तीसरी शक्ति


कहा जाता है विश्व विजय के अभियान पर निकलनेवाले सिकंदर के सामने सबसे बड़ी बाधा और सबसे तीब्र प्रतिबंध खड़ा करनेवाले योद्धा भारतीय ही थे | जब सिकंदर की सेना भारत भूमि से वापस जाने का मन बना लिया उस समय की एक घटना सम्राट को काफ़ी विचलित कर रहा था | उन्होंने  देखा कुछ गिने चुने साधु महात्मा एक अजीब अंदाज में बगल की ओर उछल उछल कर ज़मीन का परिमाप लेते हुए जा रहे हैं | उनसे उनके ऐसा करने का कारण पूछा गया | उनका कहना था कि वे अपने लिए ज़रूरत की ज़मीन तलाश रहे हैं; मरने के बाद इंसान का सबकुछ खो   जाता है, सिर्फ़ शरीर का अंतिम सत्कार करने के लिए एक टुकड़ी ज़मीन ही चाहिए; उतनी ही  ज़मीन पर  व्यक्ति अपना हक मान सकेगा | परिस्थितियाँ अगर विपरीत हो तो शायद वो ज़मीन भी नसीब हो !

इस घटना से सिकंदर के अपने विश्व विजयी होने और सभी ज़मीनों पर हक जताने जैसे अभिमान को भारी धक्का लगा | उन्हें भी लगने लगा कि उनके मृत्यु के बाद शायद उनके साथि गण ज़रूरत की ज़मीन जुटा पाएँ या नहीं! इस बात से भी इनकार नहीं किया सकता कि जा सकता कि जंग के कुछ भी अंजाम हो सकते हैं : हार या फिर जीत | जंग में हार और जीत दोनों परिस्थितियों का विचार करते हुए व्यक्ति को भविष्य योजनाएँ बना लेने चाहिए | इस घटना के बाद सिकंदर के मन में काफ़ी उथल पुथल चलता रहा |

जड़ों की मजबूती

भारत से वापसा जाने की स्थिति में सिकंदर के मन में  इस बात को लेकर धारणाएँ बन चुकी थी कि भारत भूमि को जीत पाना सबके लिए संभव नहीं है | अपने साथियों से विमर्श करते हुए उन्होंने कहा था , "भारत भूमि में तीन प्रकार के लोग रहते हैं; कुछ लोग ऐसे हैं जिन्हें प्रतिष्ठा की भूख है, कुछ और लोग ऐसे हैं जिन्हें रुपया - पैसा, धन संपदा पाने की इच्छा है | कुछ और लोग ऐसे भी हैं जिन्हें तो प्रतिष्ठा चाहिए और ही धन संपदा ,उन्हें सिर्फ़ अपने भक्तों का कल्याण करना है और सबको सुखी देखना है | यही तीसरी शक्ति भारत भूमि को समृद्ध और बलशाली बनाए रखा है |    अगर हमें भारत भूमि पर राज करना है तो इस तीसरी शक्ति को   विश्वास  में   लेना    होगा और योजनाओं को कार्यान्वित करना होगा |"

इस तीसरी शक्ति के समझ बूझ, रचानधर्मिता और क्रिया कौशल से उस समय के राज नेता भली भाँति परिचित भी थे | इस शक्ति की अनदेखी करने के परिणाम स्वरूप ही धन नंद को अपना राज पाठ समेटना पड़ा और पंडितों के प्रकोप का शिकार होना पड़ा | वही संघ शक्ति और विचार शक्ति के बल पर आचार्य चाणक्या एक स्वर्णिम भारत और एक कुशल राजा का निर्माण कर पाए | उनके अथक परिश्रम का ही नतीजा था कि अखंड भारत के मानचित्र को कुछ हद तक आकलित कर पाना संभव हो पाया |  जिन उपद्रवी तत्वों ने तक्षशिला विश्वविद्यालय में सुरक्षित पोतियों को जलाया उन्हें लगा कि अब भारात में पनपनेवाली तीसरी शक्ति का अंत हो ही जाएगा | पर ईयसा समझ लेना उनकी एक ऐतिहासिक भूल थी |

