगदीश्वर के समीप उपलब्ध
पाने के लिए [ जो कि एक चिरंतन सत्य, सर्व जान विदित भवितव्य और न टालनेयोग्य सम्मलेन
स्वरुप माना गया; जिसे साधक कुछ प्रयत्न मात्र से ही अनुभव करने लग जाते होंगे; जिसे
एक प्राप्त की ही प्राप्ति मानी गई; जिसे पाने अर्थ हुआ नदी की धारा का समुद्र के विस्तीर्ण
जालजलराशि में जाकर विलीन हो जाना; जिसे पूर्णता पाने के क्रम में बढ़ाया जानेवाला वलिष्ठ
कदम भी माना जाएगा ]; प्रत्येक साधक उपलब्ध शरीर, मन और बुद्धि की उपाधियों में से
किसी एक की प्रधानता से कर्मयोग, भक्तियोग या ज्ञानयोग के मार्ग का चुनाव करता होगा
; जैसे त्रिवेणी की धारा में से तीनों धारा को अलग से छांट पाना कठिन हो जाता होगा
वैसे ही योग के तीन प्रमुख धारा में से तीनों का सूक्षमता पूर्वक अनुसरण कर पाना भी
कठिन हो जाता है; वस्तुतः इन धाराओं को अलग कर भी नहीं पाएंगे; किसी एक धारा की प्रधानता
जरूर रहती होगी; इसी दृष्टि से हम ज्ञान योगी, उत्तम भक्त या ज्ञानी साधक को विशेषित
कर पाते होंगे। प्रकृतिसे जीव का माना हुआ
सम्बन्ध विषयक भ्रम दूर होते ही जगदीश्वर से अपना वास्तविक और नित्यसिद्ध सम्बन्ध प्रकट होने
लग जाता है ; उसकी स्मृति से अपना स्मृति पटल भी आप्लुत होने लग जाएगा -- 'नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा' (गीता अध्याय १८
। ७३ )। 'ते मे युक्ततमा मताः (अध्याय १२ श्लोक २)' बहुवचनान्त पदसे जिस विषय का प्रतिआदान
हुआ , यही बात 'स मे युक्ततमो मतः (अध्याय
६, श्लोक ४७ )' एकवचनान्त पदसे पहले कही जा चुकी। “
[श्रीमद्भागवद्गीता, अध्याय १२, श्लोक
२- ५ का आधार ]
---- आदि गुरु शंकराचार्य, योगी रामसुखदास,
स्वामी गम्भीरानन्द जी, स्वामी तेजोमयानन्दजी, स्वामी रामभद्राचार्य जी आदि भाष्यकारों
और टीकाकारों के सम्मिलित विवेचना के आधार पर।।
[iii]
“वह आकाशके समान सर्वव्यापक है
और अव्यक्त होनेसे "अचिन्त्य है"; जो वस्तु इन्द्रियादि करणोंसे जाननेमें
आती है उसीका मनसे भी चिन्तन किया किया जाना संभव हो पाता होगा; "अक्षर ब्रह्म"
उससे विपरीत होनेके कारण "अचिन्त्य और कूटस्थ" है। जो वस्तु ऊपरसे गुणयुक्त
प्रतीत होती हो और भीतर कुछ अन्य गुणों और अवगुणों से" भरी हो उसका नाम
"कूट" है। अपने दृश्य जगत में भी
कूटरूप कूटसाक्ष्य इत्यादि प्रयोगोंमें कूट शब्द का व्यवहार प्रसिद्ध है। जो अविद्यादि अनेक संसारोंकी बीजभूत अन्तर्दोषोंसे
युक्त "प्रकृति ", "निसर्ग" , "माया", "अव्याकृत" आदि शब्दोंद्वारा कही जाती है ( प्रकृतिको तो माया
और महेश्वरको मायापति समझने की अपनी एक पपरम्परा ही बनी) मेरी माया दुस्तर है इत्यादि
श्रुति - स्मृतिके वचनोंमें जो माया नामसे प्रसिद्ध है; वह भी "कूट" ही हुआ; उसमें जो उसका अधिष्ठातारूपसे
स्थित हो रहा हो उसका नाम "कूटस्थ" है; वही अचल और ध्रुव भी; ध्रुव सत्य
का भी वाचक होने के कारण सत्य का प्रकाशक तत्व भी हुआ; राशि -- ढेरकी भाँति जो कुछ
भी विशेष क्रिया न करता हुआ स्थित हो पाया हो उसे भी कूटस्थ ,
अचल और ध्रुव (अर्थात् नित्य ) कहेंगे
; गुनी भक्त उसी कूटस्थ की उपासना करते हैं; उसीपर ध्यान भी केंद्रित करते हैं और अपने
अंतर आत्मा में उसीका अनुसंधान करते हैं।“ ……
[iv] श्री
मद्भागवद्गीता के दूसरे अध्यायके चौबीसवेंपचीसवें श्लोकोंमें "सर्वगतः, अचलः,
अव्यक्तः, अचिन्त्यः" आदि और पन्द्रहवें अध्यायके सोलहवें श्लोकमें 'कूटस्थः'
एवं 'अक्षरः' विशेषण जीवात्माके लिये निर्देशित हुए ; सातवें अध्यायके श्लोक २५ में 'अव्ययम्' विशेषण परमात्माके विशेषताओं को दर्शाने
के लिए और चौदहवें अध्यायके पाँचवें श्लोकमें
'अव्ययम्' विशेषण जीवात्माके लिये संदर्भित किया गया ।