आज एक गहन चिंतन से गुजरते हुए एक विषय पर प्रकाश डालने की बात की जाने लगी जिसपर आजादी के पहले चिंतक, विवेचक और महात्मा वर्ग काफी चिंतन कर चुके; उस चिंतन से ही एक विचार की धारा ऐसी चल पड़ी जिसके अधीन भारत को एक धर्म निरपेक्ष राष्ट्र का चरित्र और शान्ति कामी देश का दायित्व नैसर्गिक रूप से मिल गया। कोई ख़ास व्यक्ति वर्ग भी ऐसा दावा शायद ही कर सके कि उनके प्रयत्न के कारण, और सिर्फ उसी कारण से देश को आजादी मिली। भारत पर भले ही कई तरफ से बार बार हमले होते आ रहे हों, भारत ने शायद ही किसी देश पर सिर्फ अंचल विस्तार की नीति से हमले किये हों। वो दिन हम शायद ही भूल पाते हों जब महाराजा पृथ्वीराज को कहा गया कि जिस निहत्थे को उनके सामने पेश किया जा रहा है उसे मौत के घात उतार दिया जाय अन्यथा भारत का इतिहास और चरित्र ही बदल जाएगा। पृथ्वीराज का धर्म यह कह रहा था कि किसी निहत्थे पर हथियार नहीं उठाया जाता ! पर उस निहत्थे का धर्म यह कहता था कि भारत की बात से उनके प्रभु को अवगत कराया जाय ताकि और धारदार हमले किये जा सकें। उन योद्धा युगल के लिए अपने अपने राजनीति के समीकरण रहे होंगे और अपने अपने धर्म के दायरे रहे होंगे।
हकीकत
तो यह है कि,
मानें या न मानें
, सनातन की धारा से
ही संसार के सभी धर्म
मतों का संकर्षण होता
आया और उन मतों
और पंथों को किसी न
किसी राष्ट्र का संरक्षण मिलता
आया। कहते
हैं नालंदा की पोथी महीनों
जलती रही। वेद
के कई शाखाओं की
एक भी कृति मिलती
ही नहीं ! सिर्फ कुछ विवरण, भाष्य और उद्धरण ही
मिलते हैं। प्रपंच
और पाखण्ड की जो धारा
इस धरती पर आ गई
उसे तरो - ताजा रखने के लिए भी
कई वर्ग काफी सक्रीय पाए जा सकेंगे।
हम यह भी देखते
आ रहे हैं कि किसी धर्म
स्थान पर आक्रमण और
प्रति - आक्रमण में लोग शान भी महसूस करने
लग जाते हैं। अपने
यहाँ तो उच्च कोटि
का विचार पनपता आया, "सिया राम माय सब जग जानी[1]
…… " यह
तो वही विचार धन हुआ जिसके
आलोक में हम पूरे जगत
को ईश्वर और उनके अनुकम्पा
से भरा पूरा पाएंगे।
इसका
अर्थ यह भी नहीं
निकाल लेना चाहिए कि हमारे ऊपर
हमले होते रहें और हम अहिंसक
होने की शान में
सहते रहें; वस्तुतः अहिंसा का धर्म कायरों
के लिए है ही नहीं
; उसमें वैर त्याग ( परायापन का त्याग ) करने
का उत्तम विज्ञान समाया हुआ है। सत्य
तो ब्रह्म ही है, और
बाकी सब मिथ्या माया
और भ्रम ही समझें।
इस उत्तम विज्ञान का धनी धर्म
और दर्शन का सही मेलबंधन
तो कुशलतापूर्वक ही
कर लिया करेगा। रही
बात राज्य के चरित्र का;
वह नागरिकों के चरित्रबल का
समीकरण ही मानें।
मर्यादा पुरुषोत्तम राम भी अपने नागरिकों