राज घरानों की नाकामी और आपसी रंजिश के लिए भारत को समय समय पर विदेशी आक्रमण का शिकार होना पड़ा ; हमारे आखरी पांडव पृथ्वीराज चौहान के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ | उनके ही पड़ोसी राज्य के लोग उनके खिलाफ साजिस में सम्मिलित हो गये | पर बहुत जल्द ही उन्हें (जयचंद और विजयचंद ) अपनी ग़लती का भान हो गया ; पर तबतक काफ़ी देर हो चुकी थी | एकता रख पाने के कारण भारत को अपनी अखंडता से फिर हाथ धोना पड़ा | अँग्रेज़ी और इस्लामी दोनों संस्कृति के आगमन से भारत के स्वरूप में भी एक समानांतर परिवर्तन आया और एकता के नये मंत्र से भारत के लोग ओतप्रोत होते चले | यहाँ भी उसी तीसरी शक्ति की भूमिका के बारे में हम सिकंदर की बातों को याद कर सकते हैं | इतने कुचले जाने के बाद भी जहाँ के लोग अपनी संस्कृति को नहीं छोड़ते हैं वहाँ के लोगों का आत्मबल कैसा है इसके बारे में हम अपनी समझदारी भी रख ही सकेंगे | उस वलिष्ठ मानस पर हमें गर्व भी होगा |  सबसे सटीक तत्व देनेवालों में हम आचार्य विनोबा की बात करें, जिन्होंने सभी संस्कृति के सम्मेलन से पनपनेवाले राष्ट्रीयता और जागतिक मैत्री के संपर्क को संवर्धित होते हुए देखना चाहा | ब्रह्म विद्या के संकर्षन के साथ साथ उन्होंने भारत भूमि को स्नात करनेवाले सभी संस्कृति और धर्म मतों का स्वागत करते हुए मानव मात्र के लिए जागतिक मैत्री के मंत्र को कल्याणकारी और युग परख तत्व माना |

स्वार्थ त्याग की संस्कृति से ही परमार्थ सधेगा; यह कई बार कई रूप में साबित होता आया, आगे भी ऐसा होता आएगा | विश्व के किसी कोने में अगर आतंकवाद और अलगाव की राजनीति पनपते हों तो हमें यह सोचना होगा कि उस परिस्थिति में हमसे क्या भूल हो गई | बंदूक ताने खड़ा रहना व्यक्ति का पहला काम नहीं हो सकता, या तो उसे बाहर से कोई सहयोग और साधन दे, या फिर बाहरी किसी तत्व के बहकावे में आकर किसी समूह का एक छोटा हिस्सा अपने ही लोगों पर गोलियाँ दागे | इस परिस्थिति से समुदाय के लिए कमज़ोरी और नाकामी छोड़कर और कुछ हासिल होने का अनुमान नहीं लगाया जा सकता | विश्व समुदाय क्रमशः एक ऐसी संघीय व्यवस्था के लिए काम कर रही है जहाँ कर्म प्रधानता को ही सर्वाग्र मान्य किया जाएगा, कि मज़हबी या जनजातीय पहचान को | जनजाति विषयक पहचान आनेवाले दिनों में शायद ही कोई पूछे !

कर्म प्रधान संस्कृति की ओर हम काफ़ी   तेज़ी से जा रहे हैं | ऐसी परिस्थिति में हर व्यक्ति कुछ कर गुजरने की तमन्ना लिए एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर जाने के लिए प्रयासरत रहेगा | कोई भी समूह व्यवस्था से वागवत तभी करने लगेगा जब उसे ऐसा भान होगा कि उसका स्वार्थ और परमार्थ साधित नहीं हो रहा है | ऐसी ही परिस्थतियाँ अन्य ठिकानों पर आतंकवाद और अलगाववाद पनपने के रूप में भी देखी जा सकेगी | किसी एक समूह के लिए जो आतंकवाद लगता हो किसी दूसरे समूह के लिए वो मुक्ति संग्राम भी लग सकता है | सरदार भगत सिंह हमारे लिए क्रांतिकारी हैं पर अँग्रेज़ी मूल के लोगों के लिए उन्हें आतंकवादी माना गया | मुक्ति संग्राम के नेता सुभाष बोस को अपने ही देश से छिपकर अन्य लोगों का सहयोग प्राप्त करने के उद्देश्य से जाना पड़ा | मित्र सेना की नज़र में उनका कारनामा गैर क़ानूनी था ; और भारत में अंग्रेज जो भी कर रहे थे उसके बारे में काफ़ी दिनों तक दुनिया चुप्पी साधे रही | 

