चंदन सुकुमार सेनगुप्ता
“शिक्षा का उद्देश्य तथ्यों को जमा करना और उसपर चर्चा करना नहीं होता है बल्कि शिक्षा का मुख्य मकसद दिल और दिमाग को प्रशिक्षित करना होता है ताकि हम ज्ञान के अन्वेषण में कुशलतापूर्वक लग सकें| इस लेख के जरिये हम शिक्षण प्रशिक्षण के व्यापक स्वरुप को एक व्यवहार कुशल समाज विज्ञान के सन्दर्भ में समझने का प्रयास करेंगे।
इसे उन सभी अभ्यासियों और शोधकर्ताओं के लिए समर्पित किया गया जिन्हें स्वाध्याय के जरिये खुद के सम्यकत्व विषयक धारणा को स्पष्ट करना है। "
टोल में आते ही पहले पहल लिखने पढ़ने में गदाधर ठाकुर को काफी आनंद मिल रहा था: तीन और चार का योग करने से सात हुआ; आत्मा और परमात्मा योग हुआ तो जीवन की धरा चल पड़ी; भक्त और भगवान का योग, ऐसे और भी कई अनुभव परत दर परत आनंद देने के लिए पर्याप्त ही थे। पर योग के साथ साथ वियोग भी सीखना था; आत्मा और परमात्मा का वियोग ! "भक्त और भगवान का वियोग! नहीं नहीं, मुझे इस टोल में नहीं पढ़ना |
", ऐसा कहकर श्री गदाधर पाठशाला के दायरे से निकलकर निसर्ग की पाठशाला में दाखिल हो गए और अपने ध्यान धारणा को पक्का करने लगे। "मैं " अगर ख़तम ही नहीं हो प् रहा तो फिर "मैं भक्त, मैं दास, मैं सेवक" , यह सब पक्का मैं रहे। यह शिक्षा का एक ऐसा पड़ाव था जब एक भक्त का भगवान के मिल पाने की व्यवस्था को अंजाम तक पहुँचाने का साक्षी बन रहा था। अक्षर ज्ञान की अपनी मर्यादा को सत्यालित किये जा रहा था।
आज भी हमें आधुनिक शिक्षा के कुछ पहलू को फिर से देखना होगा और उस व्यवस्था के सर्व समावेशक हो पाने की संभावना को भी तलाशना होगा।
खोकरो गाँव के पास बसा एक प्राथमिक विद्यालय वीरान था | वहाँ के मास्टरजी आते हैं और अपनी हाजरी लगाकर चले भी जाते हैं | यह गाँव सिंहभूम जिले के अंतर्गत पोटक प्रखंड में आता है | ग्रामीणों से बात करके यह पता लगाया गया कि बच्चे विद्यालय क्यों नहीं आते ! गाँव के एक वरिष्ट का यह मानना था कि उस गाँव के बच्चे विद्यालय जाते रहने से खेत का काम और हाल जोतना भूल जाते हैं | बेहतर तो यही होता कि उस विद्यालय को पूरी तरह बंद कर दिया जाता |
असली ज्ञान और असली अध्ययन तो वही है जिसके ज़रिए व्यक्ति कार्य कर सके और खुद के ब्रह्म स्वरूप को सही तरीके से समझ सके | आग्रह यही है कि हम उस सर्वशक्तिमान की सत्ता को स्वीकार करें | वेद उपनिषदों में ईश्वर का स्वरूप बताते हुए उसे एक अनुभवजन्य सत्ता के रूप में प्रकाशित किया गया है | उसे ब्रह्म स्वरूप कहा गया है | अनुभव पाने वाले व्यक्ति को भी ब्रह्म स्वरूप ही कहा गया | इसका यह भी अर्थ निकाला जा सकता है कि ब्रह्म स्वरूप का दर्शन हम किसी भी जीवात्मा में कर सकते हैं | अगर ऐसा ही है तो सभी जनों में ऐश्वरिक सत्ता तथा उर्जाओं का दर्शन प्रतिभाषित क्यों नहीं होता है | यह तो स्वयं ही होना चाहिए था | इसमें भी हमारे सामने सुर- असुर, धर्मी-विधर्मी आदि भेद को प्रतिभाषित किया जाता है | इसका विज्ञान किस हद तक तर्क संगत है? क्या सभी जीवात्मा ईश्वर तथा ऐश्वरिक शक्तियों का सान्निध्य पाने की पात्रता रखता है? क्या इसके लिए कोई खास प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है? अगर है भी तो उसके नीति निर्देशक तत्व कौन कौन से होंगे? उसे धर्म के साथ जोड़कर देखा जाना कहाँ तक उचित होगा?
