ब्रह्म उपासक

 

जब राजा विश्वामित्र को यह लगने लगा कि भुजबल से ब्रम्ह ज्ञान कहीं श्रेष्ठ है तो खुद को गहन साधना में लगा दिए और अरण्य जीवन को स्वीकार कर लिया; तपस्या से संतुष्ट होकर ब्रह्मा उन्हें ऋषि पद से विभूषित करने के लिए आये।  इस उपाधि से विश्वामित्र संतुष्ट नहीं हुए और ही अपने तपस्या को ही छोड़ा।  काम और क्रोध को वशीभूत करके विश्वामित्र को महर्षि का पद मिला; इसमें भी उन्हें संतोष कहाँ मिलनेवाला था! अब तो उनके मस्तक से तपस्या कि दीप्ति निकलने लगी; पूरा परिमंडल भी आभा से भर आया।  सभी देवता ब्रह्मदेव से आवेदन निवेदन करने लगे।  असल में विश्वामित्र उस ब्रह्मज्ञान का धन पाना चाहते थे जिसके पाने से उनके समक्ष ब्रह्म का अधिष्ठान प्रतिभासित हने लगे, वो जहां भी जाएँ वहीँ ब्रह्मज्ञान का भी अवतरण सहज ही हो; इस अभिलाषा को पूर्ण करने के लिए ब्रह्मदेव विश्वामित्र को ब्रह्मर्षि पद से अलंकृत करते हुए उनकी अभिलाषा को पूर्ण कर दिए। 

          यह अथक और निरंतर साधना का ही फल था जिसके बल पर विश्वामित्र महर्षि से ब्रह्मर्षि तक का सफर तय कर पाए।  सभी बाधाओं को पार करते हुए अपने कर्तव्य पथ पर निरंतर आगे रहे और प्राप्त की प्राप्ति कर लेने में सफल हुए।  प्राप्त की प्राप्ति इसलिए भी कहा गया ताकि हम ईश्वर के द्वारा सबकुछ निर्लित होने के बावजूद उसके अकर्ता स्वरुप में परिव्यात होते हुए परिलक्षित होता रहेगा। [1]  ईष्ट सबके कर्मों का अधिष्ठाता, सबका सर्जक, जीवमात्र का अंतरात्मा, साक्षी चेतन सत्ता होते हुए भी विशुद्ध और  निर्गुण है [2] समग्र विश्व चराचर की उत्पत्ति, विकास और विनाश उस ब्रह्म से ही घटित होता आया ; जीवन समाप्त हो जाने के बाद जीवात्मा का ब्रह्म में ही विलय हो जाता है (तै. उप.  /); इस विषय का सम्यक ज्ञान होने के बाद ही महर्षि तपस्या करते करते ब्रह्मर्षि बनाकर गुणातीत सर्वशक्तिमान को अनुभव करना चाहते रहे ; तपस्या में लगे रहे।  ब्रह्म ने स्वयं ही इस जगत रुपी जड़ प्रकृति का सृजन किया और उसी में परिव्याप्त भी होता आया; अतः प्रकृति को प्रत्यक्ष रूप से जगत का कारण स्वरुप तत्व नहीं माना जा सकता; उसके निरपेक्ष रूप से ब्रह्म को ही इसका कारण स्वरू भी माना जाना चाहिए । [3] त्यागनेयोग्य बताये जाने के कारण "आत्मा" प्रकृति का वाचक नहीं हो सकता। [4]