न्याय का चक्र

किसी राष्ट्र की सीमा में एक न्याय का चक्र चलता है : भले ही ये समाजतंत्र से चले या लोकतंत्र से, या फिर तानाशाही से | वैश्विक धरातल पर न्याय के चक्र के साथ साथ हथियार का चक्र भी चल पड़ा है | सवाल यह पैदा हो रहा है कि जानबूझकर भी लोग आग में कूदने के लिए इतना उतावलापन क्यों जाता रहे हैं ? भियतनाम, इराक़ के बाद अफ़ग़ानिस्तान में मात खाने के बाद भी जंगी सनक को उसके मूल स्वरूप में रखते हुए अमेरिका और अधिक घातक हथियार का प्रदर्शन करने लग गया | हमें यह भी सोचना होगा कि अमेरिका के लोग सचमुच ही करुणा के पात्र हैं; किसी राष्ट्र या समूह को देने के लिए हथियार छोड़कर उनके पास और कुछ है भी नहीं | कभी भारत को सस्ते में खाद्यान उपलब्ध करानेवाले इसी अमेरिका ने पाकिस्तान से युद्ध बंद करने की सूरत में सहायता बंद कर देने की धमकी दे डाला था | अगर आतंकवाद को मिटाकर किसी देश को समृद्ध बनाने ही वो निकले थे तो उस देश में भारी मात्रा में हथियार क्यों जमा किया गया ? लोगों को उनके उद्योग धंधों से क्यों जोड़ा गया ? क्यों उन्हें आपस में छोटे छोटे गुटों में लड़ने दिया गया ?

 

 

वृहत स्वार्थ

कहते हैं व्यक्ति जीवन में स्वार्थ को पूरी तरह छोड़ा नहीं जा सकता, पर इसके दायरे को ज़रूर बढ़ाया जा सकेगा | आज गंधार में बसने वाले लोगों को देखकर हमें पीड़ा हो रही है | क्यों उन सभी समूहों को एक सूत्र में पिरोकार लोकतंत्र के रूप में उभरने के लिए प्रेरित किया जाय! क्यों उन्हें करीब बिठाकर सभी प्रकार से लोक सत्ता कायम करने लायक व्यवस्था निर्माण करने के लिए तैयार किया जाय ! प्रश्न यह भी निर्माण हो सकता है कि इन सब विचारों को कह देना तो आसान है पर भली भाँति इसका पालन कर पाना काफ़ी कठिन है | यहाँ स्वार्थ त्याग की बात सकती है | कुछ लोग यह भी कहेंगे कि कई मुल्कों ने वहाँ बहुत पैसा खर्च किया; नतीजा ज्यों के त्यों! पैसा शायद बहा भी होगा तो पानी की तरह, आया और गया ; रास्ते में अगर खेतिहर  ज़मीन आते होंगे तो थोड़ी हरियाली गई होगी | योजनाएँ बनें और उसमें स्थानीय लोगों का विचार बुद्धि समा सके तो उसकी सफलता भी मुश्किल से ही देखी जा सकेगी | अमेरिका के बारे में भी कुछ ऐसा ही कह सकेंगे; खुद ही डब्बा भरकर खाना ले गये और खुद ही खा गये , उसमें से बचनेवाला  एक आधा टुकड़ा वहाँ के लोगों को दे दिए होंगे | समाधान सूत्र तलाश करने के रास्ते में कई सरकार का आना और कई सरकार का विदा होना भी किसी विडंबना से कम था |

