अपने देश में सेवा भाव से काम करनेवाली संस्थाओं की कमी नहीं है | उस संस्थाओं को देश विदेश से सेवा कार्य और ग़रीब कल्याण के नाम से पैसे भी मिल जाते हैं | इस प्रकार से सेवा करने के लिए बनी संस्थाओं की गतिविधि चलती चली आ रही है | उसी संस्था के आस पास समान विचारधारा वाले और समरूप तत्वज्ञान से प्रबुद्ध होकर कार्य करनेवालों का जमावड़ा भी होता आ रहा है | जब कोई व्यक्ति किसी दरिद्र व्यक्ति तक आसानी सा पहुँचना चाहे तो भी इन सेवा भावी संस्थानों के ज़रिए पहुँचने का प्रयास किया जाता है ताकि दान को महिमा मंडित किया जा सके और उस सेवा भाव का मूल मकसद सध सके |
आचार्य कहा करते थे कि सत्य अगर कड़वा हो और अप्रिय हो तो न कहा जाय | पर सत्य को अगर हम इश्वर मान लें तो असत्य कहना या सत्य को छिपाने के लिए गोल मटोल बातें करना भी कहाँ तक मानी हो सकेगा ! संस्थाओं के बनने की प्रक्रिया में कई ध्येय को सामने रखा जाता है और उस ध्येय को पाने के लिए संस्था की गतिविधियाँ बनाई जाती है | अगर ध्येय की प्राप्ति हो गई या फिर गतिविधियों को चलाने के लिए कोई माध्यम न बचा हो तो संस्था का निष्क्रिय होना स्वाभाविक है | उस परिस्थितीई में संस्था को कुछ ऐसे तट का चुनाव करना होता है जहाँ से विकास कार्य में लगे लोगों की उदार पूर्ति का काम चलता रहे | यह विषय सभी संस्थाओं के लिए सत्य नहीं भी हो सकता; जैसे शिक्षा और स्वास्थ्य जैसा विषय निरंतर ही चलनेवाला है ; किसी ख़ास तत्व को ध्यान में रखकर नागरिकों का प्रबोधन, भ्रष्टाचार के खिलाफ मोर्चा खोलना और धर्माचरण से नागरिकों को जोड़ना आदि विषय नित्य जीवन का अंग है | अतः ऐसे विषयों से जुड़ी संस्थाओं की अहमियत भी सदा के लिए रहने ही वाली है | प्रश्न उन संस्थाओं के बारे में निर्माण होता है जिन्हें ग़रीबी उन्मूलन का बीड़ा उठाते हुए जनता जनार्दन तक पहुँचना है और ग़रीब कल्याण योजनाओं के ज़रिए राष्ट्र निर्माण में अपनी भूमिका अदा करना है |
ग़रीबी उन्मूलन अगर किसी संस्था का ध्येय हो सकता तो सरकार बहादुर का भी यही ध्येय है और उनका प्रयास भी यही है कि ग़रीब नागरिक के ग़रीबी से ग्रसित होना का सही कारण पता करते हुए उसे उस ग़रीबी के जाता जाल से छुड़ा सके |
संवेदनशीलता
पुराण और वेदों में ऐसे काफ़ी उदाहरण मिलते हैं जिसके ज़रिए हम एक सम्राट और एक नागरिक के संवेदनशीलता को समझ सकें | एकबार भक्त सुदामा के परिवार वर्ग ने सुझाया कि उनके मित्र श्री कृष्ण कन्हैया सम्राट बन चुके , अब तो सुदामा को इस अवसर का भरपूर लाभ उठाते हुए अपनी ग़रीबी दूर कर लेनी चाहिए ! पर सुदामा के मन में कुछ संकोच था; जिस मित्र को एक मुट्ठी चावल की भुजिया नहीं दे पाए थे उसी मित्र से कुछ कैसे माँगा जाय ! और फिर मित्र भला किसी मित्र से कहाँ कुछ माँगता है ! मित्र से सिर्फ़ मैत्री का ही संबंध रहता है | उस मैत्री के संबंध में स्वार्थ का आना उचित नहीं है और ऐसा करना भी नहीं चाहिए |
काफ़ी अनुनय विनय करने के बाद सुदामा मान तो गये पर उनके मन में किसी और कारण से आनंद और हर्ष का बाढ़ आया ; काफ़ी लंबी अवधि के बाद उन्हें अपने मित्र से मिलने का मौका मिलेगा और इस मौके को सुअवसर में बदलते हुए सुदामा वही भेंट लेकर निकल पड़े आश्रम प्रवास के समय जो कृष्ण के माँगने पर भी नहीं दे पाए थे | उस कारण से बने आत्म ग्लानि को धो डालने का समय आया है यह जानकार भी सुदामा हर्षित हो रहे थे |
गिरिधारी का मित्र वह भी ऐसी दशा में ! विश्वास भला किसे हो पाता , अतः सैनिकों का भ्रमित होना भी जायज़ था | सुदामा को कृष्ण के सिंह द्वार पर ही रोका गया | अंदर जानकारी भेजी गई, और फिर क्या; गिरिधारी अपने उस मित्र को गले लगाने के लिए दौर पड़े और अपने परिषदों को अचंभे में डाल दिया | उस मित्र को अपने ही आसन पर बिठाया और दोनों का प्रेम संवाद फिर देखते ही बन रहा था |