आत्मा को गैर-संवेदनशील तत्वों के समान वर्ग या श्रेणी से संबंधित नहीं माना जा सकता है। [5] आत्मा एक ही स्थिति में रहती है और परिवर्तन से अलग नहीं है। आत्मा को “अक्षर” (न बदलने वाला) माना जाएगा। [6]  आत्मा ज्ञान का आधार (ज्ञान का भंडार या स्थान) है । आत्मा स्वयं ज्ञान है और ज्ञान का स्थान भी (उपनिषद)। सम्पूर्ण कर्म सब प्रकारसे प्रकृति (दुर्गा) से उत्पन्न रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिव जी अर्थात् तीनों गुणोंद्वारा संस्कार वश किये जाते हैं; अहंकार से ग्रसित मनुष्य शिक्षित होते हुए तत्वज्ञान हीन अज्ञानी की भांति ‘मैं कर्ता हूँ‘ ऐसा मानता है। [7]  आत्मज्ञान की ओर ले जाने वाले दो मार्ग  हैं : चिंतन की ओर इच्छुक लोगों के लिए ज्ञान का मार्ग, और कर्म की ओर इच्छुक लोगों के लिए कर्म का मार्ग। [8]

“लोकेस्मिन द्विविधा निष्ठा……..”[9]

अर्जुन युद्ध नहीं करना चाहते थे, अतः उन्होंने समतावाचकबुद्धिशब्द का अर्थज्ञानसमझ लिया और उसी के अनुसार गांडीव डालकर रथ के पिछले हिस्से में आकर बैठ गए   श्री भगवान पहलेबुद्धिऔर फिर  बुद्धोयोगशब्द से समता का वर्णन करते हुए एक योद्धा को युद्ध करने के लिए उठ खड़ा होने के लिए प्रेरित करते रहे; अतः यहाँ भी भगवान ज्ञानयोग और कर्मयोग- दोनों के द्वारा समता का ही विवरण देते रहे।

दो निष्ठाएँ बतायी गई  हैं- “सांख्यनिष्ठा और योगनिष्ठा;“ जैसे लोक में दो तरह की निष्ठाएँ हैं- ‘लोकेऽस्मन्द्विविधा निष्ठा’, ऐसे ही लोक में दो तरह के पुरुष हैंद्वाविमौ पुरुषौ लोकेवे हैं- क्षर और अक्षर। क्षर की सिद्धि-असिद्धि, प्राप्ति-अप्राप्ति में सम रहनाकर्मयोगहै और क्षर से विमुख होकर अक्षर में स्थित होनाज्ञानयोगहै।

क्षर और अक्षर इन दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही है (परमात्मा): ‘उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः वह परमात्मा क्षर से तो अतीत है और अक्षर से उत्तम है; अतः शास्त्र और वेद में वहपुरुषोत्तमनाम से प्रसिद्ध है। ऐसे परमात्मा के सर्वथा सर्वभाव से शरण हो जानाभगवन्निष्ठाहै। इसलिये क्षर की प्रधानता से कर्मयोग, अक्षर की प्रधानता से ज्ञानयोग और परमात्मा की प्रधानता से भक्तियोग चलता है