भारत भूमि के बारे में यही सर्वमान्य हक़ीकत है कि भारत के पास दुनिया को देने लायक बहुत कुछ है | सबसे बलिष्ठ और दूरगामी परिणाम देनेवाला है "तत्व और विचार", जिसके बल पर दुनिया को समृद्ध किया जा सकेगा | विचारवंत लोगों के ज़रिए ही ज्ञान की गंगा बहेगी, ऐसे ज्ञान के प्रकाश में ही लोग उद्यमी हो सकेंगे और उसी उद्यम के रास्ते धन और राष्ट्रीय पूर्णता को मूर्त होता हुआ देखा जा सकेगा |

संत विनोबा को हम एक आधुनिक विचारधारा का संत मान सकेंगे | उनके प्रयासों में सर्व समावेशक समाधान सूत्र रहता था | इस समाधान सूत्र के आधार पर ही उन्होंने संस्थाओं का स्वरूप उद्घाटन किया और व्यक्तिगत सत्याग्रह के अधिकारी बने | आज़ादी के समय जैसी परिस्थितियाँ बनी उसके मुताबिक ही उनके कारनामों को मूर्त होता हुआ देखा गया | उनका स्वरूप ही कुछ अंतर्मुखी विज्ञान के आधार पर चलता था |

एक और तपस्वी कुछ इस प्रकार ही थे जिन्होंने एक वृहत्तर अखंड भारत को और उसके स्वरूप को मूर्त होता हुआ देखना चाहते थे | हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि ऋषि अरविंद के मन में अखंड भारत का सपना अचानक से नहीं आया था; बल्कि उन्होंने सांस्कृतिक, राजनैतिक और भौगोलिक जोगसूत्र को आधार मानकर भारतीय उप महाद्वीप को एकीकृत होता हुआ देखना  चाहते थे | उसी सर्व समावेशक एकसूत्र  का हिस्सा गंधार भी था | उनकी कल्पना में सार्विक अध्यात्मिक और वैचारिक उत्कर्ष पाने का प्रयास करते हुए ही मानव को एक दूसरे से दूरियाँ कम करते हुए विश्वव मानव के रूप में उन्नत होना होगा | हम कभी भी अपनी आकांक्षाओं और मान्यताओं को अन्य समुदाय पर थोपते हुए समन्वय की दृष्टि रखें और सहजीवन के मंत्र से ओतप्रोत होते हुए सार्विक प्रगती का मार्ग निकालें |

विकसित समुदाय कभी ऐसा सोचने की भूल करे कि अन्य विकासमुखी  समुदायों की अनदेखी करते हुए उनका समाधान सूत्र निकल जाएगा | हथियार बनाने वाले देशों को सदैव एक ही चिंता सताती है: अगर चारों तरफ अमन और चैन का माहौल रहेगा तब उनके हथियारों का क्या होगा | अमेरिका का यही प्रयास रहेगा कि अन्य सभी देशों को डरा धमकाकर अपना वर्चस्व कायम रखा जा सकेगा | सबको साथ लेकर चल पाने की मानसिकता से अगर उनका उत्थान नहीं हो पाया तो उन्हें अदूर भविष्य में और बड़ी कीमत अदा करने के लिए तैयार रहना होगा | यह विषय अन्य विकसित मुल्कों  के बारे में भी समान रूप से प्रासंगिक होंगे | सवाल यह पैदा होता है कि क्या भारत इस स्पर्धा में कभी पाएगा, या फिर दो मुल्कों के बीच शाब्दिक जंग तक ही सिमटा रहेगा ? भारत , चीन और पाकिस्तान जैसे देशों को आपस में उलझाए रखनेवालों की एक ही मंशा है : एशिया के इस प्रांत में हथियार ही होड़ शुरू हो जाए और सभी देश उस स्पर्धा में बने रहने के लिए खर्च करें | उस सामरिक खर्च में से अन्य संप्रदाय और अलगाव पैदा करनेवालों को भी अपना गुज़ारा करने का मौका मिलेगा | इसे जड़ से समाप्त करने के लिए सामुदायिक स्तर पर महा सम्मेलन बनाते हुए समग्रता की दृष्टि रखते हुए समुदाय के सभी वर्गों को क्रियाशील रखना होगा ताकि अलगाव का पौधा जड़ें पसारने का प्रयास ही कर पाए | हर एक विषय के लिए हमें विकसित देशों की ओर देखने की भी ज़रूरत नहीं हैं | तिजोरी भरनेवालों  को सदैव ही तिजोरी खाली हो जाने का डर सताता है | उस डर से वे कुछ ऐसा कर बैठते हैं जिसका हमारे पास कोई व्याख्या नहीं है |

