संघ से महासंघ



मानवता का परिपोषक और उसके विपरीत , मार्ग पर चल पड़ने के आधार को नियामक मानकर विश्व को हम दो धूरी में बँट जाते हुए भी अब देख सकेंगे | संवेदनाओं को आधार मानकर संघों के सम्मेलन से ही मानवता का परिपोषक और परिचालक महासंघ भी बनेगा | उस ओर संघीय ढाँचों के मुखिया पहल कर भी चुके हैं | पिछले शताब्दी में हमने दो महा संघों को बनते और बिखरते भी देखा है | इस शताब्दी में भी उससे कहीं बलशाली एक महासंघ का निर्माण होगा और पुराने संघीय वतावस्था में कुछ फेर बदल करके उसे मिला लिया जाएगा या फिर पुराने संघ को पूरी तरह से नष्ट करके नये महासंघ की रूपरेखा को प्रस्तावित कर दिया जाएगा | कोई भी संघ जब जनता जनार्दन के अरमानों और आकांक्षाओं पर खरा नहीं उतर पाते हों तो उसका यही अंजाम होना एक भवितव्य मानना होगा |

अब वैसा समय नहीं रहा कि किसी एक गुट या संप्रदाय का वर्चस्व अन्य लोग आसानी से स्वीकार कर लें | सबके मतों को पुष्ट करते हुए प्रतिभागिता आधारित व्यवस्था के ज़रिए ही संघीय ढाँचों को ज़्यादा से ज़्यादा बल मिलेगा | इस ढाँचे से अलग होकर कोई भी व्यवस्था ज़्यादा कारगर सिद्ध नहीं हो सकती, ही उसे ऐसा होने देने की ज़रूरत है |

गुरु शिष्य परंपरा का दर्शन रामायण में दर्ज किया गया, मित्र और मैत्री परंपरा का दर्शन महाभारत में दर्ज हुआ, राजतंत्र के ऊपर से विश्वास हटने के क्रम में लोकतांत्रिक और समजतन्त्रिक व्यवस्था का मिश्रण आधुनिक विश्व का दर्शन रहा और अब सूचना तंत्र और प्रौद्योगिकी के बल पर क्रियान्वित रहने के मंत्र से अत्याधुनिक विश्व का क्रियान्वयन होना तय है | इस परिस्थिति में उसी संप्रदाय या समूह को अधिकाधिक समर्थन प्राप्त होगा जिसके पास तांत्रिकी का बल है | जो संसार को एक बलशाली निदान देते हुए प्रगति के मार्ग पर समुचित तरीके से मार्गदर्शन कर सकेंगे | जिनके पाससर्वजन हिताय सर्वजन सूखायकोई समाधान सूत्र रहेगा | कोरोना संक्रमण से विश्व को जो नुकसान हुआ वो दूसरे विश्व युद्ध में हुए नुकसान से कहीं ज़्यादा है, इस महामारी से समग्र अर्थ व्यवस्था पर दोहरी मार पड़ी, लोगों के रोज़गार छिन गये, दिहाड़ी मजदूरों को भुखमरी का शिकार होना पड़ा, सभी राष्ट्रों को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भारी नुकसान उठाना पड़ा, व्यक्ति से व्यक्ति की दूरियाँ बढ़ी और साथ ही साथ विश्वास भी टूटा | कुछ शक्तिधर देश इस संकट से भले ही उभर पाएँ पर विकास मुखी देशों के लिए इस संकट से पार पाना शायद ही संभव हो | इस संकट से उभरने के तुरंत बाद ही भुखमरी और बेरोज़गारी का संकट पूरी दुनिया को चपेट में लेने के लिए प्रस्तुत रहेगा |

