देहाभिमान

 

अनुभव कथन का सिलसिला चल पड़ा है और परत दर परत उसमें से कई गुत्थियां सुलझती जा रही है।  यह कथन अपने बनारस प्रवास से जुड़ा होने के कारण और भी महत्त्व का समझा जायेगा ऐसा विश्वास हम जरूर रखेंगे।  हम चार पांच सेवक , ब्रम्हचारी विरागी अश्वमेध घात से चौसठ घाट की ओर चहल कदमी करते हुए जा रहे थे।  वहीँ अपने बगल से एक अंग्रेज दम्पति यह कहते हुए निकल रहे थे कि अब धर्म का व्यापारीकरण हो रहा है; महादेव से ज्यादा लोगों को सैर सपाटे कि पड़ी है, और संत महात्मा कतार में खड़ा होकर उदर पूर्ति के प्रयास में लगे हुए हैं; वहां खिचड़ी बाबा भी सबको बुला बुलाकर प्रसाद बांटे जा रहे हैं; पूरे घाट पर चहल पहल का ही वातावरण था और लोग काफी सुलखे हुए भी थे ता कि किसी समूह के जरिये ठगे जाएँ ! हम क्या देखने आये थे यह तो कह पाना कठिन ही समझे: असल में हमें यह देखना था कि सभी कर्म कांडों के जरिये काशी में धर्म जीवित है भी या फिर पाखण्ड का ही मातम पसरा !

यह वही स्थान था जहाँ कभी त्रैलंग स्वामी जल समाधि ले लिया करते थे, यहाँ तक कि उनके उम्र को लेकर भी लोगों में संदेह का बादल है; वही त्रैलंग स्वामी ठाकुर रामकृष्ण को देखकर ख़ुशी के मारे दौड़ पड़े थे और दोनों में अजीब भाषा में संवाद भी हुई; जैसे मानो हजारों साल के अंतराल पर दो सहोदर फिर से मिल रहे थे; पहले पहल देखते ही दोनों एक दूसरे को जगदम्बा के साधक के रूप में पहचान भी गए और ख़ुशी का इजहार करने लगे! यह कोई कथा कहानी नहीं है , बल्कि इतिहास का हिस्सा बन चूका जिसकी गवाही देने के लिए सैकड़ों भक्त अपने अपने अनुभव दर्ज कर चुके हैं।  यहाँ तर्क कि कोई संभावना बचती ही नहीं।

चर्चा के केंद्रीय पक्ष पर आते हुए फिर एक और भक्त वत्सल की बात करें जो धर्म की तलाश करते हुए काशी के घाट पर चुके थे और उन्हीं पक्षों की तलाश करने लगे जिसपर उनके गुरु दृष्टी डाल चुके थे; वही घाट, वही कर्म काण्ड, वही जल समाधि, वही संत महात्माओं का पंडाल और वही चहल कदमी! फर्क सिर्फ इतना था कि ये सन्यासी महात्मा धर्म दर्शन के अभ्यासी होने के साथ साथ आधुनिक शिक्षा के धनी  थे और अपने  गुरु में अवतार पुरुष के होने की पहचान कर चुके थे।  मठ में कुछ तर्क और असंतोष होने के कारण मठ छोड़कर निकल चुके थे: उपयाचक -- परिव्राजक!  कहना तो आसान ही मानें पर उस मार्ग पर चल पड़ने का सत साहस दिखाने वाला कोई वीर विरागी शायद ही मिले।  यहाँ तक कि उनके गुरु माता को भी इस बारे में संदेह ही था।  वही वीर सन्यासी त्रैलंग स्वामी के जल समाधि लेने के विषय को महसूस करना चाह रहे थे, पर उनके मन में कोई भक्ति और आकर्षण का उद्भव नहीं हुआ; और उन्हें बनावटी भक्ति पर उतना विश्वास भी शायद ही रहा होगा।  उनके समय से ही विश्वनाथ (जिन्हें हम स्वयंभू विश्वनाथ मानते आये हैं) कहीं उस नगरी कि भूल भुलैया  में दब चुके थे पर बिलकुल शांत और संतोषी ही रहे; जिसके शरीर पर नाग देवता ही चढ़कर नाचते हों उन्हें भला आदमी के कारनामों की क्या पड़ी! वो तो जब चाहे वीरभद्र को उतार भी सकेंगे और फरमान भी निकाल सकेंगे।  वीर सन्यासी (तब तक अपना चिर परिचित नाम नहीं ले पाए थे ) वहां से आगे अपने अगले किसी पड़ाव की और चल पड़े; पर उनहोंने देश माता की पीड़ा को जरूर समझा, और अकेले होने पर एकांत में रो लिया करते थे।  