बचपन में एक विद्यार्थी कक्षा से तब निकल जाना मुनासिब समझा जब टोल के शिक्षक महाशय गणित का घटाव (या वियोग) सिखाना चाह रहे थे | उस विद्यार्थी को सिर्फ़ योग सीखना था: आत्मा से परमात्मा का योग, मानव से ईष्ट का योग, सत्य और परम तत्व से अभ्यासी का योग, गुरु से शिष्य का योग; घटाव तो ईश्वर से भक्त को अलग कर देता है इसलिए उस विद्यार्थी को वियोग सीखना नहीं भाया | यह कथा श्री गदाधर के विद्यालय जीवन की कथा है जो आगे
चलकर रामकृष्ण परमहंस नाम से परिचित हुए |
समय समय पर संतों और मतमाओं
द्वारा योग को परिभाषित करने का प्रयास होता आ रहा है | योग के स्वरूप का उद्घाटन करते
हुए भी संतों के द्वारा निरंतर प्रयास हो रहे हैं | भारतीय दर्शन में, षड् दर्शनों
में से एक का नाम योग है। योग दार्शनिक प्रणाली,सांख्य
मतों के साथ निकटता से संबन्धित है। ऋषि पतंजलि द्वारा व्याख्यायित योग संप्रदाय सांख्य
मनोविज्ञान और तत्वमीमांसा को स्वीकार करता है |
सांख्य को इसलिए भी एक वैज्ञानिक आधार मिला है जिसके अंतर्गत ईश्वरीय सत्ता
को जीव रचना का विधायक माना गया |
(१) पातञ्जल योग दर्शन के अनुसार -
योगश्चित्तवृतिनिरोधः (1/2) अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है।
(२) सांख्य दर्शन के अनुसार - पुरुषप्रकृत्योर्वियोगेपि
योगइत्यमिधीयते। अर्थात् पुरुष एवं प्रकृति के पार्थक्य को स्थापित कर पुरुष का स्व
स्वरूप में अवस्थित होना ही योग है।
(३) विष्णुपुराण के अनुसार - योगः संयोग
इत्युक्तः जीवात्म परमात्मने अर्थात् जीवात्मा तथा परमात्मा का पूर्णतया मिलन ही योग
है।
(४) भगवद्गीता के अनुसार - सिद्धासिद्धयो
समोभूत्वा समत्वं योग उच्चते (2/48) अर्थात् दुःख-सुख, लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, शीत
और उष्ण आदि द्वन्दों में सर्वत्र समभाव रखना योग है।
(५) भगवद्गीता के अनुसार - तस्माद्दयोगाययुज्यस्व
योगः कर्मसु कौशलम् अर्थात् कर्त्तव्य कर्म बन्धक न हो, इसलिए निष्काम भावना से अनुप्रेरित
होकर कर्त्तव्य करने का कौशल योग है।
(६) आचार्य हरिभद्र के अनुसार - मोक्खेण
जोयणाओ सव्वो वि धम्म ववहारो जोगो अर्थात् मोक्ष से जोड़ने वाले सभी व्यवहार योग हैं।
(७) बौद्ध धर्म के अनुसार - कुशल चितैकग्गता
योगः अर्थात् कुशल चित्त की एकाग्रता योग है।
हमारी स्वतंत्र अवधारणाओं और ज्ञान की संरचनों के मुताबिक योग के प्रकार भेद भी गिनाए जा सकते हैं | सबसे अधिक प्रामाणिक ग्रंथों में से दो श्रोत को चुना जा सकता है | शिवसंहिता
तथा गोरक्षशतक में योग के चार प्रकारों का वर्णन मिलता है -
मंत्रयोगों हष्ष्चैव लययोगस्तृतीयकः।
चतुर्थो राजयोगः (शिवसंहिता , 5/11)
मंत्रो लयो हठो राजयोगन्तर्भूमिका क्रमात्
एक एव चतुर्धाऽयं महायोगोभियते॥ (गोरक्षशतकम् )
उपर्युक्त
दोनों श्लोकों के अनुसार योग के चार प्रकार हुए : मंत्रयोग, हठयोग लययोग व राजयोग।
मंत्र योग के बारे में योगतत्वोपनिषद में कहा गया है-
योग सेवन्ते साधकाधमाः।
( अल्पबुद्धि धारण करनेवाले साधक मंत्रयोग से ईष्ट की सेवा करता है अर्थात मंत्रयोग उन साधकों के लिए है जो सीमित बुद्धि या अल्पबुद्धि के धारक माने जाते हैं |)
मंत्रजप मुख्यरूप से चार प्रकार से करने की बात कही गई है |
(1) वाचिक (2) मानसिक (3) उपांशु (4) अणपा।
हठ प्रदीपिका पुस्तक में हठ का अर्थ इस प्रकार दिया है-
हकारेणोच्यते सूर्यष्ठकार चन्द्र उच्यते।
सूर्या चन्द्रमसो र्योगाद्धठयोगोऽभिधीयते॥
“ह” का अर्थ सूर्य तथा ठ का अर्थ चन्द्र है। सूर्य और चन्द्र की समान अवस्था हठयोग है। शरीर में कई हजार नाड़ियाँ है उनमें तीन प्रमुख नाड़ियों का वर्णन है: सूर्यनाड़ी (अर्थात पिंगला ) दाहिने स्वर का प्रतीक है। चन्द्रनाड़ी (अर्थात इड़ा)
बायें स्वर का प्रतीक है। इन दोनों के बीच अवस्थान करनेवाली तीसरी नाड़ी सुषुम्ना है। इस प्रकार संक्षेप में अगर कहा जाए तो हठयोग वह क्रिया है जिसमें पिंगला और इड़ा नाड़ी के सहारे प्राण को सुषुम्ना नाड़ी में सन्निविष्ट
