तत्व चिंतन के विविध आयाम गीता के क्रमिक गति के साथ साथ परत दर परत खुलते चले जाएंगे; इस विधान में हमें और अधिक परिवक्व अवधारणा तब तक नहीं होगी जबतक हम इस दिव्य कृति के अंतिम पड़ाव तक न पहुँच पाएं; "सर्व धर्मान परित्यज्य। ।। यह वही उच्च कोटि का विज्ञान है जिसके आधार पर क्षात्र धर्र्म, ब्रह्म उपासना आदि से शुद्ध भक्ति को पवित्र और सर्वोपरि माना गया। इसमें समर्पण का तत्व भी कुशलता पूर्वक पिरोया गया; प्रश्न यह भी निर्माण हो जाता होगा कि वर्ण धर्म की बात कहने से पहले भी तो सर्व धर्म परित्याग की बात कही जा सकती थी; इतनी बड़ी भूमिका, इतने इतने व्याख्यान और कर्म विषयक रहस्य पर चर्चा करने के बाद फिर उन धर्मों को त्यागकर ईश्वर के शरण में आने बात क्यों कही गई? हकीकत तो यह है कि धर्म (वर्ण के अनुसार कर्तव्य कर्म) त्याग कीबात बिना कुछ समझदारी के नहीं की जा सकती; ऐसा करना भी मंगलकारक नहीं हो सकता; ईश्वर प्राप्ति तो प्राप्त की ही प्राप्ति समझें। गीता ज्ञान की रूपरेखा कुछ ऐसा ही समझने जिसके क्रम में साधक किसी भी स्तर तक की उन्नति हासिल कर सकेगा; इसके लिए साधक स्वतंत्र होने के साथ साथ स्वच्छंद भी है। मनुष्य संसार में किस तरह बर्ताव करें? किसी की हिंसा मत करना, [1] नीति से चलो, सच बोलो, गुरु और बड़ों का सम्मान करो, चोरी और व्यभिचार मत करो इत्यादि सब धर्मों में पाई जाने वाली साधारण आज्ञाओं का यदि पालन किया जाय, तो ऊपर लिखे कर्तव्य-अकर्तव्य के झगड़े मे पड़ने की क्या आवश्यकता है?
सभी धर्मों में अहिंसा के अवस्थान विषयक
तत्व अपने लिए कोई नया नहीं ; और न ही इस विषय पर प्रकाश डालने के लिए हमारे पास निबंध
और ग्रन्थ की अप्रचूरता है। सिर्फ उन सभी तत्वों
को एक सूत्र में पिरोने के लिए काफी प्रयास करने की आवश्यकता रहेगी। पर हमें यह भी ध्यान में रखना ही होगा किअहिंसा
कोई कायरों का धर्म नहीं हो सकता; और न ही सैन्य दाल के किसी कार्यकर्ता से कहा जा
सकेगा कि रण भूमि में शत्रु के प्रति उन्हें
अहिंसक बने रहना होगा और मार खाते रहना होगा; प्रश्न जहां आत्म रक्षा और राष्ट्र की
गरिमा रक्षा का हो वहां उन्हें समयोचित निर्णय लेते हुए ही कार्यरत रहना होगा । अपने
यहाँ अहिंसा का एक उच्च स्तर का विज्ञान है [2] , जिसके
आधार पर हमें परायापन का त्याग करना होगा और परस्पर के सहावस्थान को सुनिश्चित करना
होगा; अपितु हमें किसी भी जीव को अनावश्यक हानि पहुंचाने से बचना होगा।[3] किसी
सच्चे तन प्राणी को किसी प्रकार दुःखित न करना [4] ही
अहिंसा [5] है।
गया है। वन पर्व एक कथा है कि कोई ब्राह्मण क्रोध से किसी पतिवृता स्त्री को भस्म कर डालना चाहता था; परन्तु जब उसका यत्न सफल नहीं हुआ तब वह उस स्त्री की शरण में गया। धर्म का सच्चा रहस्य समझ लेने के लिये उस ब्राह्मण को उस स्त्री ने किसी व्याध के यहाँ भेज दिया। यहाँ व्याध मांस बेचा करता था; परन्तु था अपने- माता- पिता का बड़ा पका भक्त। इस व्याध का यह व्यवसाय देखकर ब्राह्मण को अत्यंत विस्मय और खेद हुआ। तब व्याध ने उसे अहिंसा का सच्चा तत्त्व समझकर बतला दिया। इस जगत में कौन किसको नहीं खाता" जीवो जीवस्य जीवनम्"- यही नियम सर्वत्र देख पड़ता है। आपतकाल में तो "प्राणस्यान्नमिदं सर्वम्" यह नियम सिर्फ स्मृतिकारों ने ही नहीं कहा है, किंतु उपनिषदो में भी स्पष्ट कहा गया है
[6]। यदि सब लोग हिंसा छोड़ दे तो क्षात्रधर्म के