एक समय की बात है दीनों में अति दीन एक भिक्षु काफ़ी कुछ पाने की अश् लगाए एक ऐसे राजपथ के किनारे खड़ा था जिस पथ से राजाओं का राजा गुज़रता था और इतना देता था जिससे समग्र जीवन का गुज़ारा हो सके | यथावत कांक्षित समय तथा निर्धारित पथ से राजाओं का राजा आने लगा | भिक्षु का हृदय पुलकित हो उठा, चेहरे पर मुस्कान दिखने लगा, खुद को व्यवस्थित करते हुए उसी मार्ग के किनारे खड़ा हो गया | राजाधिराज आए, सम्मुख खड़े भी हो गये और मुस्कुराते हुए उस उस भिक्षु से ही भीख माँगा | भीक्षु बड़ा ही मायूस हुआ | उसी मायूसी में कुछ गिने चुने अन्न के दाने उस राजाधिराज के हथेली पर रखा | भीख पाकर राजाधिराज बहुत प्रसन्न हुए और अपने रथ पर सवार होकर उसी धूल से भरे शाश्वत मार्ग पर चल पड़े | दिन ढलने के बाद मायूस तथा थका हुआ भिक्षु अपनी कुटिया में आया और दिन भर के संग्रहों को छाँटने लगा | उसमें से कुछ चमकने वाले दाने कुछ ख़ास ही थे | संयोगवश चमकने वाले दाने उतने ही थे जितना की भिक्षु ने राजाधिराज को दिया था |
इस घटना से भिक्षु और ज़्यादा मायूस हो गया | उसे अपनी कंजूसी पर रोना आया, अपने कुंठा को उसने दूर ना कर पाने के लिए भी लज्जित हुआ | अब अगर राजाधिराज सामने आए तो सर्वस्व देने का विचार बनाया | फिर से उस मार्ग पर आश् लगाए बैठा रहा | संकीरनता दूर कर भक्ति मार्ग पर टिके रहने के लिए उसने अपने जीवन मंत्र को अग्रगन्य माना |
कभी कभी हम यह नहीं समझ पाते हैं कि सर्वशक्तिमान अगर हमसे कुछ माँगता है तो क्या कोई भौतिक वस्तु होगा, या कोई रोचक वस्तु होगा ? उसे भला इन वस्तुओं की क्या आवश्यकता आन पड़ी ? उसे तो सभी सुख सुविधाओं की प्राप्ति अनायास ही हो सकती है | हमसे उसे सिर्फ़ समर्पण की उम्मीद रहती है | समर्पित व्यक्ति को ही सर्वशक्तिमान ज़िम्मेदारियों से सफल जीवन जीने हेतु प्रेरित करता है | सच्चा भक्त वही है जो सर्वशक्तिमान के पास खुद को समर्पित करे और उसके द्वारा दिए जाने वाले दायित्व का पालन करे | उसे तो जीवन प्रक्रिया से मुक्त हो पाने का मंत्र भी अपने ईष्ट देवता से निरंतर मिलता ही रहेगा | इसमें शंका, भ्रम, कमज़ोरी आदि का कोई स्थान हो ही नहीं सकता |
अधिकांश वरिष्ठ मित्रों और कार्यकर्ताओं का यही मत है कि संस्थाएँ अपने मूल ध्येय से भटक चुकी है और उनके सामने अपने ही अस्तित्व को टिकाए रखने का प्रश्न निर्माण हो चुका है | कई सस्थाओं को जनता जनार्दन में पैसों का पहाड़ दिखता है और विचारों व संस्कारों से मीलों दूर किसी चमक दमक वाले गलियारों में वे सबके सब भटक रहे हैं | कभी सर्व भारतीय स्तर की मानी जानेवाली संस्था भी इन दिनों कूप मंडूकता से ग्रस्त होकर उसी हिसाब में लग चुकी है कि पैसों के मार्ग से और अधिक पैसा किस प्रकार से हासिल किया जा सके | कई संस्था प्रमुखों का घमंड इस कोटि का हो गया है कि उन्हें अपने विरोध में एक भी शब्द सुनना पसंद नहीं | अतः यही वास्तविक है कि आनेवाले दिनों में इन संस्थाओं को कार्यकर्ता नहीं मिलेंगे और इन्हें नौकरों की टोली से ही काम निकालना होगा | जाहिर सी बात है , अब संस्था चलाने का खर्च भी बढ़ेगा |