कराकर ब्रहमरन्ध्र में समाधिस्थ किया जाता है।
योगतत्वोपनिषद में हठयोग के आठ अंगों का वर्णन है- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि |
लय योग
इस योग के अंतर्गत चित्त अपने स्वरूप में विलीन हो जाता है | चित्त की निरुद्ध अवस्था इस योग के अंतर्गत विचार्य विषय है | साधक के चित्त् में जब चलते, बैठते, सोते और भोजन करते समय हर समय ब्रह्म का ध्यान रहे इसी को लययोग कहते हैं। योगत्वोपनिषद में इस प्रकार वर्णन है- गच्छस्तिष्ठन स्वपन भुंजन् ध्यायेन्त्रिष्कलमीश्वरम् स एव लययोगः स्यात (22-23) ||
राजयोग
एक ऐसे योग का विधान शास्त्र में सन्दर्भित होता है जिसके अंतर्गत अन्य सभी योग -आचरणों को समाविष्ट होता हुआ देखा जा सकता है | राजयोग का विषय चित्तवृत्तियों का निरोध करना है। चित्त-वृत्ती निरुद्ध करने की विधि को सर्वाग्र महत्व का विषय माना गया |
महर्षि पतंजलि के अनुसार समाहित चित्त वालों के लिए अभ्यास और वैराग्य तथा विक्षिप्त चित्त वालों के लिए क्रियायोग का सहारा लेकर आगे बढ़ने का रास्ता सुझाया है। इन साधनों का उपयोग करके साधक के क्लेशों का नाश होता है, चित्त प्रसन्न होकर ज्ञान का प्रकाश फैलता है और विवेक ख्याति प्राप्त होती है।
योगाडांनुष्ठानाद शुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिरा विवेक ख्यातेः (2/28)
राजयोग के अन्तर्गत महर्षि पतंजलि ने अष्टांग को इस प्रकार बताया है-
यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टांगानि।
योग के आठ अंगों में प्रथम पाँच बहिरंग तथा अन्य तीन अन्तरंग में आते हैं।
महर्षि पतंजलि द्वारा प्रणीत योग, बुद्धि के नियंत्रण के लिए एक प्रणाली है जिसे राज योग के रूप में जाना जाता है। पतंजलि उनके दूसरे सूत्र मे "योग" शब्द को परिभाषित करते है, पूरे काम के लिए इसे व्याख्या सूत्र माना जाता है:
"योग: चित्त-वृत्ति निरोध: [- योग सूत्र 1.2 ]"
तीन संस्कृत शब्दों के अर्थ पर यह संस्कृत परिभाषा टिकी है। योग बुद्धि (चित्त) को विभिन्न रूप (वृत्ति) अपनाने से तथा विषयों में आविष्ट होने से रोकता तो है ही, बुद्धि को अधिक सुचाग्र करते हुए व्यक्ति को अंतर्मुखी बनने के लिए सहायक होता है |
राज योग (महर्षि पतंजलि प्रणीत हठयोग) के आठ अंग हैं:
यम : सत्य, अहिंसा, अस्तेय (चोरी न करना), अपरिग्रह (अनावश्यक धन और सम्पत्ति एकत्र न करना), ब्रह्मचर्य ।
नियम (पांच "धार्मिक क्रिया") : शौच (पवित्रता), सन्तोष, तपस, स्वाध्याय और ईश्वरप्राणिधान।
आसन : स्थिर (मन, चित्त, देह और बुद्धि ) अवस्था प्राप्त करते हुए व्यक्ति अगर सुख अनुभव कर सके उसे योगासन या सिर्फ़ आसान कहेंगे |
प्राणायाम : प्राण, सांस, "अयाम ", को नियंत्रित करना या बंद करना। साथ ही जीवन शक्ति को नियंत्रण करने की व्याख्या की गयी है।
प्रत्याहार : बाहरी वस्तुओं से भावना अंगों के प्रत्याहार
|
धारणा ("एकाग्रता"): एक ही लक्ष्य पर ध्यान लगाना
|
ध्यान : ध्यान की वस्तु की प्रकृति का गहन चिंतन
|
समाधि : ध्यान के वस्तु को चैतन्य के साथ विलय करना। इसके दो प्रकार है - सविकल्प और निर्विकल्प। निर्विकल्प समाधि में संसार में वापस आने का कोई मार्ग या व्यवस्था नहीं होती। यह योग पद्धति की चरम अवस्था है।
इस योग के अंतर्गत आत्म तत्व के विविध स्वरूपों का विवेचन है और यह विधान हर स्तर का जीवन जीनेवाले विविध अभ्यासी के लिए किया जानेवाला योग बताया गया | विचार, स्मृति और बुद्धि में समाधि पाने के बाद व्यक्ति खुद के अस्तित्व को विश्व ब्रह्मांड के आलोक में भली भाँति समझ सकेगा ; इतना ही नहीं विश्व चराचर में अपनी भूमिका भी तय कर सकेगा | योग के महत्व और जीवन सुधारक परम तत्व होने के विषय को लेकर समय समय पर संवाद होते आ रहा है और आगे भी होता ही रहेगा | कई प्रकार से इस विधान को दार्शनिकों और विवेचकों के माध्यम से समझने का प्रयास भी अक्सर होता आ रहा है |