सांख्यनिष्ठा और योगनिष्ठा- ये दोनों साधनों की अपनी निष्ठाएँ हैं; परंतु भगवन्निष्ठा साधकों की अपनी निष्ठा नहीं है। कारण कि सांख्यनिष्ठा और योगनिष्ठा में साधक कोमैं हूँऔरसंसार है’- इसका अनुभव होता है; अतः ज्ञानयोगी संसार से संबंध-विच्छेद करके अपने स्वरूप में स्थित होता है और कर्मयोगी संसार की वस्तु को संसार की ही सेवा में लगाकर संसार से संबंध-विच्छेद करता है। परंतु भगवन्निष्ठा में साधक को पहलेभगवान है’- इसका अनुभव नहीं होता; पर किसी विलक्षण तत्व की  स्थिति का ज्ञान हो ही जाता है। वह श्रद्धा-विश्वासपूर्वक भगवान को मानकर अपने-आपको भगवान के समर्पित कर देता है। इसलिये सांख्यनिष्ठा और योगनिष्ठा में तोजाननामुख्य है और भगवन्निष्ठा मेंमानना। ईष्ट को निवेदन करने के उपरांत भोजन ग्रहण करनेवाले ही वास्तव में सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो जाते हैं; स्वयं के लिए पकाया हुआ विविध व्यंजन का आनंदपूर्वक सेवन करनेवाले साधक ऐसा नहीं कर पाते। [10] जीवात्मा को नियम्य और अन्तर्यामी को नियंता बताया गया ; अतः अन्तर्यामी पद ‘परब्रह परमात्मा’ का ही वाचक है, ‘जीवात्मा’ का नहीं। [11] स्तितप्रज्ञ साधक का लक्षण बताते हुए ब्रह्म निर्वाण पाने का भी अधिकारी बताया गया। [12] परस्पर निर्भरशीलता का विज्ञान इस बात से ही सत्यापित की जा सकेगी जब हम यह देखेंगे कि जीव मात्र को जीवित रहने के लिए भोजन चाहिए; भोजन के उत्पादन में लगे वनस्पति को प्रकाश और वर्षा चाहिए; यज्ञार्थ कर्म करने से वर्षा होगी; सभी साधक को यह यज्ञार्थ कर्म में लगाना होगा; यही प्रकृति में जीव के परस्पर सहावस्थान का भी सिद्धांत माना जाएगा। निर्धारित कर्म (कर्तव्य कर्म और विधायक कर्म) करने से ही प्रकृति को पुष्ट और समृद्ध किया जा सकेग।  इस तत्व की पुष्टि कई स्थानों पर  विविध रूप से की जा चुकी और ऐसा कहते हुए भगवान भक्त को कर्म से जोड़ने का भी प्रयास करते हैं, न कि कर्म का सम्पूर्ण त्याग करने की। [13] विधायक कर्म का विवरण वेदों में भी दर्ज किया गया जो कि भगवान का ही कथन माना जाएगा। [14] ब्रह्म की संगती पानेवाला शाश्वत आनंद की अनुभूति पा लेगा, गुरु की संगती करनेवाला सत्संगी साधक वह योग को धारण करनेवाला आत्मा (योगात्मा ) कहा जाएगा। [15] 

ऐसी भी मान्यता है कि वेद भगवान के सांस से निकले; जिसमें मनुष्य के कर्तव्य कर्म स्वयं ईश्वर द्वारा निर्देशित हुआ। [16]  तंत्र सार में यज्ञ को स्वयं सर्वोच्च दिव्य भगवान कहते हैं, यज्ञ में सदैव ईष्ट का ही अधिष्ठान माना जाएगा; इस तत्व की प्रतिष्ठा वेद उपनिषदों में भी कई प्रकार से हो चुकी और कई बार दोहराये भी गए। [17]



[1] "सम्पूर्ण जगत का कर्ता होते हुए भी ईश्वर अकर्ता ही रहेगा। (गीता -- १३)

[2] एको देव: सर्वभूतेषु गूढ: सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा

कर्माध्यक्ष: सर्वभूताधिवास: साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च श्वेता - ११।।

[3] तन्निष्ठस्य मोक्षोपदेशात् (ब्रह्मसूत्र //)

[4] हेयत्वावचनाच् ( ब्रसू-,. )

[5] 'अव्यक्तोयम् अचिन्त्योयम'-गीता II-25.

[6] 'अविकार्यः अयमुच्यते'- (अविकार्योऽयामुच्यते।) गीता II-25

[7] क्रियमानानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। सर्वविमूढ़ात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।। गीता -२७ ।।

[8] लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मायान्घ |

ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् || अध्याय श्लोक ||

भगवान ने कहा ; लोके - संसार में ; अस्मिनयह ; द्वि-विधादो प्रकार की ; निष्ठाविश्वास ; पुरापहले ; प्रोक्ता - समझाया गया ; मायामेरे द्वारा (श्रीकृष्ण) ; अनघनिष्पाप ; ज्ञान-योगेन - ज्ञान के मार्ग से ; सांख्यनाम्चिंतन की ओर प्रवृत्त लोगों के लिए ; कर्म-योगेन - कर्म के मार्ग से ; योगिनाम् - योगियों का;