अस्तित्व पर ही हमें पुनः विचार करना होगा; मरने और मारने का विज्ञान भी प्रकृति के
अधीन चलनेवाली एक स्वयंक्रिया [7] ही
समझने; जिसके आधार पर जीव अपने लिए उदार पूर्ति का प्रबंध कर लिया करते हैं। नीति के सामान्य नियम के साथ साथ व्यक्ति का व्यवहार
कुशल [8] होना
भी काफी महत्त्व का समझें; कुछ ऐसे काम हो जाया करेंगे जो हमें लगे कि शायद अन्याय
ही कुछ हुआ; शेर हो दूसरे प्राणी का शिकार
नहीं करना चाहिए; पर प्रकृति के गुणों से उस प्राणी को जिम्मेदारी नैसर्गिक रूप से
उसे दी गई उसी गुण के अधीन जीव को कार्यरत रहना होगा; किसी और जीव का धर्म उसके लिए
प्राणघाती भी साबित हो सकता है।
दूसरा तत्त्व "सत्य"[9] है । सभी धर्मों से अधिक
महत्त्व का धर्म [10]
भी सत्य को ही माना गया। सत्य कि प्रतिष्ठा
विषयक चर्चा एक विशेष अध्याय में अलग से ही करेंगे। भीष्म पितामह प्राण छोड़ने के पहले" सत्येषु यतितव्यं "वः सत्यंहि परमं बलं" इस वचन को सब धर्मों का सार समझकर उन्होंने सत्य ही के अनुसार व्यवहार करने के लिये उपदेश किया है
[अनुशासन पर्व
]।
जो सत्य इस प्रकार स्वयं सिद्ध और चिर स्थायी है, उसके लिये भी कुछ अपवाद होंगे ! व्यवहार
कुशल साधक यही कहेंगे कि निरपराधी जीवों की हिंसा , फरेब और धोखा से बचाना, संरक्षण
देना, सत्य ही के समान महत्त्व का धर्म माना जा सकेगा; उसे आचरण में भी उतारा जा सकेगा। अब यह प्रश्न निर्माण हो जाना स्वाभाविक ही समझें
कि सत्य और ससत्य, धर्म और अधर्म, न्याय और अन्याय विषयक भेद बुद्धि के बारे में कोई
निर्णय कैसे ले ? शास्त्र में विस्तृत विवेचन भले ही रहे हों पर सूक्षम स्तर के भेद
बुद्धि [11] से हम कभी कभी अनजान ही रह जाते होंगे। [12] यदि बिना बोले मोक्ष या छुटकारा हो सके तो कुछ भी
हो, बोलना नहीं चाहिये; और यदि बोलना आवश्यक हो अथवा न बोलने से दूसरों को कुछ संदेह
होना संभव हो, तो उस समय सत्य के बदले असत्य बोलना ही अधिक प्रशस्त है।[13] इसका
तुरंत में यह भी अर्थ नहीं निकाल लें कि भगवान सत्य के बदले असत्य का आश्रय लेने के
लिए प्रेरणा दे रहे हैं। जिस आचरण से सब लोगों
का कल्याण हो वह आचरण, सिर्फ इसी कारण से निंदय नहीं माना जा सकता कि शब्दोच्चार अयथार्थ
है। जिससे सभी की हानि हो, वह न तो सत्य ही और न अहिंसा ही।
शास्त्रों का यह कथन नहीं है कि झूठ
बोल कर किसी खूनी की जान बचाई जा सके; न ही इस बात का प्रतिपादन कराती कि असत्य , प्रपंच
और धोखे को शास्त्र में प्रतिष्ठा मिले; शास्त्रों में किसी कि हत्या करनेवाले आदमी
के लिये देहांत प्रायश्चित अथवा वध दंड की सजा कही गई है; इसलिये वह सजा पाने अथवा
वध करने ही योग्य है। [14] सत्य
विषयक अपवाद को उजागर करने के लिए अन्य कई बाहरी श्रोत से भी उद्धरण लिए जा सकेंगे।[15]
वर्तमान समय के उदाहरणार्थ,
सिजविक [16] की
राय: "सब से अधिक लोगों का सब से अधिक सुख”; छोटे लड़कों को और पागलों को उत्तर देने के समय और इसी प्रकार बीमार आदमियों को, अपने शत्रुओं को, चोरों को और जो अन्याय से प्रश्न करें उनको उत्तर देने के समय अथवा वकीलों को अपने व्यवसाय में झूठ बोलना अनुचित नहीं है;
यही रियासत पादरियों और सिपाहियों को मिलती है।
यह
भी शायद ही समीचीन हो कि हमारी दृष्टी में सत्य के कौन से पैमाने रहे हों और बाहरी
दुनिया किसे सत्य मान लिया करेगी; क्या वह माणसा, वाचा और कर्मणा तक ही सीमित रहे या
फिर उसे तत्व के चर्म उत्कर्ष तक लाकर हम यह भी कह सकें कि ब्रह्म सत्य, जगत मिथ्या
!