सर्व प्रथम सांख्य, वेदांत और राज योग के बीच समन्वय स्थापित करने का प्रयास महर्षि वेद व्यास के द्वारा महाभारत के भीष्म पर्व के अंतर्गत किया गया | उसी पर्व के एक संकलन को हम श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में पाते हैं | गीता के प्रथम अध्याय को अर्जुन विषाद योग कहा गया | प्रथम अध्याय में कौरव और पांडव इन दोनों सेनाओं का वर्णन किया जाता है।
शंख बजाने के पश्चात अर्जुन सेना को देखने के लिए रथ को मैदान के बीच में ले जाने के लिए श्री कृष्ण से कहता है। तब मोहयुक्त होकर अर्जुन कायरता पूर्ण तथा शोक युक्त वचन कहने लग जाता है।
गीता का मूल विषय ही है सांख्य, वेदांत और हठयोग में समन्वय स्थापित करते हुए एक योगी
को उत्तम तथा धर्मार्थ मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करना |
जो संत योग ही सीखना चाहते
थे और वियोग सीखने का मन नहीं बना पा रहे थे उनको इस बात की जानकारी तो थी कि योग के
समान्तराल वियोग का होना भी अनिवार्य है ; इस सत्य से भागते रहना एक प्रकार की नादानी
समझी जाएगी | उस नादानी के बदौलत ही योग के प्रति सबका लगाव ज़्यादा रहता है | जिनके
पास धन है वो कभी नहीं चाहेंगे कि तिजोरी खाली होते रहे ; उनका यही मन रहता है कि तिजोरी
सिर्फ़ भरता रहे | जिस महात्मा को सिर्फ़ योग सीखना था उनका यही मन रहता था कि जीवात्मा
और परमात्मा का सिर्फ़ योग हो और वियोग न हो ; अपने आप नैसर्गिक वियोग भले ही हो, पर
हम न करें, न सीखें और न ही उसके बारे में सोचें | अनित्य को छोड़ व्यक्ति नित्य के
बारे में सोचे, अध्रुव को छोड़ व्यक्ति ध्रुव के बारे में सोचे, सचराचर विश्व में अपनी
भूमिका को समझे, सर्वशक्तिमान के विधायक संस्क्रियाओं को समझे और उसी विधान के अंतर्गत
अपने अंतरात्मा के साथ परमात्मा के जुड़े रहने के रहस्य को उसके सही स्वरूप में समझे
|
आचार्य विनोबा अक्सर उस
देवत्व को व्यक्ति मात्र में होने की बात को समझने के लिए कहा करते थे; उस ब्रह्म स्वरूप
को समझने की अनुक्रिया को ही ब्रह्म विद्या का एक अंश माना गया | समाज से जुड़कर रहते
हुए समाज के घटकों का प्रबोधन हो, शास्त्र चिंतन के साथ साथ व्यक्ति राष्ट्र निर्माण
के काम से जुड़े और कर्म प्रधान संस्कृति के आसीन होकर लोक कल्याण को सही दिशा मिले,
इसपर उनका चिंतन चलता रहता था | उनका भी योग कुछ ऐसा ही था: व्यक्ति से राष्ट्र जुड़ा
रहे, समाज से व्यक्ति जुड़ा रहे, विश्व चराचर से राष्ट्रों को जोड़ें, महासंघ को बनाए
रखें , सबके अरमानों का सही स्वरूप में रक्षण हो |
आचार्य तुलसी भी कहा करते
थे व्यक्ति अगर योग के स्वरूप और उद्देश्य को समझते हुए आचरण करे और सही मार्ग पर चले
तो राष्ट्र का सुधर जाना तय है |
यह भी देखा जा रहा है कि
संतों की भाषा में समान रूप से तालमेल और सामंजस्य है | विभेद की भाषा कहीं भी नहीं
व्याप्त हो रही है और न ही उनमें से किसी को विभेद देखने की अभिलाषा रही होगी | फिर
भी समाज और राष्ट्र में विभेद और वियोग आ ही जाता और उसे झेलने के लिए जनता जनार्दन
मजबूर सी हो जाती है | आचार्य भी अपने जीवन पर्यंत सबको जोड़ने का प्रयास करते रहे
ता कि राष्ट्र निर्माण के मंगल कार्य को दिशा और गति मिल सके | वियोग लानेवाली संस्था
और व्यक्ति को उनके कृत कर्मों से हटाकर राष्ट्र निर्माण के मंगल कार्य में लगाने का
काम काफ़ी अहम हो जाता है | सरोवर में से कीचड़ निकालकर उसे साफ करने का हमारा सपना
शायद ही पूरा हो पर किसी प्रौद्योगिकी के सहारे सरोवर में से कीचड़ को उठाया जा सकता
है , और वहाँ बसे जीव जंतुओं को कोई नुकसान भी न पहुँचे |
अंततः यह कहा जा सकेगा कि
भेद बुद्धि से उभरकर काम करते रहनेवालों को आधुनिक समाज में ज़्यादा प्रतिष्ठा और ज़्यादा