ऐसा इसलिए भी होना तय है क्यूंकी सभी देश प्रत्यक्ष या फिर परोक्ष रूप से एक दूसरे पर निर्भर करने लगे हैं, एक दूसरे की व्यवस्था परस्पर के द्वारा काफ़ी मात्रा में प्रभावित भी होने लगी है | ऐसे सन्दर्भ में किसी भी संकट से उभरने के लिए भी संयुक्त रूप से योजनाएँ बनाने पड़ेंगे | एक दूसरे के क्रिया कलापों से होने वाले सभी परिवर्तनों का सम्मिलित परिणाम क्या होगा उसपर भी मंथन करने की ज़रूरत है |  अब जो संघ शक्ति का विज्ञान सन्दर्भित होगा उसके सम्मुख हमें स्वावलंबन के विवर्तित तत्वों को अमल में लाते हुए समग्र और सर्व समावेशक क्रियान्वयन के अंतर्गत विश्व व्यवस्था का नक्शा बनाना होगा | समस्या जागतिक है, तो जाहिर सी बात है की निदान तंत्र और संबंधित चिकित्सकीय प्रबंधन भी जागतिक हो, उसके व्यवस्थापन में लगनेवाले  लोग जागतिक हों तो जाहिर सी बात यह भी है कि प्रभावित लोग भी जागतिक नागरिकता के धारक ही होंगे | ऐसी परिस्थिति में राष्ट्रीय नागरिकता के बगल में एक जागतिक नागरिकता मिल पाने की प्रक्रिया से भी हमें गुज़रना होगा , ताकि हम आसानी से जागतिक क्रियाकलापों में अपनी अपनी भूमिका तय कर सकें | यह कोई अलीक कल्पना पर आधारित समाज और नियमन का विज्ञान नहीं है, बल्कि यह तो समाज के जागतिक सूत्रों को एक तंत्र में पिरोने का ही विज्ञान होगा |

राजनीति के कारण भेदभाव करने का आरोप एक राजनैतिक दल अन्य दलों पर लगाने लगेंगे , यह एक सहज प्रवृत्ति मानी जाएगी | अजूबा तो तब होगा जब सभी राजनीति करने वाले दल और नेतागण सुर में सुर मिलाकर खुद को एक सैनिक के नाते जनता जनार्दन के सम्मुख प्रकट करने लगें और अपनी अपनी भूमिका तय करने लगें | यह परिस्थिति भारत जैसे देश में आकर चली भी गई | आरंभिक समय में जब लोगों को कोरोना संक्रमण के स्वरूप विषयक कोई जानकारी नहीं थी और भारत इस लड़ाई को लड़ने के लिए पूरी तरह से तैयार नहीं था तब सभी दल और नेता गण सुर में सुर मिलाने लगे, पर ज़्यादा दिन ऐसा कर पाने में असमर्थ रहे | इसका कारण पैसा और जनता पर अपने अपने नियंत्रण रख पाने के समीकरण के कारण ही होता हुआ सन्दर्भित हुआ | कोई एक सरकार पक्षपात का आरोप लगाने लगी तो कोई और सरकार के नेतागण जनता जनार्दन के खाते में सीधे पैसा देने का परोक्ष रूप से विरोध करने लगे | राजनीति का खोखलापन इतना गंभीर हो उठा कि महाराष्ट्र के पालघर में उन्मत्त लोग संतों को सिपाहियों के सामने ही पीट पीट काट मार दिए | व्यवस्था पर इसलिए भी सवाल खड़े कर दिए गये जब वहाँ की सरकार कुछ संवेदनहीनता का परिचय देते हुए संतों की हत्या को एक हादसा कहने लगे और लोगों से पुनः पुनः गुज़ारिश करने लगे कि उस घटना को कोई साम्प्रदायिक रंग देने का प्रयास करें | | समस्याओं का प्रमाण और ज़िम्मेदारियों का समीकरण कुछ भी हो सकता है , पर जनता जनार्दन के सामने  राजनैतिक  दलों का स्वार्थी स्वरूप प्रतिभासित होने लगा |