जैन मुनि आचार्य तुलसी कहा करते थे : सुधरे आदमी देश और समाज अपने आप ही सुधर जाएगा | जाहिर सी बात है , अगर आदमी अपने आदमीयत के मंत्र से कुशलतापूर्वक कार्य करे तो समाज का सुधारना तय है | हमें इसी लिए प्रयास उस समुदाय स्तर से ही करने की ज़रूरत है, ताकि समुदाय के सभी घटक  खुद को इतना वलिष्ठ कर लें जिसके बल पर बाहरी शत्रु का डटकर मुकाबला किया जा सके | हिंसा का सहारा लेकर पनपनेवाले समुदाय भी अब यह समझने लग  जाएँगे कि बंदूक के बल पर ज़्यादा दूर  नहीं चला जा सकेगा | सूचना तंत्र का जाल और समुदाय स्तर की समझ कहीं ज़्यादा बलशाली है और किसी भी देश या समुदाय की व्यवस्था को प्रभावित करने के लिए काफ़ी है | आर्थिक और वैचारिक गुलामी को ताक़त की गुलामी से कहीं ज़्यादा घातक समझना होगा |

आतंक का बुलबुला अगर किसी भी देश में ज़्यादे दिन तक पैर पसारता रहे तो उसके दुष्परिणाम भुखमरी, ग़रीबी, बेरोज़गारी और विपरीत मुखी प्रतिका रात्मक आतंकवाद के रूप में देखा जा सकेगा | आज हम एक ऐसी पतली लकीर के आधार पर बात कर रहे हैं जहाँ खाड़ी युद्ध और अफ़ग़ान युद्ध के औचित्य पर ही सवाल खड़े हो रहे हैं | कई देश आज भी विश्व मानचित्र पर मिलेंगे जहाँ तानाशाह का बादल मंडराता है | भारी रकम खर्च करके उन तानाशाहों को कुचलने के लिए अभियान चलाने के निर्णयों पर हमें पुनर्विचार करना होगा | अगर वैसी तानाशाही दुनिया को मंजूर नहीं है तो क्यों उन्हें विश्व विरादरी से अलग कर दिया जाय | आज की स्थिति में कोई भी समूह ऐसा अलग थलग नहीं रहना चाहेगा, या नहीं रह सकेगा | जाहिर सी बात है कि उन तानाशाहों को अपने निर्णयों और आचारणों को दोबारा परखते हुए राष्ट्र को विश्व समुदाय का हिस्सा बनने लायक तैयार करना होगा |

मौके का फ़ायदा उठाना, किसी भी समुदाय की कमजोरी का लाभ उठाते हुए उनके अधिकारों का दोहन करना और परिस्थितियों को समझते हुए किसी एकतरफ़ा निर्णय को अमल में लाना आदि विश्व शांति के मार्ग में सबसे बड़ी और प्रबल बाधाएँ हैं | इनको बढ़ावा देनेवाले तत्वों को निरस्त करना होगा, अपितु इन बाधाओं को दूर करते हुए विश्व नागरिकता के मंत्र से जनमानस को ओतप्रोत करना होगा | इस दीर्घसूत्री कार्य के लिए हमें वही तीसरी शक्ति पर भरोसा रखते हुए रणनीति बनाना होगा | तीसरी शक्ति, जिस ओर सम्राट सिकंदर इशारा कर चुके थे, भारत की तहज़ीब है; इसी तहज़ीब से विश्व बिरादरी को परिचित कराना होगा और हमें भी उस विधि को समझते हुए अपनी भूमिका तय करते हुए अग्रज के रूप में अवतरित होना होगा |

 ...... ...  चन्दन सुकुमार सेनगुप्ता

अपराध और अपराधी

  चन्दन सुकुमार सेनगुप्ता अपने    दैनिक    जीवन    में कुछ हादसे ऐसे भी होते हैं जो पूरी व्यवस्था और न्याय तंत्र पर ही एक...