स्वीकारोक्ति मिलेगी | अतः यही उचित होगा कि शिक्षा के कार्य में भी उन तत्वों को जोड़ते
चलें जिसके बदौलत शिक्षु भेद बुद्धि से उभरकर एक सचेत नागरिक बन सकें और समय आनेपर
अपनी भूमिका अदा कर सकें, राष्ट्र निर्माण में जुड़ सकें और विश्व चराचर में खुद की
भूमिका को तलाशें, उसे सत्यापित करें |
कभी कभी हम इस बात को लेकर ज्यादा व्यस्त हो जाते हैं जब किसी व्रत विशेष को लेकर चर्चा चल पड़े। स्वाध्याय
के बारे में भी वही परिस्थिति का मिर्माण होता हुआ दिखेगा। सामान्य सृष्टि से यह समझा जाता है कि किसी वरिष्ठ के मदद के बिना किसी साहित्य का अध्ययन ही स्वाध्याय समझा जाये। इसका मतलब है स्व- का अध्ययन। अपनी स्थिति को सही तरीके से जान लेना ही स्वाध्याय समझा जाएगा। ेसे और भी कई अर्थ निकाले जाते होंगे।
सोच विचार तब और बढ़ जाता है जब हम किसी कृति का नाम ही स्वाध्याय रख दें ! यह कुछ ऐसा समझा जाना चाहिए जब हम श्री गंगा जी की
पूजा करने के लिए उसी जल से अंजलि दे दें। कुछ ख़ास माने शायद ही निकालता होगा। जिस व्यक्ति को सनातनी परंपरा का रीति रिवाज विषयक सम्यक ज्ञान नहीं रहा होगा उसे तो यह काम बड़ा अजीब ही लगेगा, और मूर्खता भी समझी जायेगी। किसी संत को भी असा अजीब ही लगा था जब उनहोंने देखा कि तरपान के समय पूर्वजों को जल देने के लिए अंजलि नदी और जलाशय में डाली जा रही थी; वो भी बड़े ही श्रद्धा के साथ और काफी नियमों का पालन करते हुए।
इस शीर्षक के जरिये कुछ ऐसे ही विषयों पर चर्चा सत्र चलाई जा रही है जिसके आस पास विचार और परंपरा विषयक चर्चा और अध्ययन को गति मिल सकेगी। अभ्यासियों के सम्मुख एक नया आयाम भी खुल सकेगा। सिर्फ इतना ही नहीं हम उन सभी क्रियाओं के जरिये स्व- के अध्ययन विषयक कृति को भी संदर्भित कर सकेंगे। योग दर्शन में स्वाध्याय को नियम के अंतर्गत एक व्रत माना गया। वहां चित्त के विक्षेप विषयक अनुक्रिया पर अंकुश पाने के लिए इस व्रत कि अहमियत गिनाई गई है।
अगर वेद का आधार मानें तो पाते हैं कि पवित्र ग्रंथों का अध्ययन ही स्वाध्याय है।
तत्त्वज्ञान को पढ़ना, पढ़ाना, स्मरण करना आदि[1]
, आलस्य त्यागकर ज्ञान की आराधना[2]
और अपने आत्मा का हित करने वाला अध्ययन[3] स्वाध्याय है।
शिक्षण
एक निरंतर चलने वाली सतत प्रक्रिया है | इसे सिर्फ़ विद्यालय तक सीमित नहीं माना जा
सकता | हमारे निसर्ग के प्रत्येक कण में शिक्षण पाने लायक तत्व भरा पड़ा है | चाहिए
सेर्फ एक सकारात्मक दृष्टि ताकि उन बिखरे विचारून को हम सफलता पूर्वक ले सकें | मां,
बाप, गुरु, संत, बच्चे इनमें यदि हम परमात्मा न देख सकें, तो फिर किस रूप में देखेंगे?
इससे उत्कृष्ट रूप परमेश्वर का दूसरा नहीं है। ईसप के राज्य में सियार कुत्ते‚ कौए‚
हिरन‚ खरगोश‚
कछुए‚ सांप‚
केंचुए- सभी बातचीत करते हैं‚
हंसते हैं। एक प्रचंड सम्मेलन ही समझिए नǃ ईसप से सारी चराचर सृष्टि बातचीत करती
है। उसे दिव्य दर्शन प्राप्त हो गया है।
संगीत का शास्त्र समझ तो लिया, किन्तु यदि कंठ से संगीत प्रकट करने की कला न सधी, तो नाद-ब्रह्म की सजावट नहीं होगी।
खेत का कचरा निकालते-निकालते कर्मयोगी को खुद अपने हृदय का वासना-विकाररूपी कचरा निकाल डालने को बुद्धि उपजती है।
संतों ने तो घोड़ों को खरहरा करने वाला, गायें चराने वाला, रथ हांकने वाला, पत्तल उठाने वाला, लीपने वाला, कर्मयोगी परमेश्वर खड़ा किया है।
तलवार हाथ में लेने से हिंसावृत्ति अवश्य प्रकट होती है, परन्तु तलवार छोड़ देने से मनुष्य अहिंसामय होता ही है, सो बात नहीं। ठीक यही बात स्वधर्माचरण की है।
अकेली तेल-बत्ती से दीया नहीं जल जाता। उसके लिए ज्योति की जरूरत होती है। ज्योति होगी, तो अंधेरा दूर होगा। यह ज्योति कैसे जलायें?
बाहर से विषय भोगों को छोड़कर यदि मन में भगवान का चिंतन न किया जाये, तो फिर इस बाहरी उपवास की क्या कीमत रही?