चिकित्सा विज्ञान से जुड़े अपने एक मित्रवत कार्यकर्ता का भी यही मत है कि हम एक ऐसे कठिन समय से गुजर रहे हैं जब संस्थाओं में कार्यकर्ताओं को शरण मिलना और उनके विचारों और संस्कारों का संरक्षण हो पाना ज़्यादा कठिन हो जाएगा | इस परिस्थिति में ज़मीनें, इमारतें और पैसों को छोड़ कर और कुछ भी नहीं बचेगा | संस्था खुद को बचाए रखने के लिए अपने दायरों को दिन प्रतिदिन छोटा कर रही है | उन्हें भी अपने अस्तित्व खोने का डर सता रहा है और उनके पास दूसरा पर्याय है भी नहीं |
इस परिस्थिति में हम चुप रहें या फिर कुछ पहल करें इस विषय पर मित्र मंडली में चर्चा चल पड़ी है | ईस्वर की इच्छा अगर है और अगर यही समय की माँग हो रही है तो हमें ज़रूर कोई समाधान सूत्र मिलेगा | संत ,गुरु और महात्मा गण समय समय पर यही कहा करते हैं कि प्रयत्न करते रहना एक कार्यकर्ता का ही काम है |
विचारों और पैसों का द्वंद
विचार के साथ अर्थ ( पैसा , सम्पद, ज़मीन आदि ) का रिश्ता ही कुछ अजीब सा है | लोग पैसों के बल पर हर एक को झुका देने की तमन्ना रखते हैं | कभी कभी उन्हें इतिहास के पन्नों से सीख लेते हुए अपनी भूमिका तय करना होगा | हम सब यह भली भाँति जानते हैं कि एक लुटेरा जब भारत से लूट का पैसा लेकर जा रहा था तो वह अपने ही साथियों के हाथों मारा गया | वो पैसा आख़िर किसी के भी काम न आ सका | अगर किसी को यह लगता है कि मंगल विचार के धनी सिर्फ़ पैसों के लिए काम करेंगे तो उन्हें अनतिविलंब अपना विचार बदलते हुए यह समझ लेना होगा कि पैसों की ओर भागने वाला व्यक्ति मंगल और क्रांतिकारी विचार का धनी कदापि नहीं हो सकता | जिन संस्थाओं के पास पैसे, ज़मीनें और इमारतें आ चुकी है उन्हें लगता है कि अब वो दुनिया को किसी भी तरफ मोड़ सकेंगे और जनता जनार्दन को उनके पास आना ही होगा | उन संस्था प्रमुखों को इस बात का ध्यान रखना होगा कि क़ानून का शिकंजा कभी भी कसा जा सकता है और किसी लोकतांत्रिक ढाँचों में इसकी संभावना कुछ ज़्यादा ही रहेगी | अतः कुछ ऐसा संतुलन बनाकर संस्थाओं को चलना होगा जिससे जनता जनार्दन के बीच उन वित्तवान संस्थाओं के चलते किसी प्रकार का रोष उत्पन्न न हो | एक ऐसी भी संस्था के बारे में पता चला जिन्होंने अपने ही कार्यकर्ताओं को काफ़ी अपमानित करके उनकी भावनाओं को कुचलकर काम से निकाल बाहर करने का निर्णय लिया | कभी कभी हमें भावनाओं का भी ध्यान रखना होता है; ताकि कोई व्यक्ति आवेश में आकर कोई ग़लत कदम न उठा ले | जिन कार्यकर्ताओं को निकाला गया उनमें से अधिकांश लोगों का नौकरी पाने का उम्र ही निकल चुका था और वो न तो नई व्यवस्था में ढलने के लिए मानसिक रूप से तैयार थे | इसका यह अर्थ भी नहीं है कि संस्थाओं को कामगार लोगों की संख्या में कटौती करने का कोई हक ही नहीं है | संस्था उन अधिकारों का उपयोग करते समय वयक्ति की भावनाओं का भी यथोचित सम्मान करे | किसी नौकर के अपमानजनक कारनामों का असर संस्था प्रमुख और उनके साथ जुड़े लोगों की प्रतिष्ठा को भी चपेट में ले सकता है | और यह एक प्रकार की मूर्खता ही है जिस बदौलत कोई संस्था बने बनाए कुशल कार्यकर्ताओं को छोड़ दे |
