गुरु अर्जुन की कठिनाइयों का पहला उत्तर संक्षेप में दे चुके, अब वे दूसरे उत्तर की ओर मुड़ते है और उनके पास से एक आध्यात्मिक समाधान करने वाले जो पहले शब्द निकलते हैं उनमें तुरंत वे यह बताते हैं कि सांख्य और योग में एक भेद है, जिसको जान लेना गीता को समझने के लिये अत्यंत आवश्यक है। भगवान् कहते हैं कि “यह बुद्धि (अर्थात् वस्तुओं और संकल्प का बुद्धिगत ज्ञान) तुझे सांख्य में बता दी, अब इसे योग में सुन, इस बुद्धि से यदि तू योग में स्थित रहे, तो तू कर्म बंधन को छुड़ा सकेगा।“ जिन शब्दों से गीता इस भेद को सूचित करती है उनका यह शब्दश: अनुवाद है। गीता मूलतः वेदांत-ग्रंथ है; और साथ ही साथ उस समय
परिमंडल में व्याप्त अन्य मतों और पंथों का समुचित समाकलन करने का एक सफल और कुशल प्रयास
भी। वेदांत के जो तीन सर्वमान्य प्रमाण ग्रंथ हैं उनमें से गीता है। श्रुति में अवश्य ही इसकी गणना नहीं की जाती, क्योंकि इसकी प्रतिपादन शैली बहुत कुछ बौद्धिक,तार्किक और दार्शनिक है, फिर भी इसका आधार परम सत्य [1] ही है, लेकिन यह वह श्रुति, वह मंत्रदर्शन नहीं है जो ज्ञान की उच्च भूमिका में द्रष्टा को स्वतः प्राप्त होता है [2]तथापि इसका इतना अधिक आदर है कि यह ग्रंथ लगभग तेरहवीं उपनिष्द के रूप में ही स्वीकार्य
एक पवित्र ग्रंथ के रूप में मान्य है |
परंतु इसके वैदांतिक विचार आरंभ से अंत तक सांख्य और योग के विचार से अच्छी तरह समपृक्त हुए हैं और इस संपन्नता के कारण इसके दर्शन पर एक विलक्षण समन्वय की छाप स्वतः सिद्ध रूप से आ गयी है। वास्तविकता यह भी है कि यह मूलतः योग (याग के साथ होने वाले अन्य सभी मतों पंथों और विचार समाकलनों के साथ) की क्रियात्मक पद्धति का उपदेश है, और जो तात्विक विचार (सांख्य, योग, वेदांत और उपनिषद् के विविध अंश आदि ; कहीं कहीं पर स्वतंत्र रूप से और कहीं कहीं पर सम्मिलित रूप से) इसमें आये हैं; विवेचित हुए हैं और हर प्रकार से वेदांत के आधार पर एकरूपता के सिद्धांत से परिपूर्ण रूप से समपृक्त हुए हैं; वे इसके योग की व्यावहारिक व्याख्या [3]करने के लिये किए गये होंगे ऐसा मानना चाहिए | यह केवल वेदांत-ज्ञान का ही निरूपण नहीं, बल्कि कर्म को ज्ञान और भक्ति की नींव पर खड़ा करती और फिर कर्म को उसकी परिणति ज्ञान तक उठाकर उसे भक्ति से अनुप्राणित करती है जो कर्म का हृदय और उसके भाव का भी सारतत्व है; अपितु कर्म को भक्ति और ज्ञान का आधार[4] मिलने से उसमें आनेवाली पवित्रता, निष्ठा और कर्तव्यपरायणता का भी बखान करती है | फिर गीता का योग विश्लेषणात्मक सांख्यदर्शन पर स्थापित है, सांख्य को वह अपना आरंभस्थल बनाता है और उसकी पद्धति और उसके मत में सांख्य को बराबर ही एक बड़ा स्थान प्राप्त है, तथापि गीता का यह योग सांख्य के बहुत आगे जाता है, यहाँ तक कि सांख्य की कुछ विशिष्ट बातों को अस्वीकार करके यह एक ऐसा उपाय बताता है जिससे सांख्य विश्लेषणात्मक कनिष्ठ ज्ञान के साथ उच्चतर समन्वयात्मक और वैदांतिक सत्य का सम्मिलन साधित होता है।
