आत्म प्रत्यय

 


चन्दन सुकुमार सेनगुप्ता

इस कथा का प्रसंग मेरे बनारस प्रवास से जुड़ा हुआ है।  गुरु महाराज की आरती ख़तम होते ही मैं एक रिक्शेवाले से मुझे गंगाजी जी के घाट तक ले जाने के लिए कहा।  रिक्शावाला किराए के बारे में कुछ नहीं कहा और मैंने भी पहले पहल पूछना कुछ मुनासिब नहीं समझा ; बनारस को आधुनिक बनाने का सिलसिला चल पड़ा था; श्री महंतजी को कहीं भी कूड़ा कचरा का पड़ा रहना मंजूर नहीं; परिषद् का मुखिया भी उसी तत्परता से अपने आदमियों को काम पर लगा रखा था। 

घाट तक जाने की अनुमति मिल पाने की सूरत में मुख्य गिरजा घर के पास ही उतरना पड़ा और फिर वहां से चहल-कदमी का सिलसिला चल पड़ा।  घाट पर उतरने के पहले एक सार्वजनिक स्थल पर बैठा ; वहां चाय वाले के पास से के प्याला चाय लिया।  बगल में एक और साथी बैठे थे, चेहरा कुछ उतरा हुआ लग रहा था; उन्हें भी चाय दिया गया।  वार्तालाप से पता चला वो महाशय पिछले चार पांच दिन से घाट पर ही हैं और किसी आश्रम आदि में जगह पाने का प्रयास कर रहे हैं।   "एक मठ में गया तो उन्होंने पहले शिष्य बनने के लिए कहा; उनहोंने जो जटा बनाया था उसके साथ उम्र का कोई तालमेल ही नहीं बैठ रहा था।  फिर आगे कैसे बढ़ें !", उसके मन में पनपनेवाले शंका को पूरी तरह से झुठलाया भी नहीं जा सकता।  ऐसे भंड और प्रपंच करनेवालों की संख्या काफी है; पर्ची निकलनेवालों की तो भरमार ही है , और फिर बातों का पतंग तो आसमान में भरा पड़ा ही समझें।  कुछ भी हो मेरा यही मकसद रहा कि वार्तालाप के जरिये उसके घर कि स्थिति का पता लगाया जाए।  घर में एक बेटा, एक बेटी और बूढी माँ के साथ धर्म पत्नी रह रही है।  सबेरे शाम गाय के नाम पहली रोटी और कुत्ते के नाम की आखरी रोटी भी बनती है।  उसे व्यवसाय में सफलता नहीं मिल रही थी; वो जो भी व्यवसाय खोलने की योजना बनाता उसका पडोसी वही बना डालता और स्पर्धा करने लग जाता।  बातचीत से लग रहा था इंसान काफी सुलझा हुआ और नेकदिल था।  महामारी काल में बम्बई का पसारा समेटकर घर चूका था; जड़ से उखाड़ा पौधा फिर से उतना अच्छा जड़ कहाँ पकड़ पाता होगा; पडोसी के लिए तो उसका वापस आना मतलब कुछ बिपरीत धारा में गंगाजी का बहना ही हुआ! वैसे बनारस में तो गंगाजी उत्तर दिशा में ही चल पड़ी हैं।   

वो अजनबी इंसान फिरसे बोला, “आपसे मिलकर मुझे अच्छा लग रहा है; मैंने घर छोड़कर ठीक ही किया हूँ?", यह कह पाना मेरे लिए काफी कठिन था कि उसने घर छोड़कर ठीक भी किया होगा या नहीं! उसके बारे में और जानकारी पाने के बाद मुझे लगा उसका अभी घर छोड़ना शायद समस्या से भागने जैसा हुआ; बेटी की  जिंदगी का अहम् पड़ाव, बेटे को होनहार बनाना, माताजी को गंगा यात्रा कराना ऐसे कई काम हैं जिसकी प्रत्यक्ष जिम्मेदारी उस अजनबी इंसान पर डल चुकी थी।  अब उसका हौसला बढ़ाने के लिए फिर कहा गया कि उसे किसी और व्यवसाय के बारे में प्रयास करना चाहिए, प्रयास करते करते रास्ते मिल ही जाएंगे; समस्या छोड़कर भागने से सभी समस्याओं से पीछा नहीं छूटनेवाला।  लोगों का विशवास भी हासिल करना कठिन ही होगा। 