अपने देश में ऐसे और भी संस्थाओं का परिचय हमें मिलता है जिनका मुख्य काम ही है कार्यकर्ता निर्माण | उनके पास कई युवा जीवन की तलाश में आते हैं और उनमें से कई पूर्ण रूप से जुड़ जाते हैं और ध्येय मार्ग पर अडिग भी रहते हैं | उन संस्थाओं की प्रगति इन दिनों तीव्र गति पर है और धीरे धीरे भारत के प्रत्यन्त भागों तक फैल रही है | इसको किसी दबी पाँव चलनेवाले तूफान से भी तुलना कर सकते जिसमें खर पतवारों के साथ साथ बड़े पेड़ पौधों को भी उड़ा ले जाने की असीम शक्ति है; उनका भान भी कुछ इस प्रकार का ही है | इस बात से समझदार लोगों को एक तो मौका मिल ही जाएगा कि वो अपने बिखरे हुए वस्तुओं को समेटकर उस तीव्र तूफान के वापस जाने का इंतजार करते रहें या फिर खुद को किसी सुरक्षित जगह स्थानांतरित कर लें | नासमझ और घमंडी लोगों के लिए आने वाला काल और अधिक विकराल होने जा रहा है | संस्था का प्रमुख काम ही है विचार का संकर्षन और उस विचार पर चल पड़ने वाले लोगों का संरक्षण |
कभी बंगाल के एक आश्रम से एक युवा सन्यासी यह कहकर निकल गये कि उन्हें उपयाचक और परिव्राजक का जीवन बिताना है | उपायाचक का अर्थ हुआ किसी से कुछ न माँगना और परिव्राजक से उनका अभिप्राय था कहीं भी ज़्यादे दिन का प्रवास न करना | उन्होंने गुरु माँ से अनुमति माँगकर निकलने का फ़ैसला भी कर लिया | सबसे ज़्यादा चिंता उस गुरु माँ को होने लगी; कारण था कि जिस देश में बिना माँगे पानी भी नहीं मिलता उस देश में कहीं इस युवा का हौसला न टूट पाए | उस यूवा का आश्रम से निकल आने का कारण तो कुछ और ही था | कभी कभी हमें कुछ कड़वाहट को गुप्त रखना होता है ताकि लोगों की भावनाओं को अनावश्यक ठेस न पहुँचे | इस बात का भी ध्यान रखना होता है कि हमारे किसी कारनामे से दूसरों की प्रगति बाधित न हो | कभी कभी दूरियाँ बना लेना मंगल कारक भी होता है | उस युवा सन्यासी ने आश्रम से दूरी इसलिए भी बना लिया था ताकि और साथियों को काम करने का अनुभव प्राप्त हो और उन्हें बड़ी ज़िम्मेदारियों से नवाजा जा सके |
हर समय संकट की बात करें और समाधान का कोई सूत्र न हो ऐसा कभी हो ही नहीं सकता | हम जिस व्यवस्था से निकलकर आते हैं हमारी मानसिकता और दैनिक व्यवहार भी उसी के मुताबिक बनना स्वाभाविक है, और फिर उसमें आधुनिकता का कुछ अंश मिल जाता है | कोई सूचना और प्रौद्योगिकी का विद्यार्थी एक सरलता और सादगी का जीवन जी रहा है इस बात से लोग परेशान हो उठते हैं और कभी कभी ऐसा उन्हें यकीन भी नहीं होता | जाहिर सी बात, लोग किसी भी स्थिति का जायजा अपने नज़रिए से ही लेते हैं और उन्हें उसी नज़रिए से समाधान सूत्र भी दिखने लगता है | आधुनिक प्रबंधन विज्ञान कहता है कि जिसे जिस प्रकार की भूख लगी उसे उसी प्रकार का भोजन दिया जाय नहीं तो विरोध का बादल मंडराने लगेगा | पर सर्वोदय का विज्ञान इससे बिल्कुल ही अलग है : प्रबंधन को तभी कारगर और यशस्वी माना जाएगा जब परिसर में रहने वाले जानवर तक को भोजन और आसरा मिले | महात्मा का भी इसी से मिलता जुलता एक विचार था कि किसी परिसर में अहिंसा की प्रतिष्ठा है कि नहीं इसका पता लगाने के लिए हमें वहाँ रहनेवाले जानवरों और उनके साथ किए जाने वाले व्यवहारों को देखना होगा |