यहाँ इतना कह देना इसलिये आवश्यक है कि उन परिचित शब्दों के प्रयोग से कोई भ्रम उत्पन्न न हो जो यहाँ अपने परिचित और रूढ़ अर्थ की अपेक्षा अधिक व्यापक अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं। फिर भी सांख्य और योग दर्शनों में जो कुछ सारत्व है अर्थात् जो कुछ व्यापक, उदार और सर्वमान्य सत्य है वह गीता मे स्वीकृत है, लेकिन गीता इन परस्पर-विरोधी दर्शनों के समान केवल उन्हीं सत्यों से आबद्ध और सन्निविष्ट न रहते
हुए एक सर्वमान्य परिधि में व्याप्त शाश्वत सत्य की प्रतिष्ठा हेतु कटिबद्ध रहने का
प्रयत्न स्वरूप है; इसका सन्नकय भी उदार और वेदांत मान्य सांख्य है | यह वह सांख्य है जिसके प्रथम सिद्धांत और तत्त्व उपनिषदों के वैदांतिक समन्वय में पाये जाते हैं और जिसका वर्णन बाद के विकास में अर्थात् पुराणों में भी आया है। [5]गीता का योग वह आत्मनिष्ठ साधना और आतंरिक परिवर्तन है जो आत्मा को ढूढ़ निकालने या भगवान् से एकता लाभ करने के लिये आवश्यक है और राजयोग इसका एक विशिष्ठ प्रयोग मात्र है। गीता का आग्रह है कि सांख्य और योग परस्पर भिन्न, विसंगत और विरोधी शास्त्र नहीं है, बल्कि दोनों का सिद्धांत और उद्देश्य एक है, भेद केवल उनकी प्रक्रिया और मार्गारंभ में है। सांख्य भी योग है पर यह केवल ज्ञानमार्ग से आगे बढ़ता है, अर्थात् इसका आरंभ हमारी सत्ता के तत्त्वों के बौद्धिक विवेक और विश्लेषण द्वारा होता है और अंत में यह सत्य का दर्शन कर उस पर अधिकार प्राप्त करके अपने लक्ष्य तक पहुँचता है।
दूसरे ओर, योग कर्ममार्ग से अग्रसर होता है ; इसका प्रथम सिद्धांत है कर्मयोग; परंतु गीता की संपूर्ण शिक्षा से तथा कर्म शब्द की जो परिभाषा पीछे की गयी है उसे स्पष्ट है कि कर्म शब्द का प्रयोग गीता में बहुत व्यापक आदि में लिखा गया है और योग शब्द से गीता का अभिप्राय है एक ऐसा निस्वार्थ समर्पण जिसमें हमारी समस्त आंतरिक और बाह्म कर्मण्यताओं को यज्ञ-रूप से कर्म के ईश्वर को,उस सनातन परब्रह्म को भेंट कर देना होता है जो जीव को समस्त ऊर्जा और तपस्या के स्वामी है। यह योग उस सत्य की साधना है जिसका दर्शन ज्ञान से होता है, इस साधाना की प्रेरक-शक्ति है एक प्रकाशमान भक्ति का भाव, एक शांत या उग्र आत्मसमर्पण का भाव उस परमात्मा के प्रति जिन्हें ज्ञान पुरुषोत्तम के रूप में देखता है। पर सांख्य के सत्य क्या हैं ? सांख्य-दर्शन का यह नाम उसकी विश्लेषण-पद्धति के कारण पड़ा है; सांख्या में हमारी सत्ता के तत्त्वों का विश्लेषण, संख्याकरण, विभाजन और विवेचन है, जिनके संघात या संघात के फल को ही मनुष्य की साधारण बुद्धि देख पाती है। सांख्य-दर्शन ने समन्वय-साधना की कोई चेष्टा नहीं की। इस दर्शन का मूलभूत सिद्धांत यथार्थ में द्वैत है, वह आपेक्षिक द्वैत नहीं जो वेदांत का महत्त्व, बल्कि यह वह द्वैत है जो सर्वथा निरपेक्ष और निराला है।