हम सब एकसाथ कुछ देर के लिए चौसठ घाट से आगे बने चबूतरे पर बैठे रहे।  उसके आगे फिर ऐसा पड़ाव था जहां से दिवंगत आत्माओं के नाम अंजलि आदि देने का सिलसिला चल रहा था; और आगे तो वह स्थान भी था जहाँ श्री हरिश्चंद्र कभी अपने ही पुत्र की चिता सजाने के लिए पैसा मांगते हुए पाए गए थे।  छोड़ने के बाद भी फिर अपना क्या! व्यक्ति सबकुछ छोड़ दे पर धर्म कहाँ छूटेगा ! वह तो जीवन की कड़ी का एक अटूट हिस्सा है और सबपर सामान रूप से लागू हो जाता है।  यह नैसर्गिक होने के साथ साथ ईष्ट का विधान भी मानें।  हमें फिर से उस वीर सन्यासी के कहे पर ध्यान जा रहा है; एकबार कुछ भक्त उसी घाट पर बैठे अपने गुरु से निवेदन कर रहे थे और इस इंतज़ार में थे कि उनके गुरु कुछ सुनाएँ।  "गुरूजी गीता से बोलिये, नहीं गुरूजी वेद, उपनिषद्, रामायण , महाभारत, नहीं गुरूजी तंत्र विद्या ….  " , कई प्रकार से भक्त काफी कुछ सुनना चाह रहे थे।  और गुरूजी अपना मौन बनाये हुए थे "

इस आचरण से दो ही संभावना निकल रही थी, या तो गुरूजी को उतना कुछ आता नहीं था जिसकी अपेक्षा उनके भक्त कर रहे थे, या फिर गुरूजी इस बात से परेशान थे कि ऐसा क्या कहें जिससे भक्तों को संतुष्ट किया जा सके ; अतः मौन सबसे बड़ी शक्ति है।

वहीँ बैठे बैठे हमने देखा एक महात्मा अपने भक्तों के साथ बैठे बैठे इस बात का इंतज़ार कर रहे थे कि कब कैमरे वाला और चैनल वाला आए और उनके चहल कदमी का चलचित्र निकाले ताकि सभी भक्तों को वो चलचित्र भेजे जा सकें; उन्हें गीता के कुछ श्लोक भी याद करवाए जा रहे थे ताकि लोग कमसे काम उन्हें पंडित , महात्मा आदि समझें; आजकल तो एकाध गीता का श्लोक भी अगर बोल पाएं तो भला कोई पंडित कहाँ माना जायेगा! "कर्मण्येवाधिकारस्ते ………… " समझें या समझें, बोल देने में क्या बिगड़ता है! दान आदि भी बिना कुछ ख़ास प्रयत्न किये कहाँ मिलता होगा ! कुछ और दूर पर हमें एक और महात्मा दिखे, शरीर से कुछ कमजोर से थे, एक घाव भी था, गंगाजी में उतरे और तन, मन के सभी मैल धोने के लिए प्रयास करने लगे; जल में उतरने के पहले अपना दंड भार एकमेव भक्त - सेवक के हाथ में थमा दिए।  "गुरूजी और आगे मत जाइये, कम पानी में ही रहिये, मैं दंड भार रखकर अभी आया ……….." , भक्त कि पुकार हमें भी संज्ञान में आ ही रहा था, कभी कभी नजरें भी जा रही थी; भक्त वत्सल के कारनामे भी संदर्भित हो रहे थे; फिर कुछ देर के अंतराल पर हमारी नजर उधर गई, काफी देर तक वो महात्मा जल में ही बैठे रहे और उनका सेवक कपड़ा धोने में व्यस्त हो गया।  पर महात्मा का नहाने का सिलसिला कुछ ज्यादे देर तक चल रहा था; वो कभी कमंडल का पानी अपने बाहों पर डालते , कभी सर पर तो कभी मुंह धो लेते;  कभी कभी अपनी नजरें भी उनपर जाकर टिक जाया करती।  अचानक उनहोंने कमंडल को घाट कि और फेंका और "हर हर गंगे ………  " , कहकर डुबकी लगाने लगे; दो तीन डुबकी के बाद पानी में उठने वाली तरंगें पानी के बहाव से जाकर मिल जाने लगी; भक्त वत्सल समझ गया।  जो गुरूजी कहा करते थे आज उन्हें वही करना है: शरीर छोड़ना है, माता गंगा के हाथ में सौंप देना है।  इस बात की जानकारी पाकर हम काफी देर तक चुप रहे; नाव उतारो,पानी खंगालो, तैराकी उतारो, हवलदार को कहो;  इन सभी कारनामों से भक्त वत्सल ने हमें दूर रखने का परामर्श दिया; गुरूजी पानी में उतरकर काफी देर तक सांस रोक लेंगे और धीरे धीरे शरीर छोड़ देंगे, इसके पहले श्री गुरु इस बारे में कह चुके हैं, कमंडल फेंककर उनहोंने इस निर्णय के बारे में फिर से बता चुके थे। 

शरीर तो संत महात्मा ही छोड़ते होंगे, लोगों से तो शरीर छुड़ा लिया जाता है, छोड़ने की बात तो दूर की रही।  यह तो देहाभिमान से परे किसी महात्मा की ही पहल थी।

जन्म से लेकर मृत्यु तक के सफर के सभी कर्मकांड का प्रतिफलन बनारस की घाट पर सहज ही परिलक्षित होगा ; परिवर्तन तो वक्त की मांग है ही: पिंड दान हो तो रहा है, पिंड के अकार दिन प्रति दिन छोटे होते जा रहे हैं। 

[चन्दन सुकुमार सेनगुप्ता]

अपराध और अपराधी

  चन्दन सुकुमार सेनगुप्ता अपने    दैनिक    जीवन    में कुछ हादसे ऐसे भी होते हैं जो पूरी व्यवस्था और न्याय तंत्र पर ही एक...