के मतों का ध्यान रखा
करते थे ; उनके राज्य में उत्तम अनुशाशन और प्रशाशन की
संस्कृति का निदर्शन हमें
पुराण, वेद आदि में मिल जाया करेगा। यह
व्यक्ति का एक सहजात
चरित्र ही समझें जिसके
बल पर समग्र परिस्थिति
को अपनी और मोड़ने के
लिए उसे प्रयास करते रहना होगा; ऐसा काम्य भी समझें।
श्री महर्षि कहा करते थे व्यक्ति तबतक
शिक्षा और शिक्षक पर
निर्भर करता रहेगा जबतक उसके सामने कोई उत्तम अवसर का संधान न
राखी जाय ; कुछ उत्तम अवसर मिल जाने के बाद मोह
विषयक अंधत्व के कारण ही
उसका मन दौड़ पड़ेगा
; ठीक वैसे ही जैसे पतंगा
दीपक की रोशनी में
सूर्य का प्रकाश देख
लिया करता है; ठीक वैसे ही जैसे नदी के एक किनारे पर बसनेवाले लोग यह सोच लिया करते
होंगे कि सभी सुख शायद नदी के उसपार ही है।
कभी धर्म के अनुशाशन के आधार पर ही राष्ट्र का चरित्र चित्रित हो जाता था। उसी के आधार पर कई धर्म परिपोषक राष्ट्र की रचना
भी हुई ; फिर एक ऐसा आधुनिक क्रान्ति का युग आया जो राष्ट्र के अस्तित्व को धर्म के
दायरे से बाहर आकर देखने के लिए लोगों को प्रेरित करता रहा; कुछ ऐसे भी संत महात्मा
आये जिन्होंने सभी धर्म के संकीर्ण दायरे से बाहर आकर आधात्मिक चिंतन से पुष्ट होने
के लिए समग्र जनजाति को प्रेरित करते रहे; सबको इस बात के लिए भी अग्रज कि भूमिका लेने
के लिए कहते रहे जिसके अधीन “महामानव का महामिलन” संभव किया जा सकेगा; सिर्फ इतना ही
नहीं उस सम्मलेन के दर्शन से समग्र जनजाति का ही कल्याण हो पायेगा। आखिर सार्विक कल्याण के लिए ही सबको मिलित रूप से
काम भी करना होगा। उसे राष्ट्र
धर्म ही मानें जिसके
अधीन समग्र जनजाति को राष्ट्रहित में
छोटे छोटे भेद बुद्धि को छोड़कर सार्विक
उन्नति के लिए एकत्र
होने की बात कही
जा सकेगी।
अब
प्रश्न यह भी निर्माण
होने लगा कि क्या लोगों
को एकत्र करना इतना भी आसान हो
पायेगा ? व्यक्ति स्वार्थ ही जहाँ प्रगति
कि धूरि बन चुकी हो
वहां लोगों को छोटे छोटे
स्वार्थ छोड़ने के लिए प्रेरित
करें, प्रबुद्ध करें; ख़ास
तौर पर उन्हें अगर
छोटे सम्प्रदाय से बाहर लाकर
विश्व बिरादरी के साथ एकरूप
होने के लिए कहें
और हमारे कहने मात्र से वे सबके
सब ऐसा करने भी लग जाएँ
, यह इतना भी आसान शायद
ही हो सके। अपने यहाँ कई प्रकार की
संस्था
और संघ भी काफी सक्रीय
है; समय समय पर नागरिकों के
पास चले भी जाया करते
होंगे; उनमें से कई संस्था
संघ का चरित्र ही
धर्म का बन गया
है; कई ऐसे भी
हैं जो कुछ नया
प्रयोग लेकर सामने संदर्भित होते रहेंगे; कुछ संस्था समूह के सामने प्रगति
के साथ धर्म प्रचार की जिम्मेदारी आ
चुकी होगी; कई उसमें सफल
भी होते होंगे; यह कुछ ऐसा