इस सिद्धांत के अनुसार जगत् कारणस्वरूप कोई एक ही सत्ता नहीं है, बल्कि दो मूलतत्त्व हैं जिनका संयोग ही इस जगत् का कारण है-एक है पुरुष जो अकर्ता है और दूसरी है प्रकृति जो कत्री है। पुरुष आत्मा है, साधारण और प्रचलित अर्थ में नहीं, बल्कि उस सचेतन सत्ता के अर्थ में जो अचल, अक्षर और स्वयं-प्रकाश है। प्रकृति है ऊर्जा और उसकी प्रक्रिया। पुरुष स्वयं कुछ नहीं करता, पर वह ऊर्जा और उसकी प्रक्रिया को आभासित करता है; प्रकृति जड़ है पर पुरुष में आभसित होकर वह अपने कम में चैतन्य का रूप धारण कर लेती है और इस प्रकार सृष्टि, स्थिति और संहार अर्थात् जन्म, जीवन और मरण, चेतना और अवचेतना, इंद्रियगम्य और बुद्धिगम्य ध्यान तथा अज्ञान, कर्म और अकर्म, सुख और दु:ख, ये सब घटनाएं उत्पन्न होती है और पुरुष प्रकृति के प्रभाव में आकर इन सबको अपने ऊपर आरोपित कर लेता है। वास्तव में ये उसके अंग नहीं है बल्कि प्रकृति की क्रिया और गति के अंग हैं। प्रकृति त्रिगुणात्मिका है; सत्त्व ज्ञान का बीज है, यह ऊर्जा के कर्मो की स्थिति रखता है; रज शक्ति और कर्म का बीज है, यह शक्ति की क्रियाओं की सृष्टि करता है तमस जड़त्व और अज्ञान का बीज है, यह सत्त्व और रज का अपलाप है; जो कुछ वे सृष्टि करते तथा जिसकी वे स्थिति रखते हैं उसका यह संहार करता है।
प्रकृति के ये तीन गुण जब साम्यवस्था में रहते हैं तब सब कुछ जहां-का-तहां पड़ा रहता है, कोई गति, कर्म या सृष्टि नहीं होती। इसलिये चिन्मय आत्म की अचर ज्योतिर्मय सत्ता में आभासित या प्रतिबिंबित होने वाली भी कोई वस्तु नहीं होती। पर जब यह साम्यावस्था विक्षुब्ध हो जाती है तब तीनों गुण परस्पर विषम हो उठते हैं और वे एक दूसरे से संघर्ष करते और एक-दूसरे पर अपना प्रभाव जमाने का प्रयत्न करते हैं, और उसी से विश्व को प्रकटाने वाला यह सृष्टि, स्थिति और संहार का विरामरहित व्यापार आरंभ होता है। यह कर्म तब तक होता रहता है जब तक पुरुष अपने अंदर इस वैषम्य को, जो उसके सनातन स्वभाव को ढक देता और उस पर प्रकृति के स्वभाव को आरोपित करता है, प्रतिभासित होने देता है। पर जब पुरुष अपनी इस अनुमति को हटा लेता है तब तीनों गुण फिर साम्यावस्था को प्राप्त हो जाते हैं और पुरुष अपने सनातन अविकार्य अचल स्वरूप में लौट आता है, वह विश्व–प्रपंच से मुक्त हो जाता है। ऐसा लगता है कि अपने अंदर प्रकृति को आभासित होने देना और यह अनुमति देना या लौटा लेना ही पुरुष की एकमात्र शक्ति, है। प्रकृति को अपने अंदर आभासित देखने के नाते पुरुष गीता की भाषा में साक्षी और अनुमति देने के नाते अनुमंता है, पर सांख्य के अनुसार वह कर्ता रूप से ईश्वर नहीं है। उसका अनुमति देना भी निष्क्रीय है और उस अनुमति को लौटा लेना एक दूसरे प्रकार की निष्क्रियता है।