आत्म प्रत्यय का विज्ञान यह कहता है कि प्रयास करते रहना है | निरंतर प्रयास करते रहने से शत्रु का भी दिल जीता जा सकेगा | उसी आत्म प्रत्यय से अर्जुन को सारथि के रूप में श्री कृष्ण का साथ मिला और उतनी बड़ी सेना को परास्त करने में कामयाब हुए | दूसरी ओर श्री कृष्ण को भी पता था कि वो हर एक परिस्थिति से अर्जुन को नहीं बचा पाएँगे , पर अगर बजरंग बलि का साथ रहा तो हर संकट से उभरा जा सकेगा | अतः कपिध्वज का अवतरित होना और जंग समाप्त हो जाने के बाद जल जाना स्वाभाविक था | मौके मिलते रहें और निरंतर समय जाता रहे यह भी संतोष पाने लायक नहीं हो सकता | लंका नरेश रावण के सामने उसी के उपास्य देवता का रुद्र अवतार जीवन बचाने के उद्देश्य से समझाने आया और घमंड के बादलों से घिरे रावण को नियती के कराल ग्रास से बचा नहीं पाया | उस समय कई ऐसे भी दिन बीत रहे थे जब रावण नर्तकियों और किन्नरों से घिरा रहता था और मर्यादा पुरुषोत्तम घास के मखमली विस्तर पर चंद्रमा को निहारते हुए निद्रा विहीन रातें बिताया करते थे | बजरंगी के पराक्रम और उनके शौर्य - धैर्य के पहिए वाले धर्म रथ ने उन्हें विजय श्री दिलवाया |
कभी कभी हम यह भी समझ नहीं पाते कि अगर संहार वृत्ति का प्रयोग करना भी रहा तो यह कैसे समझ लें कि वो समय अब आ चुका ! जब अपने देश में आश्रम परंपरा का विद्यालय चलता था उन दिनों एक आश्रम के कुछ विद्यार्थियों को नज़दीक के गाँव में एक कुटिया में आग की चिंगारी की ओर नज़रें गई | उन्होंने अपने गुरु को बताया और उन्हें लगा कि गुरुदेव तुरंत ही आग बुझाने के काम में जुट जाने का आदेश देंगे | पर गुरुदेव ग्रामीणों के संकुचित वृत्ति से भली भाँति परिचित थे | उन्होंने इंतजार करने और स्थिति का जायज़ा लेते रहने के लिए कहा और खुद भी जगे रहे , और दूर से ही सही उस घटना को निहारते रहे | आग और बढ़ी, तब भी गुरुदेव चुप रहे और अन्य शिक्षुओं से भी चुप्पी बनाए रखने के लिए कहा | जब ग्रामीणों के बीच से "बचाओ, बचाओ " ऐसी पुकार आने लगी तब गुरुजी खुद कमर कसकर दौड़ पड़े, जाहिर सी बात थी कि उनके सभी विद्यार्थी साथ हो लिए | पूरी प्रक्रिया और आग बुझाने का काम पूरा होने के बाद जब विद्यार्थियों ने गुरुजी के ऐसे काम करने का कारण पूछा तो शिक्षक बोले , "लोगों की सामान्य वृत्ति का ही फल है कि उनके मन में किसी के भी प्रति सहज रूप से संदेह पैदा हो जाया करता है | अगर उन्हें नींद से उठाकर हम कहें कि हम उनके इमारत में लगे आग को बुझाने आए हैं तो उनके मन में हमारे ऐसा करने को लेकर संदेह भी पैदा होगा | उन्हें ऐसा भी लग सकता है कि हम कुछ चोरी करने आए हैं और आग लगने का बहाना बना रहे हैं | बुलावा आने से हमारा वहाँ जाना यह हमारा एक सहज मानव धर्म है | "