स्वतंत्र देश में जहाँ तिरंगों के नीचे भारतीय सेना के सभी होनहार जवान कार्यरत हो सकते हैं, जहाँ तिरंगे की शान बनाए रखने के लिए सिपाही जान की बाजी लगाते हों, जहाँ तिरंगे की शान में गीत गाए जाते हों , जिसकी गरिमा को ठेस पहुँचाने के पहले दुश्मन पचास बार सोचता हो उसी देश में कुछ राजनैतिक दल अलग अलग ध्वजों तले भारत को खुशहाल बनाने का शपथ लेने लगें और एक दूसरे के खिलाफ मोर्चा खोल दें तो यह कुछ शोभनीय विषय नहीं हो सकता | उन दलों और गुटों पर जनता जनार्दन को भरोसा रखने  से पहले भी हज़ारों बार सोचने की ज़रूरत है | संघीय ढाँचों में अपनी अपनी सहभागिता सुनिश्चित करने हेतु अलग अलग विचारधारा रखनेवाले समूह को अगर सरकारी यंत्र का हिस्सा बनने दिया जाए तो जाहिर सी बात है कि उनके बीच के दरारों में ही अलगाव की जड़ों का विस्तार होता रहेगा, और अंततः ऐसी दरारें क्रमशः  संघ को ही संकट में डाल देगा| जहाँ नागरिक ही संकट में हों वहाँ नगर, परिषद, नेता , महाजन आदि लोगों का क्या होगा ? ऐसे महत्वाकांक्षी और स्वार्थी लोगों को रोज़गार के अवसर कौन देंगे? पहले तो राजस्थान, गुजरात, पंजाब, हरियाणा और महाराष्ट्र से भारी संख्या में मजदूरों को उनके गृह राज्य जाने के लिए मजबूर कर दिया गया, और उसके बाद आर्थिक गतिविधि शुरू कर पाने हेतु उनके वापसी की माँग होने लगी | इसका पता लगाना बहुत ही ज़रूरी है कि कौन कौन सी परिस्थिति में मजदूरों को बेरोज़गार होकर अपने घर की ओर भागने के लिए मजबूर होना पड़ा | मजदूर और किसान जिस देश में सुरक्षित हों उस देश में गिने चुने कर्मचारियों को सुरक्षित रख पाना कहाँ तक संभव हो सकेगा?  कौन से तंत्र होंगे जिसमें कामगार, मजदूर और किसान सुरक्षित रह सकें? किसान और मजदूर के खातों में कुछ रकम दे देने से, उनके लिए खाद्यान्न उपलब्ध करने से और उनके मुफ़्त इलाज का दायित्व ले लेने से कुछ हद तक राहत मिलने की उम्मीद जताई जा सकेगी | इसे लंबी अवधि तक चलनेवाले उपयोजना का हिस्सा नहीं समझा जाना चाहिया | मजदूर , किसान और बेसहारा लोगों के लिए सामाजिक सुरक्षा का दायरा बढ़ाना और उन्हें हर परिस्थिति में हर राज्य में मदद मिल पाने की परिस्थिति का निर्माण करना ही स्थाई समाधान की ओर बढ़ाया जाने वाला पहला कदम मान सकेंगे |