……….. चन्दन सुकुमार सेनगुप्ता
[1] सब वर्ण के लोगों के लिये नीति धर्म के पाँच नियम बतलाये हैं "अहिंसा सत्यमस्तेयं शोचमिन्द्रियनिग्रहः" अहिंसा, सत्य, अस्तेय, काया, वाचा और मन की शुद्धता,
एवं इंन्द्रिय निग्रह। आचार्य मनु
[2] अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्याग: ।। पातंजल योग प्रदीप 35 ।।
जहां अहिंसा की प्रतिष्ठा हो चुकी उस सन्निधि में सभी प्राणियों या जीव
-जन्तुओं का आपसी वैरभाव छूट
जाता है ।
[3] गुरुं वा बालवृद्धौ वा ब्रह्मणं वा बहुश्रुतम्।
आततायिनमायांतं हन्यादेवाविचारयन्।।
अर्थात्" ऐसे आततायी या दुष्ट मनुष्य को अवश्य मार डालें; किंतु यह विचार न करें कि वह गुरु है, बूढा है, बालक है या विद्वान ब्राह्मण है"। शास्त्रकार कहते है कि ऐसे समय हत्या करने का पाप हत्या करने वाले को नहीं लगता, किंतु आततायी मनुष्य अपने अधर्म ही से मारा जाता है। यज्ञ में पशु का वध करना वेद ने भी प्रशस्त माना है; परन्तु
पिष्ट पशु के द्वारा वह भी टल सकता है। तथापि हवा, पानी, फल इत्यादि सब स्थानों में
जो सैकडों जीव-जन्तु हैं उनकी हत्या कैसे टाली जा सकती है!
[4] सूक्ष्मयोनीनि भूतानि तर्कगम्यानि कानिचित्।
पक्ष्मणोअपि निपातेन येषां स्यात् स्कंधपर्ययः।। [महाभारत]
"इस जगत में ऐसे ऐसे सूक्ष्मजन्तु हैं कि जिनका अस्तित्व यद्यपि नेत्रों से दिखाई नहीं पड़ता तथापि तर्क से सिद्ध है; ऐसे जन्तु इतने हैं कि यदि हम अपनी आखों के पलक हिलावें तो उतने ही से उन जन्तुओं का नाश हो जाता हैं"।
[5] अहिंसा धर्म, सब धर्मों में, श्रेष्ट माना गया है।
[6] वेसू. 3.4.28; छां.र 5.2.1; बृ. 6.1.14
[7] नीतिशास्त्र के प्रधान नियम- अहिंसा- में भी कर्तव्य-अकर्तव्य का सूक्ष्म विचार करना ही पड़ता है। अहिंसा धर्म के साथ क्षमा, दया, शांति आदि गुण शास्त्रों में कहे गये हैं;
[8] प्रल्हाद ने अपने नाती, राजा बलि से कहा हैः- न श्रेयः सततं तेजो ने नित्यं श्रेयसी क्षमा। तस्मान्नित्यं क्षमा तात पंडितैरपवादिता।। सदैव क्षमा करना अथवा क्रोध करना श्रेयस्कर नहीं होता। इसीलिये, हे तात!