सहज़ीवन की कला से भी हम यही सीखते कि मदद माँगे जाने पर मुँह नहीं मोड़ना चाहिए | हमें हमारी हैसियत के मुताबिक लोगों तक मदद का हाथ बढ़ा देना चाहिए | संस्था को अगर समाज के लिए बनाया गया होगा तो उस संस्था को समाज से हटकर कोई निर्णय नहीं लेना चाहिए | कभी कभी संस्था चालकों में भी वैचारिक मतभेद पनपने लगता है और उन्हें लगता है कि संस्था की हर गतिविधि से आमदनी हो | अगर आम के पेड़ से फल पाते पाते हमें यह लगने लगे कि उसकी जड़ों को भी निकाल लें और किसी न किसी काम में लगा डालें तो यह हमारी वैचारिक दीनता समझी जाएगी न कि सैद्धांतिक परिपक्वता | हम कभी कभी शराफ़त का चोला पहनकर कड़वाहट से दूर भागना चाहते हैं, पर कभी परछाईं व्यक्ति का साथ नहीं छोड़ता ; अतः हमें दोनों को साथ लेकर ही एक निर्णायक की भूमिका में खरा उतरना होगा | अगर हम उस नेतृत्व शक्ति के आदि नहीं बन पाते हों तो तुरंत उस व्यवस्था और परिसर से हट जाना होगा | यही वक्त की नज़ाकत होने के साथ साथ सार्विक समाधान का सूत्र भी है |
सुनने में आता है कभी एक अंग्रेज अधिकारी हाथी पर सवार होकर कुछ पदातिक साथ में लेकर जंगल क़ानून का अनुपालन कराने के लिए जंगल महल में दाखिल हुए | वहाँ उनका सामना एक ऐसे योद्धा से हुआ जो जहरीले तीर लेकर खड़े थे और दो पहाड़ी के बीच से उस अधिकारी को गुज़रना था | योद्धा ने उन्हें आगे बढ़ने से मना किया | पर अंग्रेज अधिकारी सबको आयेज बढ़ने का आदेश देते रहे | जैसे ही काफिला दो पफ़ादी के बीच में आया वैसे ही उन पदातिक सैनिकों पर एकसाथ पाँच तीर दाग डेए गये | नतीजा बिल्कुल साफ था | पाँच पदातिक कीजगह पर ही मौत हो गई | परिस्थिति की गंभीरता को देखते हुए अंग्रेज अधिकारी जगह छोड़कर पीछे हटे और जगह छोड़कर वापस चले गये |
प्रतिपक्ष को चेतावनी देकर मारने की कला में भुमिज योद्धा बहुत ही मशहूर थे | छिपकर या फिर घात लगाकर किसिको मारने के लिए उनमें कोई प्रयास की तत्परता न थी | प्रत्यक्ष समर युद्ध में कूद पड़ने के लिए वे जाने जाते थे | प्रकृति के साथ उनका लगाव, राकृति से युद्ध के औजार तैयार करना, युध कला का अनूखापन, शत्रु को भागने के लिए समय देना , आदि कई अनोखापन भूमि पुत्रों की ख़ासियत रही | सिर्फ़ इतना ही नहीं कभी भी भूमिपुत्र अपने नागरिकों को किसी युद्ध में नहीं उलझाते थे, न ही उन उलझनों से किसी अन्य पक्ष के लिए कोई परेशानी पैदा करते थे | प्रत्यक्ष रूप से उनके रन कौशल का एक ही तरीका रहा: अपने बल पर प्रतिपक्ष से लोहा लेना और मूल भूमि में घुसने से पहले उन्हें रोकना |
किसी महाप्राण की मुक्ति में योग की भूमिका से हम इनकार नहीं कर सकते | कई प्रकार से योग आधारित जीवन से हम सीख भी ले सकते हैं | श्री भगवदगीता में भक्ति योग से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होने की बात कही गई, एक भक्त के गुणों का भी विवरण दिया गया और एक क्रियाशील व्यक्ति को उसका परिचय भी बताया गया | एक भक्त को विश्वास का आधार मिलता है और विश्वास को हृदय का संरक्षण प्राप्त होता रहता है | एक भक्त अपने गुरु और मित्र के सभी बातों और नियामकों को मान्य करते हुए जीवन पथ पर अग्रसर होता रहता है |