ही हुआ जैसे एक ही नाव
पर सवार होकर सभी माझी अलग अलग दिशा में नाव ले जाने का
प्रयास करते हुए पाए जाते हों और उस सूरत
में नाव को स्वच्छंद गति
न मिल पाती हो। इस
क्रम में एक और संभावना
ऐसी बन जाया करेगी जिसके
अधीन हम यह उम्मीद
करने लगें कि राष्ट्र धर्म
को ही सभी नागरिकों
का धर्म कहें और अन्य सभी
कर्म-कांडों को मूल धर्म
विषयक अध्यात्म शास्त्र से अलग कर
दें। यह
वही धर्म सम्मलेन और विशुद्ध अध्यात्म
की बात समझी जा सकेगी जिसके बारे में गीता, वेद आदि के विचारक समय
समय पर हमें बताते
आये; आगे भी उन्हें ऐसा
करते हुए शायद हम देख सकें।
चरित्र
चित्रण
वेद,
उपनिषद्, पुराण आदि में हमें समय समय पर चरित्र चित्रण
मिल ही जायेगी; उन
सभी चरित्र चित्रण के जरिये संत
महात्मा यही चाहते थे कि अभ्यासी
नागरिकों और साधकों को
अपने चरित्र निर्माण के लिए एक
उत्तम मार्ग मिल सके। मर्यादा
पुरुषोत्तम का गुणगान करने
का दायित्व स्वयं रूद्र अवतार ने ही उठा
लिया, भक्तों की क्या कहें
! यहाँ तक कि एक
शत्रु पक्ष के विवरण में
भी उस चरित्र बल
विषयक गुणगान और उद्धरण मिल
ही जायेगा: "तरुणौ रूप सम्पन्नौ, सुकुमारौ , महाबलौ ………..[2]
"; इस विवरण में विपरीत गुणों का आश्रय एक
ही चरित्र में देखा जा सकेगा: जैसे
मर्यादा पुरुषोत्तम सुकुमार होने के साथ साथ
महाबलशाली हैं; युद्ध भूमि में डटकर लड़ने के साथ साथ
करुणानिधान भी बने रहेंगे। उनके
जरिये ही भगवत्व का
सफल निदर्शन भी पेश किया
गया। एक
ही मानव चरित्र में विपरीत गुणों का आश्रय ही
भगवत्व के अधिष्ठान होने
का प्रमाण भी समझें।
हर प्रकार से अभिप्राय यही
समझी जा सकेगी कि
संत महात्मा उस दिव्य पुरुष
के चत्रिर बल से ही
सबको बालियान करना चाहते थे; आज भी संत
महात्मा उसी कार्य में लगे हुए देखे जा सकेंगे।
प्रत्यक्ष रूप से हो या
फिर परोक्ष रूप से उस चरित्र
बल से हमें काफी
कुछ शैक्षणिक तत्व मिल जायेगी; उसे धरोहर मानकर हम अपने अनुजों
को भी वही शैक्षणिक
तत्व देकर जाने का प्रयास भी
करते ही रहेंगे; यह
अपने संस्कृति का परिचायक भी
समझें।
[1] “ सिया राम माय सब जग जानी….”
श्री रामचरित मानस।। गोस्वामी तुलसीदास
[2] तरुणौ रूपसंपन्नौ सुकुमारौ महाबलौ । पुण्डरीकविशालाक्षौ चीरकृष्णाजिनाम्बरौ ॥१७॥
फ़लमूल-अशिनौ दान्तौ तापसौ ब्रम्हचारिणौ । पुत्रौ दशरथस्य एतौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥१८॥व शरण्यौ सर्वसत्त्वानां श्रेष्ठौ सर्वधनुष्मताम् । रक्षःकुल-निहन्तारौ त्रायेतां नः रघु-उत्तमौ ॥१९॥
…….सुपर्णखा के जरिये श्री मर्यादा पुरुषोत्त्तम का परिचय दिया जा रहा था।। श्री वाल्मीकि रामायण।।