[9]अनघ- अर्जुन के द्वारा अपने श्रेय की बात पूछी जानी ही उनकी निष्पापता और कर्तव्यनिष्ठा का परिचायक समझें ; क्योंकि अपने कल्याण की तीव्र इच्छा होने पर साधक के पाप और अपवित्रता विषयक अपूर्णता नष्ट हो जाते हैं।

‘लोकेऽस्मिन्द्विविविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मया- यहाँलोके पद का अर्थ मनुष्य शरीर समझना चाहिये; क्योंकि ज्ञानयोग और कर्मयोग- दोनों प्रकार की साधना के जरिये मानव शरीर को ही उन्नति का मार्ग मिलेगा।

निष्ठा - अर्थात समभाव में स्थिति एक ही है; इसे - ज्ञानयोग से और कर्मयोग से पाया जा सकेगा। इन दोनों योगों का अलग-अलग विभाग करने के लिये  इस समबुद्धि को सांख्ययोग के विषय में कह दिया गया ( गीता में दूसरे अध्याय के उन्तालीसवें श्लोक में); इसे कर्मयोग के विषय में कहा जाना शेष था  - ‘एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु

पुरा पद का अर्थअनादिकाल भी होता है औरअभी से कुछ पहले भी समझा जाएगा यहाँ इस पद का अर्थ है- अभी से कुछ पहले अर्थात पिछला अध्याय, जिस पर अर्जुन की शंका है। यद्यपि दोनों निष्ठाएँ पहले बारी बार  से कही  जा चुकी है, तथापि किसी भी निष्ठा में कर्मत्याग की बात नहीं कही गई। 

[10] यज्ञशिष्टशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बषैः । भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ।।

………. श्रीमद्भागवद्गीता अध्याय ३ श्लोक १३ ।।

यज्ञ-शिष्ठ – यज्ञ में अर्पित भोजन के अवशेष ; अशिनः – खाने वाले ; सन्तः - साधु व्यक्ति ; मुच्यन्ते – मुक्त हो जाते हैं ; सर्व – सभी प्रकार के ; किल्बिषैः – पापों से ; भुञ्जते – आनंद लो ; ते - वे ; तू - परंतु ; अघम – पाप ; पापः – पापी ; तु - कौन ; पचन्ति – पकाना (भोजन) ; आत्म-कारणात् - अपने स्वयं के लिए;

‘यज्ञशिष्टाशिनः संतः’- कर्तव्यकर्मों का निष्काम भाव से विधिपूर्वक पालन करने पर[3] योग अथवा समता ही शेष रहती है। यज्ञशेष का अनुभव करने पर मनुष्य में किसी भी प्रकार का बंधन नहीं रहता।

[11] स्मार्तम् अतद्धर्माभिलापाच् छारीरश् ( ब्रसू-,.२० ) ब्रह्मसूत्र //२०

"लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षणिकल्मशाः। छिन्नद्वैघा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः।" , "जिसका संदेह नष्ट हो गया है, जो परमात्मा में दृढ़ है, जो सभी जीवों के कल्याण में तल्लीन है, ऐसा ऋषि पापों से मुक्त हो जाता है और ब्रह्मधाम पाने का अधिकारी बन जाता है। " (श्रीमद्भागवद्गीता .२५)

[12]एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनं प्राप्य विमुह्यति। स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृत्युचति॥ , “जो लक्षण स्थितप्रज्ञ साधक के बताये गए हैं, जैसा की उल्लिखित श्लोक के पहले गीता में दर्ज की गई , वह ब्रह्म अवस्था है;जिसे  एक बार पा लेने  के बाद व्यक्ति कभी भी मोह के वशीभूत नहीं होता। यदि यह अवस्था अन्तिम श्वास में भी प्राप्त की  जाय तो उसे ब्रह्मधाम की ही प्राप्ति होगी " (गीता .७२) [ब्रह्मनिर्वाण अर्थात विदेहमुक्ति]