कर्ममात्र ही, चाहे वह आत्मनिष्ठ हो या वस्तुनिष्ठ, आत्मा का स्वधर्म नहीं, उसमें न कोई सकर्मक संकल्प है न कोई सकर्मक बुद्धि। इसलिये पुरुष अकेला ही इस जगत् का कारण नहीं हो सकता, और काई दूसरा कारण भी है यह स्वीकार करना आवश्यक हो जाता है। केवल पुरुष ही अपने चिन्मय ज्ञान, संकल्प और आनंद के स्वभाव से जगत् का कारण नहीं है, बल्कि पुरुष और प्रकृति दोनों की द्विविध सत्ता ही जगत्त का कारण है, एक है निष्क्रिय चैतन्य और दूसरी है गतिशील ऊर्जां। जगत् के अस्तित्व के विषय में सांख्य की व्याख्या उक्त प्रकार की है। परंतु तब ये सचेतन बुद्धि और सचेतन संकल्प कहाँ से आते हैं जिन्हें हम अपनी सत्ता का इतना बड़ा अंग अनुभव करते हैं और जिन्हें हम सामान्यतः और सहज ज्ञान से ही प्रकृति की कोई चीज न मानकर पुरुष की ही मानते है? सांख्य के अनुसार बुद्धि और संकल्प सर्वथा प्रकृति की यांत्रिक ऊर्जा के अंग हैं, पुरुष के गुणधर्म नहीं; ये दोनों ही बुद्धि-तत्त्व है जो जगत् के चौबीस तत्त्वों में से एक तत्त्व है।
इस सृष्टि के विकास के मूल में प्रकृति अपने तीनों गुणों सहित सब पदार्थों की मूल वस्तु के रूप में अव्यक्त अचेतन अवस्था में रहती है फिर उसमें से क्रमशः ऊर्जा या जड़त्व, क्योंकि सांख्य-दर्शन में ऊर्जा और महाभूत एक ही चीज हैं-के पांच मूल तत्त्व प्रकट होते हैं। इनको प्राचीन शास्त्रों में पंचमहाभूत कहा है, ये है आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी पर यह याद रहे कि आधुनिक सायंस की दृष्टि में ये मूलतत्त्व नहीं है, बल्कि ये जड-प्राकृतिक शक्ति की ऐसी अति सूच्क्ष्म अवस्थाएं हैं जिसका विशुद्ध स्वरूप इस स्थूल जगत् में कहीं भी प्राप्त नहीं। सब पदार्थ इन्हीं पांच सूच्म तत्त्वों के संघात से उत्पन्न होते हैं। फिर इन पंचमहाभूतों में से, प्रत्येक से एक-एक तन्मात्रा उत्पन्न होती है। ये पंचतन्मात्राएं है शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध। इन्हीं के द्वारा ज्ञानेन्द्रियों को विषयों का ज्ञान होता है। इस प्रकार मूल प्रकृति से उत्पन्न इन पंचमहाभूतों और उनकी इन पंचतन्मात्राओं से, जिनके द्वारा स्थूल का बोध होता है, उसका विकास होता है जिसे आधुनिक भाषा में विश्व-सत्ता का वस्तुनिष्ठ पक्ष कहते हैं। तेरह तत्त्व और हैं जिनसे विश्व-ऊर्जा का आत्मनिष्ठ पक्ष निर्मित होता है- बुद्धि या महत्, अहंकार, मन और उसकी दस इन्द्रियां(पांच ज्ञानेन्द्रियां और पांच कमेन्द्रियां)।
मन मूल रूप से सभी इंद्रियों और इंद्रिय जन्य क्रियाओं का नियंता है, यह बाह्म पदार्थों का अनुभव करता और उन पर प्रतिक्रिया करता है; क्योंकि इसमें अंतर्मुखी और बहिर्मुखी दोनों क्रियाएं साथ-साथ होती रहती हैं; इन्द्रियानुभव के द्वारा यह उन अर्थों को ग्रहण करता है जिन्हें गीता में “बाह्म स्पर्श” कहा गया है और उनके द्वारा जगत् को जनता और सक्रिय प्राणशक्ति द्वारा उस पर प्रतिक्रिया करता; प्रतिसाद देता और अन्य सभी संवेदनाओं को आत्मसात करता है। परंतु पांच ज्ञानेन्द्रियों की सहायता से, शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध जिनके विषय हैं, यह अपनी ग्रहण करने की अति सामान्य क्रियाओं को