एक और पड़ाव पर उसे कुछ नकारात्मक उत्तर ही मिला; वहां दाखिल होने के लिए और गेरुवा धारण करने के लिए नौजवान होना होगा, ब्रह्मचारी होना होगा; देश दुनिया से अलग होगर देश दुनिया का काम करना होगा।  कहना तो बड़ा आसान ही समझें पर शायद ही कोई ठीक से कर पाते हों ! यह तो स्पष्ट नहीं हो रहा था कि कुल कितने ठिकानों से उसे न में उत्तर मिला होगा, पर मायूसी का परिमाण इस बात कि गवाही जरूर दे रही थी कि कहीं से उसे सकारात्मक उत्तर नहीं मिल पाया।  एक और पता है: क्रिया योगियों का पंडाल; वहां तो घर गृहस्थी देखते हुए तपस्या करने की बात की जाती रही: योगी बाबाजी महाराज  के अनुगामियों और उपासकों का ऐसा ही कुछ पहल भी काफी दिनों से चलता भी आ रहा होगा।  उस आगंतुक को उस क्रियायोग और उस योग में लगे समूहों के बारे में जानकारी दी गई।  किसी अनजान ठिकानों तक पहुँचने की आशा लिए गंगाजी के घाट पर पड़े रहने से कोई समाधान की उम्मीद ही नहीं लगाई जा सकती।  ईश्वर भी उसी की सहायता किया करता होगा जो सबल और सक्षम है।   

अगर हुनर और कौशल की भी बात करें तो हर व्यक्ति कुछ कुछ मामलों में होनहार भी माना जाएगा और कुछ गतिविधियों के लिए कुशल और सक्षम भी माना जाएगा।  फिर कमजोरी व्यक्ति मात्र में रहना एक भवितव्य ही मानें; अर्जुन भी रणभूमि में गांडीव फेंककर रथ पर जा बैठे थे ; उन्हें भी सम्यक ज्ञान के होने और उस कौशल को उपयोग में लाने का पाठ अपने सारथी से सीखना पड़ा।  शंका निरसन के लिए यह भी जरूरी नहीं कि व्यक्ति इधर उधर भटके , बल्कि वक्त की नजाकत को समझते हुए अपनी भूमिका गढ़ेऔर समाज में कार्यरत रहे।  योगिराज अपना शरीर छोड़कर सागर पार किसी देश में कैसे चले जाया करते थे यह विषय कभी भी तर्क का और बहस का नहीं बन सकता; मन की तरंगें और भावनाएं तो कहीं भी जाया कराती है; अगर चाहें तो ब्रम्हांड के अंतिम छोड़तक भी इसे ले जाया जा सकेगा।  भौतिकवाद के पश्चिम के चश्मे से परिस्थिति को देखना कभी भी वेदान्तियों की पहचान नहीं बन सकती।  कभी कभी पश्चिम के लोग रमण महर्षि से भी कुछ ऐसे ही सवाल पूछ लिया करते थे।  सवाल पूछने और शंका निरसन करने के क्रम में भी पता चल ही जाता होगा कि अपने ह्रदय और दिमाग पर दृश्य जगत का कितना प्रभाव रहता होगा। 

क्या गुरु के बिना साधक का जीवन अधूरा ही माना जाएगा? क्या दिव्य जीवन और देवत्व के अधिष्ठान की अनुभूति कुछ गिने चुने साधकों तक ही सीमित रहनेवाली? यह एक ऐसा विषय है जिसे व्यक्ति विशेष की समझदारी के क्षेत्र के अनुसार कही जा सकेगी: व्याख्यान के कई आयाम भी हो सकेंगे।  कहा जाता श्री रामकृष्ण, योगिराज आदि जैसे साधकों के लिए और चांडाल के लिए पूजा आराधना की कोई आवश्यकता नहीं, पर बीच गंगा में जिनकी नैया डगमगा रही होगी उन्हें तो ईष्ट चिंता में समय भी बिताना होगा और पूजा अर्चना भी करना होगा। 