[13] अन्नद भवन्ति भूतानि पर्जन्याद अन्न-सम्भवः।

यज्ञाद भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्म-समुद्भवः।। श्रीमद्भागवद्गीता अध्याय , श्लोक १४ ||

अन्नतभोजन से ; भवन्ति - निर्वाह ; भूतानिजीवित प्राणी ; पर्जन्यात्वर्षा से ; अन्नअन्न का ; संभवःउत्पादन ; यज्ञात्यज्ञ करने से ; भवतिसंभव हो जाता है ; पर्जन्यःवर्षा ; यज्ञः - यज्ञ करना ; कर्म - निर्धारित कर्तव्य ; समुद्भवः - से उत्पन्न;

[14] कर्म ब्रह्मोद्भवम् विद्धि ब्रह्मक्षर-समुद्भवम्।

तस्मात् सर्व-गतम् ब्रह्म नित्यम् यज्ञे प्रतिष्ठितम्।।  श्री मद्भागवद्गीता अध्याय ३ श्लोक १५।।

कर्म - कर्तव्य ; ब्रह्मा - वेदों में ; उद्भवम् – प्रकट ; विद्धि - तुम्हें पता होना चाहिए ; ब्रह्मा – वेद ; अक्षर - अविनाशी (ईश्वर) से ; समुद्भवम् – प्रत्यक्ष रूप से प्रकट ; तस्मात् - इसलिये ; सर्व- गतम् – सर्वव्यापी ; ब्रह्मा - भगवान ; नित्यम् – सदैव ; यज्ञे – यज्ञ में ; प्रतिष्ठितम् - स्थापित

 

[15] ' ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्ष्यमश्नुते' - ' ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षय्यमश्नुते' - 'जो ब्रह्म की संगति प्राप्त करता है वह शाश्वत आनंद प्राप्त करता है' (गीता .२२ ) ब्रह्म की संगति (अक्षरब्रह्मस्वरूप गुरु की संगति); जो मन, वचन और कर्म से अक्षरब्रह्म गुरु की संगति करता है, वह योग को धारण करने वाला आत्मा ही होगा। 

'ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः। तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्॥' , 'जिसने ज्ञान के द्वारा आत्मा के अज्ञान को नष्ट कर दिया , उसके लिए वह ज्ञान, सूर्य की तरह परमात्मा को प्रकट करनेवाला ही होगा  (गीता .१६ )

[16]अस्य महतो भूतस्य नि श्वासितमेतद् यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदो 'थवंगिरसः  (बृहदारण्यक उपनिषद . .११ ) [श्लोक ]

"चार वेद-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद-सभी सर्वोच्च दिव्य स्वरुप  व्यक्तित्व की सांस से निकले हैं।" वह दिव्य स्वरुप नियंता ईश्वर ही होंगे।  इन सनातन वेदों में मनुष्य के कर्तव्य स्वयं ईश्वर ने बताये हैं।

[17] यज्ञो यज्ञ पुमांश्च चैव यज्ञशो यज्ञ यज्ञभवनः यज्ञभुक् चेति पंचात्मा यज्ञेष्विज्यो हरिः स्वयम् [ श्लोक १० ]

भागवतम (११ .१९ .३९ ) में, श्री कृष्ण उद्धव से कहते हैं : यज्ञो 'हं भगवत्तमः [ श्लोक ११ ] "मैं, वासुदेव का पुत्र, यज्ञ हूं " वेद कहते हैं: यज्ञो वै विष्णुः [ श्लोक १२] " यज्ञ वास्तव में स्वयं भगवान विष्णु ही हैं।"

अपराध और अपराधी

  चन्दन सुकुमार सेनगुप्ता अपने    दैनिक    जीवन    में कुछ हादसे ऐसे भी होते हैं जो पूरी व्यवस्था और न्याय तंत्र पर ही एक...