विशेष रूप से चलाता है; इसी प्रकार पांच कर्मेन्द्रियों की सहायता से वाणी, गति, वस्तुओं के ग्रहण, विसर्जन और प्रजनन के द्वारा यह प्रतिक्रिया करने वाली कतिपय प्राणी की आवश्यक क्रियाओं को विशेष रूप से चलाता है। बुद्धि जो विवेक-तत्त्व है, वह एक ही साथ बोध और संकल्प दोनों है, यह प्रकृति की वह शक्ति है जो विवेक के द्वारा पदार्थों को उनके गुण-धर्मानुसार पृथक करती और उनमें संगति बैठाती है। अहंकार बुद्धि का अहं‘-पद-वाच्य वह तत्त्व है जिससे पुरुष प्रकृति और उसी क्रियाओं के साथ तादात्म्य पाने की ओर विकसित होता और क्रमिक पप्रोन्नति की ओर बढ़ते रहता है | परंतु ये आत्मनिष्ठ करण उतने ही यांत्रिक हैं, भौतिक संवेदनाओं से ग्रसित हैं[6]; सर्वव्यापक परम पुरुष की सत्ता से बेख़बर हैं और अपने संकीर्ण मानसिकता और भोगवाद के आधार पर क्रियाशील रहते हैं | अचेतन प्रकृति उतने ही अंश हैं जितने कि उसके वस्तुनिष्ठ करण।
यदि हमारी समझ में यह बात न आती हो कि केसे बुद्धि और मन जड़ प्रकृति के अंश हैं या स्वयं जड़ हैं तो हमें इतना ही याद रखना चाहिये कि आधुनिक सायंस को भी यही सिद्धांत ग्रहण करना पड़ा है। परमाणु की अचेतन क्रिया में भी एक शक्ति होती है जिसे अचेतन संकल्प ही कह सकते हैं, प्रकृति के सब कर्मों में यही व्यापक संकल्प अचेतन रूप से बुद्धि का काम करता है। हम लोग जिसे मानसिक बुद्धि कहते हैं वह तत्त्वत: ठीक वही चीज है, जो इस जड़-प्राकृतिक विश्व के सब कार्यों मे अवचेतन रूप से विवेक करने और संगति मिलाने का काम किया करती है। और आधुनिक सायंस यह दिखलाने का यत्न करती है कि मनुष्य के अंदर जो सचेतन मन है वह भी अचेतन प्रकृति के जड़ कर्म का ही परिणाम और प्रतिलिपि है। परंतु आधुनिक विज्ञान जिस विषय को अंधेरे में छोड देता है अर्थात् किस प्रकार जड़ और अचेतन सचेतन का रूप धारण करता है, उसे सांख्यशास्त्र समझा देता है। सांख्य के अनुसार इसका कारण है प्रकृति का पुरुष में प्रतिभासित होना; पुरुष के चैतन्य का प्रकाश जड़ प्रकति के कर्मों पर आरोपित होता है और पुरुष साक्षी-रूप से प्रकृति को देखता और अपने-आपको भूलता हुआ प्रकृति द्वारा प्रेरित भाव से विमोहित होकर यह समझता है कि मैं ही सोचता, अनुभव करता और संकल्प करता हूं, मैं ही सब कार्मों का कर्ता हूं, जबकि यथार्थ में ये सब कर्म प्रकृति और उसके तीन गुणों द्वारा जरा भी नहीं। इस मोह को दूर करना प्रकृति और उसके कर्मों से आत्मा के मुक्त होने का प्रथम सोपान है।
अवश्य ही हमारे इस जगत् में बहुत-सी चीजें हैं जिन्हें सांख्य शास्त्र निरूपित नहीं करता है और कराता भी है तो पूर्ण समाधान कारक रीति से नहीं, परंतु यदि हम जो कुछ चाहते है वह इतना ही है कि हम केवल यौक्तिक व्याख्या द्वारा यह समझ लें कि इस विश्व की प्रक्रियाएं तत्त्वतः क्या है जिसमें हम उस लक्ष्य की ओर अग्रसर हो सकें जो सभी प्राचीन दर्शनों का लक्ष है, अर्थात विश्व-प्रकृति के जंजाल से आत्मा की