एक आश्रम संस्था के प्रमुख थे ; उनको लोग स्वामी बुद्धानन्द कहा करते थे। उनकी गाड़ी झाड़खंड और ओडिशा की सीमा पर बसे एक जंगल के बीच से गुजर रहा था। उसी जगह कुछ ऐसे जनजाति बसे थे जिनका कोई स्थायी ठिकाना ही नहीं था; न ही हम उन्हें किसी इ क जगह पर स्थायी रूप से बसते हुए देख ही पा रहे थे। ऐसे ही एक स्थानांतरण के मुहूर्त में उसी रास्ते से स्वामीजी और उनके कुछ साथी गुजर रहे थे, जबकि एक जनजाति महिला दर्द से कराह रही थी। जैसे ही सन्यासी महाराज का काफिला रुका वैसे ही अन्य सभी जनजाति के लोग वो जगह चढ़कर और उस पीड़िता को भी छोड़कर चल दिए; आखिर उस पीड़िता का इलाज करने के लिए चिकित्सकों को उतारा गया; भोजन की व्यवस्था की गई; कुछ भोजन वहीँ छोड़कर वो
लोग चले गए। से पहुंचाने का यह सिलसिला कई महीनों तक चलता रहा ताकि बिरहोड़ समुदाय के उस जनजाति का विशवास जीता जा सके। स्वामी बुद्धानन्द और उनके साथी सम्प्रदाय को छोड़कर अन्य किसी सम्प्रदाय को उस जनजाति का विशवास जीतने में सफलता नहीं मिली।
उसी जनजाति के नजदीक एक कालिंदी टोला भी था जहां नागदेवता को पकड़ने और बेचने के व्यवसाय से जुड़ा एक कालिंदी बूढ़ा भी रहता था। एकदिन आश्रम के लोगों के साथ काम में हाथ लगाते हुए खंडहर से निकलनेवाले एक नागदेवता को पकड़ने के लिए उसी कालिंदी बूढ़ा को बुलावा भेजा गया। उसने ख़ुशी ख़ुशी उस नागदेवता को अपने पास रखी टोकर में डाल दिया।
"इस नागदेवता का क्या करोगे?" स्वामीजी का सहज ही पूछना था
।
"पहले तो दांत निकालना होगा, स्वामीजी", कालिंदी "दांत" शब्द पर कुछ ज्यादा ही बल देकर अपने मन की बात कह रहा था ; और भी काफी कुछ कहा।
"ऐसा क्या किया जाय, जिसके करने पर इसे तुम गहन वन में जाकर छोड़ दोगे?"
यह तो उस कालिंदी के लिए काफी कठिन एक विषय बन गया। मन ही मन सोचा इस संत महात्मा से भी क्या कुछ लेना उचित होगा! पर उसे पैसा टी चाहिए, और फिर यह जो उसका व्यवसाय ठहरा!
ज्यादे देर तक कालिंदी को चुप्पी साढ़े देख महाराज समझ गए कि इसे कुछ बड़े रकम की उम्मीद रही होगी और उसके माँगने में भी कुंठा हो रही होगी। वो स्वयं ही उनके पिछले महीने के संग्रह में से आधी जे ज्यादे की रकम निकालकर कालिंदी को देने के लिए कहे और यह बोलकर गए कि नागदेवता को कुछ गभीर वन में जाकर प्रकृति की गोद में छोड़ दिया जाय; नैसर्गिक रूप से उसे जो जहर की झोली और विषदंत जैसे मिला होगा उसे भी चढ़ दिया जाय।
पैसों में रखा ही क्या है! भक्तों के पास जाने से और अनुभव कथन कहने से फिर दान मिलाने की संभावना जरूर बनेगी। सामने चलनेवाला वीर सन्यासी भला तूफ़ान से और जोखिमों से कभी घबराया है, ता फिर आगे कभी घबराएगा ! नागवता को सिर्फ इसलिए भी कैद में रखना उन्हें मंजूर नहीं था को वो जहरीलेल हैं, अनायास ही अन्य जीवों का नाश भी कर देते हैं; नैसर्गिक रूप से मिले विष से वो शिकार भी करते होंगे, भोज्य को भी मौत के घात उतारते होंगे और वैसे प्राणी की जनसंख्या को भी नियंत्रण में भी रखते होंगे; यह तत्व कालिंदी के समझ से परे रहा होगा, पर स्वामीजी भली भाँती समझ रहे थे; स्वामीजी प्राण संचार और संहार वृत्ति का विषय भी समझ रहे थे जिसमे अनाधिकार हस्ताक्षिओ कर दिन मनुष्य का धर्म नहीं माना जाता; अतः ऐसा अधर्म करने की वृत्ति से स्वामीजी ने उस कालिंदी को रोका। .