पंडितों ने क्षमा के लिये कुछ अपवाद भी कहे हैं
[9] सारी सृष्टि की उत्पति के पहले
'ऋत'
और
'सत्य'
उत्पन्न हुए; और सत्य ही से आकाश, पृथ्वी, वायु आदि पंचमहाभूत स्थिर हैं।- "ऋतंत्र सत्यं चाभीद्धातपसोअध्यजायत",
"सत्येनोतभिता भूमिः"। "सत्य"
शब्द का धात्वर्थ भी यही हैं- 'रहने वाला' अर्थात जिसका कभी अभाव न हो'
अथवा
'त्रिकाल अबाधित'। इसीलिये सत्य के विषय में कहा गया है कि
'सत्य के सिवा और धर्म नहीं है।'. कि 'नास्ति सत्यात्परो धर्मः| यह भी लिखा है किः-
अश्वमेधसहस्रं च सत्यं च तुलना धृतम्। अश्वमेघसहस्रादि सत्यमेव विशिश्यते।। "हजार अश्वमेघ और सत्य की तुलना की जाय तो सत्य ही अधिक होगा"; “वाच्यर्था नियताः सर्वे वाड़मूला वाग्विनिः सृताः। तां तु यः स्तेनयेद्वाचं स सर्वस्तेयकृन्नरः।।“
…मनु । "मनुष्यों के सब व्यवहार वाणी से हुआ करते हैं। एक के विचार दूसरे को बताने के लिये शब्द के समान अन्य साधन नहीं हैं। वही सब व्यवहारों का आश्रय-स्थान और वाणी का मूल श्रोता है। जो मनुष्य उसको मलिन कर ड़ालता है, अर्थात जो वाणी की प्रतारणा करता है, वह सब पूंजी ही की चोरी करता है ।"
'सत्यपूतां 'वदेद्वाचं'; जो सत्य से पवित्र किया गया हो, वही बोला जाय।
[10] उपनिषद में भी कहा है 'सत्यं वद। धर्म चर'।
[11] "
नापृष्टः कस्यचिद्ब्रूयान्न” चान्यायेन पृच्छतः … मनु”- जब तक कोई प्रश्न न करे तब तक किसी से बोलना न चाहिये और यदि कोई अन्याय से प्रश्न करे तो पूछने पर भी उत्तर नहीं देना चाहिये। यदि मालूम भी हो तो सिड़ी या पागल के समान कुछ हू हू करके बात देना चाहिये-” जान अपि हि मेधावी जडवलोक आचरेतू।”
[12] “न व्याजेनचरेद्धर्म
…. महाभारत” धर्म से बहाना करके मन का समाधान नहीं कर लेना चाहिये; क्योंकि तुम धर्म को धोखा नहीं दे सकते,
तुम खुद धोखा खा जाओगे।
[13] अकूजनेन चेन्मोक्षो नावकूजेत्कथंचन।
अवश्य कूजितव्ये वा शकरेन्वाप्यकूजनात्।
श्रेयस्तआनृतं वक्तुं सत्यादिति विचारितम्।। .. भगवान श्रीकृष्ण , कर्णपर्व; शांतिपर्व;
[14] “सच बोलना अच्छा है; परन्तु सत्य से भी अधिक ऐसा बोलना अच्छा है जिससे सब प्राणियों का हित हो; क्योंकि जिससे सब प्राणियो का अत्यंत हित होता है, वही हमारे मत से सत्य है।“ … सनत कुमार के आधार पर नारद जी शुकजी से (शांति पर्व)
“हमारे सच बोलने से निरपराधी आदमियों की जान जाने की आशंका हो, तो उस समय क्या करना चाहिये? ऐसे मौकों पर नीतिशास्त्र मूक हो जाते हैं। …. ग्रीन नामक एक अंग्रेज ग्रंथकार; नीतिशास्त्र का उपोदघात नामक ग्रंथ;
“अहिंसा सत्य वचनं सर्वभूत हितं परम्”…. महाभारत के वन पर्व में, ब्राहाण और व्याध के संवाद;
[15] “यदि मेरे असत्य भाषण से प्रभु के सत्य की महिमा और बढ़ती है अर्थात
ईसाई धर्म का अधिक प्रचार होता है तो इससे मैं पापी क्यों हो सकता हूँ”…. फ्राईस्ट का शिष्य पॉल; बाइबल;
नीतिशास्त्र, किसी को धोखा देकर या भुला कर धर्मभ्रष्ट करना, न्याय नहीं मानेंगे; परन्तु वे भी यह कहने को तैयार नहीं हैं कि सत्य धर्म अपवाद-रहित है।
[16] सिजविक अपने ग्रंथ में यह भी लिखता है कि “यद्यपि कहा गया है कि सब लोगों को सच बोलना चाहिये तथापि हम यह नहीं कह सकते कि जिन राजनीतिज्ञों को अपनी कार्रवाई गुप्त रखनी पड़ती है वे औरों के साथ, तथा व्यापारी अपने ग्राहकों से, हमेशा सच ही बोला करें ”