भक्ति मार्ग में एक सर्वशक्तिमान को अस्तित्व में सक्रिय मानकर मन में समर्पण की भावना रखते हुए भक्त कर्तव्य किए जाता है और उस सर्व शक्तिमान पर भरोसा रखते हुए आगे की गतिविधियों के लिए खुद को तैयार भी कर लेता है | चर्चा काफ़ी देर तक चल सकती है और इसमें जुड़ने वाले पर्याय भी कई हज़ार हैं, अतः हमें अपने समझदारी के क्षेत्र का निर्माण होने की अवधि तक ठहरना तो होगा ही | आख़िर शब्दों के द्वारा निकलकर आने वाले विचार से अगर किसी आत्मा को खुद के स्तर का पता चल पाने लायक समझ का निर्माण होता हो तो उसे प्रत्यक्ष - प्रमाण और अनुमान प्रमाण का सफल सम्मेलन माना जाएगा | भक्ति का मार्ग किसी समूह या संप्रदाय को कदापि कमजोर नहीं कर सकता. यह तो समूह के सभी शक्तियों तथा उस समूह में व्याप्त विविधताओं को समेटकर समग्र समूह तथा उसके अंतर्गत चलनेवाली प्रक्रियाओं को बल देने वाला ही होगा. इस आशय की पुष्टि अनेकोनेक बार काई घटनाक्रम से हो चुकी है तथा आने वाले समय में भी होती रहेगी |
ब्रह्म विद्या एक ऊच्च विद्या है | यह इंद्रिय ग्राह्य नहीं है, पर इसके कारण ही जीवों की व्याप्ति संभवपर है | क्षुद्रतम कणों में भी ब्रह्म विद्यमान है | विद्व जनों को चेतना की हर परिस्थिति में ही इसका बोध होता रहता है | सभी बंधनों से मुक्त अभ्यासी ही ब्रह्मविद्या प्रीत्यर्थ शाश्वत मार्ग पर चल पड़ता है | उस अविनाशी आत्मा को परमात्मा का दर्शन अनिवार्य ही है | ब्रह्म का स्वरूप उद्घाटन एक यक्ष प्रश्न है | यह एक निरंतर चलनेवाला प्रयास है | आत्मज्ञानी के लिए जठराग्नि ब्रह्म का ही स्वरूप है तथा उस अग्नि में डाला जानेवाला भोजन एक यज्ञ ही है | सर्वतयागी महात्मा सर्वोत्तम यज्ञ करने के धनी होंगे, क्यूंकी उन्होने लोकहितार्थ ज्ञान यज्ञ में आत्माहूती देने का निश्चय कर लिया है | सन्यास लेने वाले सभी महात्मा इसी मार्ग पर चलनेवाले तपस्वी होते हैं जिन्हे ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त करते हुए लोकहितार्थ अवश्य पालनीय का विधान देना है | ब्रह्म ज्ञान प्राप्ति हेतु अभ्यासी अगर निष्ठापूर्वक तथा निरंतर अपने ईष्ट देवता पर ध्यान केंद्रित करता हो वही सरल तथा आत्मज्ञानी तपस्वी ईश्वर तथा ऐश्वरिक शक्ति का सान्निध्य महसूस कर सकता है | जीवात्मा और परमात्मा का सान्निध्य सदैव ही संभव होता हो, पर इसे अनुभव करनेवाला मन तो शुद्ध चेतन स्वरूप ही होगा | ब्रह्म का स्वरूप देव और दानव दोनों में समान रूप से व्याप्त है | इसका सम्यक ज्ञान करते हुए युद्ध भूमि में घायल लंकापति रावण के पास अपने भाई लक्ष्मण को भेजकर मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने रावण से ज्ञान प्राप्त करने के लिए कहते रहे | मृत्यु को प्राप्त करने से पहले कहा गया हर वाक्य उस व्यक्ति का ब्रह्म वाक्य होगा | रावण भी