यदि कोई कहे कि ‘नमक मिर्च
की तरह’‚ तो हम उसे पागल कहेंगे।
पर यदि कोई यह कहे कि ‘तारे फूलों की तरह हैं‚
तो उनमें साम्य दिखायी देने से आनंद होगा। हिंदू-मुस्लिम ऐक्य के
लिए भूतकाल का विस्मरण ही एकमात्र उपाय है। मनुष्य यदि बुराई को छोड़कर सिर्फ अच्छाई
को ही याद रखे‚ तो कैसी बहार होǃ परंतु ऐसा नहीं होता। इसलिए विस्मृति
की बड़ी आवश्यकता है। इसके लिए भगवान ने मृत्यु का निर्माण किया है।
अहिंसा की प्रक्रिया हृदय परिवर्तन
पर आधार रखती है | हृदय परिवर्तन की अपनी एक पद्धति है | मनुष्य कभी कभी जनता भी नहीं
कि उसका हृदय परिवर्तन हो रहा है | हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारे विचार, सोचने
की पद्धति आदि उसके बाधक न हों | हम जब हृदय
परिवर्तन और विचार परिवर्तन की बात करते हैं, तो हमारे सामने दूसरों के विचार परिवर्तन
की ही बात होती है, ऐसा नहीं है | हमारे अपने और दूसरों के भी विचार परिवर्तन और हृदय
परिवर्तन की बात होती है, या होनी चाहिए |
जहाँ विचार और भ्रम दोनों होते हैं, वहीं उपासना भी होती है | यही दृष्टांत हृदय परिवर्तन
की प्रक्रिया के लिए लागू होता है | भ्रम और
सत्य, दोनों का होना हृदय परिवर्तन की एक अवस्था की प्रक्रिया में ज़रूरी होता है
| मनुष्य पहले केवल भ्रम में होता है | वहाँ
से उसे केवल सत्य में जाना है | अब केवल भ्रम से केवल सत्य की स्थिति में जाने के लिए
रास्ते में ऐसी भूमिका आएगी , जब कि उसके मन में कुछ भ्रम और कुछ सत्य का आधार होगा
| तब हम अगर फ़ौरन उसका खंडन करेंगे, तो उसका
चित्त विचलित होगा और एक विरोध स्थापित हो जाएगा | उस भ्रम का खंडन करना अहिंसा
के लिए बाधक होगा, यदि सत्य के ख़याल से उसका
खंडन किया जाता हो तो | सत्य कभी चुभता नहीं | अगर वास्तव में सत्य है, तो हमेशा
प्राण दायि होगा | जो तत्व प्राण दायि है,वह अहिंसक तो होगा ही, चुभेगा भी नहीं | चुभनेवाले
सत्य में अहिंसा की कमी तो स्पष्ट ही है , लेकिन उसमें सत्य का अंश भी कुछ कम होता है |
समाधि अध्ययन का मुख्य तत्व है | समाधियुक्त
गभीर अध्ययन के बिना ज्ञान नहीं | अध्ययन से प्रज्ञा और बुद्धि स्वतंत्र और प्रतिभावान
होनी चाहिए | नई कल्पना,नया उत्साह, नया खोज,
नई स्फूर्ति , ये सब प्रतिभा के लक्षण हैं | लंबी चौड़ी पढ़ाई के नीचे यह प्रतिभा दबकर
मार जाती है | वर्तमान जीवन में आवश्यक कर्म योग का स्थान रखकर ही सार अध्ययन अध्ययन
करना चाहिए | शरीर की स्थिति पर कितना विश्वास किया जाता है, यह प्रत्येक के अनुभव
में आनेवाली बात है | भगवानकी हम सबपर पर अपार क्रिया ही समझनी चाहिए कि हममें वह कुछ
न कुछ कमी रख ही देता है | वह चाहता है कि यह कमी जानकर हम जागृत रहें | जीवन का मार्ग
दो बिंदुओं से ही निश्चित होता है: हम हैं कहाँ और हमें जाना कहाँ |[1]
मैं सत्य की ओर अपने कदम बढ़ते रहूं
तो भी ईश्वर की कृपा के बिना मंज़िल पर नहीं पहुँच सकता | मैं रास्ता काटने का तो प्रयत्न
करता हूँ, पर अंत में मैं रास्ता काटता रहूँगा कि बीच में मेरे ही पैर कट जानेवाले
हैं, यह कौन कह सकता हैं ? प्रार्थना के सहयोग से हमें बल मिलता है | प्रार्थना में
दैववाद और प्रयत्नवाद का समन्वय है | दैववाद में पुरुषार्थ को अवकाश नहीं है, इससे
वह वावला है | प्रयत्नवाद में निरहंकार वृत्ति नहीं है, इससे वह घमंडी है | दैववाद
में जो नम्रता है वह ज़रूरी है और प्रयत्नवाद में जो पराक्रम है वह भी ज़रूरी है |
प्रार्थना इनका मेल साधती है |
आधुनिक
शिक्षा
हम जिसे जीवन की तैयारी का ज्ञान कहते
हैं उसे जीवन से बिल्कुल अलिप्त रखना चाहते हैं, इसलिए उक्त ज्ञान से मौत की ही तैयारी
होती है | आजकी मौत कलपर ढकेलते ढकेलते एकदिन ऐसा आ जाता है कि उस दिन मारना ही पड़ता
है | जिंदगी की ज़िम्मेदारी कोई निरि मौत नहीं है , और मौत ही कौन सी ऐसी बड़ी