समझ की अपनी सीमा और पर्याय भी विविध प्रकार और विविध स्वरुप वाला होता होगा; ऐसे अनुभव कथन की गाथा भी अपने चारों और बिखरी पड़ी। यही कारण समझें कि रामायण काल के बाद से गीता जी पर अरबों पन्नों के व्याख्यान और कथामाला लिखे गए होंगे; पढ़नेवालों से ज्यादा लिखनेवालों को ही संतुष्टि का भान होता होगा! सिर्फ आचार्य शंकर के भाष्य तक हमारी अनुसन्धित्सा कहाँ  रुकनेवाली; हम तो उस तत्व के विविध आयाम तक भी जाना चाहेंगे; यह भी चाहेंगे कि जनता जनार्दन का एक बड़ा समूह उस दिशा में चल पड़े।  हम तो यह भी चाहेंगे कि उस अजनबी इन्सान की भांति हर इंसान अपनी भूमिका के बारे में जागरूक हो और समाज से भागते हुए समस्या का डटकर मुकाबला करे।  

त्याग और वैराग्य का यह भी अर्थ नहीं कि विधायक कर्म से दूर भागें।  गीता, रामायण , वेद , उपनिषद् आदि में भी इस विषय पर भरपूर स्पष्टीकरण दर्ज होता आया, आगे भी दर्ज होता ही रहेगा।  "ज्ञानाग्निदग्ध कर्म ………."  यह भी कुछ वैसा ही विषय मानें जिसपर संत महात्मा सदियों से कहते रहे होंगे। 

धर्म दर्शन कि चर्चा में तर्क कि कोई प्रतिष्ठा है भी नहीं और तर्क का पल्ला किसी भी तरफ झुक जाया करेगा ; फिर उस तर्क में कोई अंतिम पड़ाव भी नहीं सकता , ही हम इसके जरिये किसी अंजाम तक पहुँचने का प्रयास ही कर सकेंगे।  उस अजनबी इंसान को मेरे बनारस प्रवास के तीनों दिन देखते आया; बाकी के दो दिन ज्यादा बात तो नहीं हो सकी, पर उसके मन कि स्थिरता विषयक संकेत मिलने लगा।  उसकी नपी तुली बात में भी यही परिलक्षित हो रहा था कि उसके मानस पटल पर बात जम गई कि मुसीबतों से भागनेवालों को दुनिया पसंद नहीं करती ,और ऐसा करना भी समीचीन भी होगा।  सिर्फ इस बात का ध्यान जरूर रखना होगा कि समाज से दूर हटकर समाज कार्य में लगने के लिए दृष्टि में सम्यकत्व के साथ साथ व्यापकत्व भी रहे। 

गंगाजी के घाट पर उस अजनबी इंसान से बातचीत हुई जरूर, पर उसी एक पक्ष को ध्यान में रखकर शायद ही हम कुशलतापूर्वक इस विषय पर बात कर पाएं ; कई और ऐसे व्यक्ति मिले जो किसी न किसी कारण से घाट पर आये थे और बैठकर कई प्रकार से साधना भी कर रहे थे।  एक ऐसे व्यक्ति भी मिले जो गंगाजी को गीता पाठ करके सुना रहे थे।  उनसे कारण पूछे जाने पर उनहोंने कोई उत्तर देना , या फिर कर्म से विरत होकर हमसे बात करना उचित नहीं समझा।  साधन का वह भी एक उत्कर्ष ही था जिसपर आसीन होकर साधक अपने ईष्ट का दर्शन कर रहे थे।  हमें इस बात का भी ज्ञान हो ही रहा था कि वो साधक खुद को प्रकृति के साथ एकरूप कर पाने के लिए प्रयास किये जा रहे थे।  यह भी स्पष्ट नहीं हो रहा था कि वो साधक नाथ पंथी थे, या अनाथपंथी।  जो भी हो उनका दृढ़ निश्चय यह था कि उन्हें अपना काम पूरा कर लेना होगा।  संस्कार के अधीन जिस व्यक्ति कि परवरिश हुई होगी उसके चित्त आकाश में उन संस्कारों का बीजक और विचार का तंग व्याप्त रहता है; उसी के अनुसार व्यक्ति साधना का मार्ग भी अपना लिया करता होगा।  साधना अहम् तो है ही, पर साधना की दिशा तय न हो पाने की स्थिति में मन में पनानेवाला द्वन्द किसी भी हालत में मंगलकारी नहीं हो सकता। 

 

 

अपराध और अपराधी

  चन्दन सुकुमार सेनगुप्ता अपने    दैनिक    जीवन    में कुछ हादसे ऐसे भी होते हैं जो पूरी व्यवस्था और न्याय तंत्र पर ही एक...