सहभागिता आधारित लोकतंत्र

मौजूदा परिस्थिति में अगर हम जनता जनार्दन को एक ही ध्वज तले लाने का प्रयास करें तो हमें प्रतिनिधित्व आधारित लोकतंत्र में प्रत्येक नागरिक के लिए अंशभागी परिकल्पना को रूपयित करते हुए हर पक्ष की सहभागित सुनिश्चित करने लायक क़ानून परिषद का गठन करना होगा | भारत के सभी नागरिक को अगर हम संघीय रचना का हिस्सा मान रहे हैं तो उनके अंशभागी परिकल्पना को रूपयित करते समय भी उन्हें क़ानून परिषद या संसद में अपनी राय रख पाने का अवसर देना होगा | किसी एक होनहार जन प्रतिनिधि को सरकारी तंत्र से परिचित कराने हेतु और उनकी पात्रता सुनिश्चित करने हेतु किसी खास राजनैतिक दल का सहारा लेने की आवश्यकता इसलिए भी मानने लायक होगा क्यूंकी सभी दल अपनी अपनी आकांक्षाओं का बोझ जनता जनार्दन पर डालते चलेंगे और उन सबके जीवनयात्रा का खर्च सरल जनता पर डाल दिया जाएगा | अगर कुछ कर पाने की पात्रता हम रखते हैं तो सर्वोपरि महात्मा गाँधी द्वारा प्रस्तावित लोक सेवक संघ के प्रारूप पर अमल करने हेतु हम अंतर मन से तैयार हों और उसे अपने देश में त्वरित लागू करने के लिए एक वालिष्ठ और युगोपयोगी कदम उठाने का सत्साहस दिखाएँ | विरोध सिर्फ़ विरोध करने के लिए होकर एक तर्कसंगत विषय के साथ साथ संपूरक निदान तंत्र का हिस्सा रहना चाहिए | अपने यहाँ विरोध करना लोकतंत्र का एक कलंक बन चुका है, यहाँ तक की विरोध करने लायक ताक़त जुटाने के लिए विद्देशी ताकतों का सहारा भी लिया जाता है, जिसका नतीजा अलगाव और आतंक भी हो सकता है |

जम्मू कश्मीर आतंक का शिकार बना हुआ है | ऐसी परिस्थिति में वहाँ बसे लोगों पर क्या बीत रही होगी, यह तो हम आसानी से सोच भी सकते हैं | सवाल उल्टे तरफ से भी पूछा जा सकता है, कश्मीर में इतने आतंकी कहाँ से पैदा हो रहे हैं? उनको निरंतरता के साथ कौन सहयता दिए जा रहा है? इस जिहाद में काफ़ी लोगों की जानें जा रही है | इन तमाम पहलुओं को उजागर करने लायक कोई तर्कसंगत निदान तंत्र हमारे पास रहे यही अपेक्षित मानी जा सकेगी | मुसीबतों से हम ज़्यादा देर तक भाग नहीं सकते, इसका डटकर मुकाबला करने हेतु हमें अग्रज बनना होगा | व्यवस्था में लगे रहने के साथ साथ अपने करीबियों का भी ध्यान रखना होगा | इतना ही नहीं ऐसा करते हुए हमें संवेदनशील भी रहना होगा | मजदूर जब कर्मस्थल से अपने अपने घर के लिए चल पड़े तब किसी किसी के नज़रों के सामने से ही गुजर रहे होंगे | उन सभी लोगों के बीच अधिक संवेदना विकसित होने की ज़रूरत है | उन्होंने सभी ज़िम्मेदारियों को सरकार  पर थोपना मुनासिब समझा | जनता जनार्दन द्वारा मान्य एक संस्था हैसरकार, उसमें भी कुछ ऐसे तंत्र हैं जिन्हें यंत्र मानव से तुलना की जा सकती है | उनके सक्रिय होने का सीधा संबंध राजनैतिक इच्छाशक्ति द्वारा ही निर्धारित होता रहता है | 

अगर महासंघ बनना तय है और सबने अगर उसी व्यवस्था में जाने का निश्चय किया हो तो हमें यह भी देखना होगा कि आनेवाले कालखंड में उस व्यवस्था का स्वरूप कैसा होगा और उस व्यवस्था में  लगनेवाले  लोगों की उम्मीदें क्या होंगी | लोग सहज रूप से किसी भी व्यवस्था हिस्सा बन जाना ज़्यादा पसंद करेंगे और उन्हें हर व्यवस्था को लागू करने में तेज़ी लाना ज़्यादा पसंद होगा | लोग धार्मिक और जनजाति  आदि के भेद को भुलाकर एकसाथ काम करना ज़्यादा पसंद करेंगे | एक दूसरे की भावना को सनझते हुए कार्यरत रहने का भी प्रयास करेंगे | हमें भी चाहिए कि हम उस व्यवस्था और धारा का पूरा समर्थन करें और लोगों को आपस में घुल मिल जाने के लिए पूरा समर्थन दें | अपने अपने संकुचित विचारों को छोड़कर एक साझी संस्कृति का निर्माण करें और रचना कार्य में लग जाएँ |