"मौत" है? जीवन और मरण दोनों आनंद की वस्तु होनी चाहिए | ईश्वर ने जीवन दुःखमय नहीं रचा पर हमें जीवन जीना
आना चाहिए | पानी से हवा ज़्यादा ज़रूरी है तो ईश्वर ने हवा को पानी से ज़्यादा सुलभ
किया है | "आत्मा" अधिक महत्व की वास्तु होने के कारण वह हमेशा के लिए हरेक
को दे डाली गई है | जिंदगी की ज़िम्मेदारी
कोई डरावनी चीज़ नहीं है | वह आनंद से ओतप्रोत है , बशर्ते कि ईश्वर की रची हुई जीवन की सरल योजना को ध्यान
में रखते हुए आयुक्त वासना को दबाकर रखा जाय |
यह पक्की बात समझनी चाहिए कि जो जिंदगी की ज़िम्मेदारी से वंचित हुआ वो सारे
शिक्षण का फल गँवा बैठा | जिंदगी की ज़िम्मेदारी का भान होनेसे अगर जीवन कुम्हालता
हो तो वह जीवन वस्तु ही रहने लायक नहीं है |
ईसप नीति के आरासिक माने हुए, परंतु वास्तविक मर्म को समझनेवाले मुर्गेसे सीख
लेकर ज्वार के दानों की अपेक्षा मोतियों को मान देना छोड़ दिया तो जीवन के अंदर का
कलह जाता रहेगा और जीवन में सहकार दाखिल हो जाएगा | भगवद्गीता जैसे कुरीक्षेत्र में
कही गई वैसे शिक्षा जीवन - क्षेत्र में देनी चाहिए, दी जा सकती है | व्यवहार में काम
करनेवाले आदमी को भी शिक्षण मिलता ही रहता है | वैसे ही बच्चों को मिले |
कर्मयोग
की विद्या
कर्मयोगी बनने के लिए विद्यार्थियों
को कुछ न कुछ निर्माण कार्य करते रहना चाहिए | निर्माण के बिना निःसंशय ज्ञान भी नहीं होता | प्रयोग से प्राप्त ज्ञान ही
निःसंशय ज्ञान होता है | रोटी पकना अगर लड़कियों का काम है तो रोटी खाना भी लड़कियों
का काम रहने दीजिए | अपने लिए ज्ञानमृत भोजन रख लीजिए | श्री कृष्ण बचपन में हाथ से
काम करते थे, मेहनत मज़दूरी करते थे | इसीलिए गीता में इतनी स्वतंत्र प्रतिभा का दर्शनहमें होता है | जिस
विद्या में कार्तृत्व शक्ति नहीं, स्वतंत्र रूप से सोचने की बुद्धि नहीं, ख़तरा उठाने
की वृत्ति नहीं वह विद्या निस्तेज है |
हर एक परिश्रम का नैतिक, आर्थिक और
सामाजिक मूल्य एक ही है | प्राचीन कालमें हमारे यहाँ कला कम नहीं थी | लेकिन पूर्वजों
से मिलनेवाली कला एक बात है और उसमें निरंतर प्रगती करते रहना अलग बात | अपनी प्राचीन कला को देखकर हमें आश्चर्य होता है,
यही सबसे बड़ा आश्चर्य है | ऐसा हुआ कैसे?
कारीगरों में ज्ञान का अभाव और हममें परिश्रम प्रतिष्ठाका अभाव यही इसका बड़ा
कारण है | कुम्हार हो या बढ़ई, उसके घर में
बच्चों को बचपन ही से उसके धंधे की शिक्षा अपने पिता माता से मिल जाती थी | बुनकर से तो मैं कहूँगा
कि अपने पिता का धंधा करना तो उसका धर्म है और हम ही उसका बनाया कपड़ा न खरीदें तो
वर्णाश्रम धर्म कैसे जीवित रहेगा ?
हमारी
वृत्ति के कारण उद्योग गया और उसके साथ साथ उद्योगशाला भी गई |
निसर्ग शिक्षा
स्थूल
और सूक्ष्म‚ सरल और मिश्र‚
सरल अक्षर और संयुक्ताक्षर सब सीखो और अंत में यह अनुभव करो कि परमेश्वार
से ख़ाली एक भी स्थान नहीं है। अणु-रेणु में भी वही है। कृष्ण के हाथ की मुरली कैसे बनूं? वे अपने होंठ से
मुझे लगा लें और मुझसे मधुर स्वर निकालें‚ मुझे बजाने लगें
यह कैसे होगा? मुरली बनना यानि पोला बननाǃ परमेश्वर के हाथ का औजार बनना हो‚
तो मुझे दस सेर वजन का लोहे का गोला नहीं बनना चाहिए।
शरीर के हरेक अवयव का पूर्ण
और व्यवस्थित वृद्धि होना, इंद्रियों का चतुर,
चाल और कार्यकुशल बनना, विभिन्न मनोवृत्त्तियों का सर्वांगीण विकास होना ; स्मृति,
मेधा, धृति, तर्क आदि बौद्धिक शक्तियों का प्रगलब और प्रखर बनना - इन सब नैसर्गिक और प्राकृतिक प्रवृत्तियों का निसर्ग
शिक्षा में अंतर्भाव हो जाता है | मानव को बाह्य परिस्थिति से जो ज्ञान प्राप्त होता
है और व्यवहार में जो अनुभव मिलता है, उस समस्त पदार्थ ज्ञान या भौतिक जानकारी को वह "व्यवहार शिक्षण " नाम देता है | निसर्ग