मुक्ति, तब तो सांख्य का जगत्-निरूपण और मुक्ति का मार्ग उतना ही उत्तम और प्रभावकारी है जितना कि कोई अन्य मार्ग। यहाँ जो बात पहले समझ में नहीं आती वह यह है कि सांख्य प्रकृति को एक, और पुरुष को अनेक मानकर अपने द्वैत सिद्धांत में बहुत्व की स्थापना किसलिये करता है। ऐसा मालूम होता है कि एक ही प्रकृति और एक ही पुरुष को मानने से भी विश्व की सृष्टि और उसके प्रसारण की व्याख्या की जा सकती थी। परंतु पदार्थों के मूल तत्त्वों के निरीक्षण की कठोर विश्लेषण-पद्धति के फलस्वरूप पुरुष-बहुत्व के सिद्धांत का प्रतिपादन करना सांख्य के लिये अनिवार्य था। पहली बात यह है कि हम इस संसार में अनेक सचेतन प्राणियों को देखते हैं और इनमें से प्रत्येक इस जगत् को अपने ही ढंग से देखता है और इसकी आंतरिक और बाह्म वस्तुओं को अपने ही ढंग से देख अनुभव करता है।
यद्धपि अनुभव करने वाली तथा प्रतिक्रिया करने वाली क्रियाएं एक ही हैं फिर भी प्रत्येक प्राणी इसके साथ पृथक-पृथक रूप से व्यवहार करता है। पुरुष यदि एक ही होता तो यह केन्द्रीय स्वातंत्रय और पार्थक्य न होता, सभी प्राणी जगत् को एक-सा अनुभव करते और देखते, एक ही रूप में पदार्थ को ग्रहण करते और सबका व्यवहार उनके साथ एक-सा ही होता। चूंक प्रकृति एक है, इसलिये सब प्राणी उसी एक जगत् को देखते हैं; और चूंकि उसके तत्त्व हर जगह एक ही है इसलिये जिन सर्वसाधारण तत्त्वों के कारण आंतरिक और बाह्म अनुभूतियां होती हैं वे भी सबके लिये एक-सी हैं; परतु इन प्राणियों की दृष्टि, विचार और रुख में तथा इनके कर्म, अनुभव और अनुभव से भागने की वृत्ति में जो असंख्य भेद हैं-अवश्य ही ये भेद प्रकृति की स्वाभाविक क्रिया के नहीं, बल्कि साक्षी चेतना के हैं-इस विषय की इसके सिवाय और कोई व्याख्या नहीं हो सकती कि बहुत-से साक्षी हैं, अनेक पुरुष हैं। हम कह सकतें हैं कि पृथक्त्व धर्मवाला अहंकार ही कारण है, यही इस विषय का पर्याप्त उत्तर है। पर अहंकार तो प्रकृति का एक तत्त्व है जो सबके लिये समान है, उसमें भेद होना जरूरी नहीं हैं। वह स्वयं तो केवल इतना ही करता है कि पुरुष को प्रकृति के साथ तादात्म्य कर लेने में प्रवृत्ति करे, और यदि एक ही पुरुष होता तो सब जीव एक होते, अपनी अहंभावमयी चेतना में जुटे हुए और एक-से होते।
उनके रूपो में और उनके प्राकृतिक अंगों के संघातों के व्योरे में चाहे कितना भी भेद होता तो भी जीव पर पड़ने वाले जगत्-दृश्य का असर भिन्न-भिन्न प्रकार का न होता और सबकी अनुभूति भिन्न-भिन्न प्रकार की न होती। प्रकृति में होने वाले परिवर्तन से एक साक्षी या ऐसे पुरुष में यह केन्द्रित भेद, यह दृष्टयंतर और अथ से इति पर्यन्त अनुभूति का यह पार्थक्य न होना चाहिये था। इसलिये वेदांत के पुरातन ज्ञान से निकली हुई,पर पीछे उससे विच्छित्र, सांख्य की पद्धति में बहु पुरुष का सिद्धांत एक न्याय-संगत आवश्यकता थी। विश्व और उसकी प्रकिृया का एक पुरुष और एक प्रकृति का व्यापार कहकर समझाया जा