आज विश्व में कोरोना संक्रमण हेतु निदान तंत्र, औषधि, चिकित्सा प्रणाली आदि तलाशने में लोग लगे हुए हैं, उनके पास सबसे सहयोग मिलने की उम्मीद भी है | इस परिस्थिति में सभी जन जितनी सघनता से कार्यरत रहेंगे उतने ही अच्छे परिणाम का दर्शन हो सकेगा | यह एक ऐसी अवधि है जब हम एक दिखने वाले दुश्मन का मुकाबला कर रहे हैं | यह दुश्मन एक लंबी अवधि के लिए हमारे बीच रहने वाला है, अतः जाहिर सी बात है कि हमें इसके साथ ही रहना सीखना होगा |

एक आम नागरिक खुद को संक्रमित होने से बचाने के लिए सामाजिक दूरी बनाकर रखते हुए कार्यरत रहें,  विशेष ज़िम्मेदारी में लगे लोग अपनी ज़िम्मेदारियों का निर्वाह कुशलता पूर्वक करें, अलगाव का लाभ उठाने वाले तत्वों को पहचानते हुए  ऐसे विघटनकारी तत्वों को समाज के चक्र से अलग रखने का प्रयास हो, देश के नागरिकों को अपने अपने धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक भेद को भूलना होगा | अधिकाधिक सघन रूप से कार्य कर पाने का एक सुनहरा मौका , जो कि कोरोना संक्रमण के मध्यम से आपदा के रूप में आया है, हमारे सम्मुख कई चुनौतियों को एकसाथ रख दिया | हमें अपने सूक्ष्म बुद्धि से आपदा प्रबंधन के कौशलों में लचीलापन रखते हुए अनदेखे शत्रु को पहचानना होगा और उचित उपयोजना पर अमल करना होगा | इस क्रम में कोई एक लापरवाही पूरी व्यवस्था और समग्र प्रबंधन को विफल कर देगा |  व्यवस्था में लगे लोगों को और ज़्यादा संवेदनशील होने की आवश्यकता है | संवेदना ही राष्ट्रीयता और समन्वय का मानक होने के साथ साथ उत्तम व्यवस्था का परिचायक है | इसके अभाव से किसी भी राष्ट्र और संप्रदाय के लिए संकटापन्न स्थिति में जाना एक भवितव्य मान लेना अनुचित होगा | हम इस बात से भी इनकार नहीं कर सकते कि संवेदना रहित क्रिया कलाप हिंसा से ग्रसित हो सकता है | ऐसी परिस्थिति में संवेदनाओं को अगर राष्ट्रीय क्रिया कलाप का हिस्सा बनाना भी चाहें तो उसका मानक कौन कौन से होंगे? किसके प्रति संवेदनाओं को बनाए रखने की बात कही जाएगी? संवेदनाओं का दृष्टिगोचर पक्ष कौन कौन से होंगे?

                सर्वोपरि अगर संवेदनाओं को आधार मानकर राष्ट्र रचना की कल्पना हम कर लें तो मजदूरों को बेघर होकर रास्ते पर निकालने की नौबत ही नहीं आती | दूसरे चरण में अगर मजदूर अपने कर्मस्थल से निकलकर अगर घर की ओर चल भी पड़े होंगे तो उन्हें रास्ते पर ही उचित सहयोग मिल जाता | संवेदना की कमी और संवेदनाओं का नहीं होने का ही नतीजा दिहाड़ी मजदूरों के रूप में हमारे सम्मुख सन्दर्भित होने लगा |


-------------- चन्दन सुकुमार सेनगुप्ता

अपराध और अपराधी

  चन्दन सुकुमार सेनगुप्ता अपने    दैनिक    जीवन    में कुछ हादसे ऐसे भी होते हैं जो पूरी व्यवस्था और न्याय तंत्र पर ही एक...