शिक्षण से प्राप्त आत्म विकास का बाह्य व्यवहार ज्ञान की दृष्टि से बाह्य जगत में किस
प्रकार से उपयोग किया जाय , इस बारे में अन्य मनुष्यों के प्रयातनों का जो वाचिक, सपरदायिक
या विद्यालय आधारित शिक्षण मिलता है उसे व्यक्ति शिक्षण संज्ञा दी है | क्या व्यक्ति
शिक्षण क्या व्यवहार शिक्षण, दोनों व्यक्ति को बाहर से मिलते हैं | केवल निसर्ग - शिक्षण
व्यक्ति को भीतर से मिलता है |
वस्तुतः
बाह्य शिक्षण मनुष्य को विश्व के प्रत्येक पदार्थ से लगातार मिलते रहता है | उसमें
कभी बाधा नहीं पड़ती | जितने भी पदार्थ हैं सबमें शिक्षण के सारे तत्व भरे पड़े हैं
| नैयायिकों का अणु से लेकर संख्यों के महत्तम तत्व तक, रेखागणित के बिंदु से लेकर
भूगोल के सिंधु तक और बचपन की भाषा में कहना हो तो "राम की चोटी से लेकर तुलसी
के मूल तक"[2]
सभी छोटे बड़े पदार्थ मानव के गुरु हैं | विचक्षण विज्ञान वेत्ताओं की दूरबीन में,
व्यवहार विशारादों के चर्म चक्षुओं में , कला कुशल कवियों के दिव्य चक्षुओं में या
तार्किक तत्ववत्ताओं के ज्ञान चक्षुओं में जो भी पदार्थ प्रतिभात होते हों या न होते
हों, उन सभी में हमें नित्य ही शिक्षा मिलती
रहती है | यह विशाल सृष्टि परमेश्वर द्वारा हम सबकी शिक्षा के लिए हम सबके सामने खोलकर
रखा हुआ एक शाश्वत, दिव्य, आश्चर्यमय और परम पवित्र ग्रंथ है | पर यह ग्रंथ गंगा कितनी
ही गहरी हो, मानव अपने लोटे से ही उसका पानी भरेगा | इसलिए इस विश्व से बाह्यतः हमें
वही और उतना ही शिक्षण मिलेगा, जिसके और जीतने के बीज हमारे भीतर निहित होंगे |
हम
इस बाहरी दुनिया से जो कुछ सीखते हैं उसे अंततः भूल जाते हैं और उसके संस्कार मात्र
शेष बचता है | शिक्षण का अर्थ जानकारी नष्ट होने पर बचे हुए संस्कार ही हैं | जो हमारे
भीतर नहीं है उसका बाहर से मिलना असंभव है | इस तरह स्पष्ट है कि बाह्य शिक्षण कोई
तांत्रिक पदार्थ न होकर केवल अभावत्मक क्रिया है |
सुख का बाह्य पदार्थों से क्या संबंध है?
यदि कहें कि सुख बाह्य पदार्थों में है, तो उनसे सदैव सुख होना चाहिए; पर ऐसा होता नहीं | मानसिक स्थिति बिगड़ी रहे , तो अन्य समय जो पदार्थ सुखकर प्रतीत होते हों , वे भी सुख नहीं दे पाएँगे |
इसके विपरीत यदि ऐसा कहें " सुख एक मानसिक भावना है और बाहरी वस्तुओं से इसका कोई संबंध नहीं" तो वैसा नित्य अनुभव नहीं आता | घड़ा और मिट्टी के बीच अनिर्वचनीय संबंध है | यह संबंध अनिर्वचनीय होनेपर भी जिस तरह एक पक्ष में , "वाचारंभन विकारो नामधेयन म्रित्तिकेत्येव सत्यम" , यानी मिट्टी तात्विक और घड़ा मिथ्या, इस तरह तारतम्य से निर्णय किया जाता है , ठीक उसी तरह अंतः शिक्षण भावरूप और बाह्य शिक्षण अभाव रूप ऐसा कहा जा सकता है | अंतः शिक्षण या आत्मिक विकास भावरूप होनेपर भी वह व्यक्ति के भीतर ही भीतर अपने आप हुआ करता है | उसके बारे में हम कुछ भी नहीं कर सकते | उसके लिए कोई पाठ्यक्रम भी नहीं बन सकता | और बनाया भी जाय तो उसे कार्यान्वित कर पाना संभव नहीं | वास्तव में बाह्य शिक्षण कार्य है, उपयुक्त कार्य है; पर अभावात्मक कार्य है | शिक्षण द्वारा कोई स्वतंत्र तत्व उत्पन्न नहीं करना है, पर निद्रित तत्व को जागृत करना है | शिक्षण उत्तेजक दवा न होकर प्रतिबंध निवारक उपाय है | शिक्षण अभावत्मक होनेपर भी उपयुक्त है और प्रतिबंध - निवारण के नाते ही क्यों न हो, उसे थोड़ी भावात्मकता भी प्राप्त है |
[1] ग्रामसेवा वृत्त से
[2] अपने देश में बच्चे एक दूसरे से स्पर्धा करने में या कसमें खाते समय इन मुहावरों का प्रयोग करते पाए जाते हैं |
[1] स्वाध्यायस्तत्त्वज्ञानस्याध्ययनमध्यापनं स्मरणं च।
[चारित्रसार/44/3]
[2] ज्ञानभावनालस्यत्याग: स्वाध्याय:। [सर्वार्थसिद्धि/9/20/439/7 ]
[3] स्वस्मै हितोऽध्याय: स्वाध्याय:। [चारित्रसार/152/5]