सकता है, किंतु इससे विश्व में सचेतन जीवों की बहुलता का समाधान नहीं होता। फिर इतनी ही बड़ी एक और कठिनाई है। अन्य दर्शनों की तरह सांख्य ने भी अपना लक्ष “मोक्ष” ही रखा है। हम कह आये हैं कि यह मोक्ष, पुरुष द्वारा प्रकृति के कर्मों से अपनी अनुमति हटा लेने से प्राप्त होता है, क्योंकि प्रकृति के ये कर्म उसी को आनंद देने के लिये है। परंतु, वास्तव में, यह कहने का एक ढंग है। पुरुष अकर्ता है और अनुमति देने या हटा लेने की जो क्रिया है वह यथार्थ में पुरुष की नहीं हो सकती, बल्कि यह अवश्य ही, स्वयं प्रकृति में होने वाली ऐसी गति है। विचार करने से मालूम होगा है कि यह भी बुद्धितत्त्व में-विवेकशील संकल्प में-होने वाली एक क्रिया है, उसकी एक प्रतिक्षेपक या प्रत्यावर्तनकारी गति मात्र है।
बुद्धि ही मन के द्वारा होने वाली विषय-प्रतीत से अपना संबंध जोड़ती रही है; बुद्धि ही विश्व-प्रकृति के द्वारा होने वाले कर्मों का व्यतिरेक और अन्वय करती और अहंकार की सहायता से प्रकृति के विचार, अनुभव और कर्म के साथ द्रष्टा पुरुष का तादात्म्य- साधन करती रही है। यही बुद्धि फिर विवेक द्वारा इस कटु और विघटनात्मक अनुभूति को प्राप्त होती है। कि प्रकृति के साथ पुरुष का तादात्म्य केवल भ्रम है; अंत में इसको यह विवेक होता है कि पुरुष प्रकृति से अलग है और यह सारा विश्वप्रपंच प्रकृति के गुणों की साम्यावस्था का विक्षोभमात्र है। तब बुद्धि, जो एक ही साथ बुद्धि और संकल्प-शक्ति भी है, इस मिथ्यात्व से तुरंत हट जाती है जिसका वह अब तक पोषण करती रही है, और पुरुष बंधन-मुक्त हो जाता है और विश्वप्रपंच में रमने वाले मन का संग नहीं करता। इसका अन्तिम फल यह होता है कि प्रकृति की पुरुष में प्रतिभासित होने की शक्ति नष्ट हो जाती है। क्योंकि अहंकार का प्रभाव अब नष्ट हो गया है और बुद्धि-संकल्प के उदासीन हो जाने के कारण प्रकृति की अनुमति का साधन नहीं रहता: तब अवश्य ही उसके गुण आप ही साम्यावस्था को प्राप्त होगें, विश्व-प्रपंच बंद हो जायेगा और पुरुष को अपनी अचल शांति में लौट जाना होगा। परंतु यदि पुरुष एक ही होता तो बुद्धि-संकल्प के भ्रम से निवृत्त होते ही सारा विश्व-प्रपंच बंद हो जाता। पर हम देखते हैं कि ऐसा नहीं होता।
असंख्य प्राणियों मे से कुछ ही मोक्ष को प्राप्त होते या मोक्ष-मार्ग के अनुगामी होते हैं; शेष सब प्राणी जहां-के-तहां रहते हैं और विश्व- प्रकृति की जो क्रीड़ा उनके साथ हो रही है उसमें इस क्षिप्र त्याग से उस प्रकृति को रंचमात्र भी असुविधा नहीं होती जबकि उसका सारा कारबार ही इस कार्य से बंद हो जाना चाहिये था। इसकी व्याख्या के लिये यही कहा जा सकता है कि पुरुष अनेक हैं और वे सब-के-सब स्वतत्र हैं। वैदातिक अद्वैतवाद की दृष्टि के अनुसार यदि इसकी कोई न्याय-संगत व्याख्या हो सकती है तो वह मायावाद है। पर मायावाद को मान लेने पर यह सारा प्रपंच एक स्वप्नमात्र हो जाता है, तब बंधन और मुक्ति दोनों ही अविद्या की