परम ज्ञानी होने के साथ साथ निष्ठापूर्वक महादेव का उपासक था | वह भी ईश्वर प्रेम का धनी परमात्मा का अनुभव करनेवाला तपस्वी था | इसका यथावत सम्मान करने हेतु मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने अपने भाई को साथ में लेकर सत्य प्रीत्यर्थ एक ऐसे स्थान पर जाकर खड़े हो गये जहाँ लंकाधिपती अनुज सहित श्री राम को आसानी से देख सकें | यह घटना ब्रह्म ज्ञान से पुष्ट दो आत्माओं को मिलन को दर्शाता है | इससे यह भी सवाल पैदा हो जाता है कि ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करनेवाला सुर होने के साथ साथ असुर भी हो सकता है | इस सत्य को ध्यान में रखते हुए गुरुजन ब्रह्मज्ञान कराने के पहले प्रित्यार्थी का पात्रता हेतु परीक्षा लेते रहेंगे, तथा पात्रता पुष्ट होने के उपरांत ही उसे ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर पाने हेतु सुगमता के मार्ग बताएँगे |
हम शत्रु से मुक्त एक विश्व व्यवस्था की कल्पान भले ही कर लें, पर वास्तव में शायद ही ऐसा कुछ संदर्भित हो सकेगा| अतः सुर असुर संघर्ध हमेशा चलते ही रहनेवाला है| इसके स्वरुप तथा ढांचे भले ही समय समय पर बदलते रहें| इसका अर्थ है की शत्रु और मित्र के संख्या और समूह में परिवर्तन आ भी सकता है| आज जो लोग मित्रवत रह रहे हैं, उनके बीच किसी कारणवश शत्रुभाव पनप भी सकता है| ऐसी परिस्थिति में हमारे अहिंसक वृत्ति में भी क्या परिवर्तन कांक्षित होगा? क्या हमें भी अपनी भूमिका को दुबारा परखना होगा? सुविधाएँ प्राप्त करने, जिम्मेदारियां निभाने और समयोचित निर्णय ले पाने में हम अगर अपनी कमजोरी दिखा दें तो जाहिर है की शत्रु पक्ष को बल मिलेगा| गहन सन्निविष्ट मित्रगण आपस में सामंजस्यता बनाये रखने के क्रम में अहिंसा का क्या स्वरुप हो सकता है? क्या अहिंसा शत्रुभाव को पूर्णतः सम्माप्त करने में सहायक तत्व है? अनुभव यही कहता है कि विनाशक वृत्ति रखनेवाले शत्रु के सामने हमें भी अपने विचारवंत होने का प्रमाण देना होगा| इतिहास साक्षी है कि सदैव संघर्षरत कोई समूह निरंतर तरक्की नहीं कर पाया है| अतः उस मार्ग पर चल पड़ने में कोई समाधान का दर्शन हो पाना शायद ही संभव हो|
विचार एक ऐसा भी पनपता है कि हम विश्व मानचित्र में खुद को कहाँ तक मर्यादित रखें! क्या हम शत्रु मित्र का भेद बनाकर चलें, या फिर सबका हृदय जीतने के लिए प्रयासरत हों! क्या हमें धर्म और विचार के किसे एक ध्रुव से ज़्यादा सफलता मिलेगी, या फिर सम्मिलित विचारधारा का संकर्षन करते हुए खुद को अग्रज की भूमिका में अवतरित करना होगा ! भूमिका की धूरी तय करते हुए कार्यरत रहने का अब समय आ चुका है | अतः अनतिविलम्ब से हमें उस मंगल कार्य में लगना होगा |
आचार्य कहते हैं, "सत्यम जगत तत्वतः । " जगत में दार्शनिक लोग जिसे कभी कभी असत्य मान लेते हैं वह भी असल में सत्य ही है। भ्रम स्थल में जो ज्यां का अधिस्थान होता है उसे भी आने भारतीय दर्शन में सत्य मन गया। कोई अगर एक रज्जु को देखकर भ्रम वश सर्प कह दे उसे भी तत्वतः सत्य माना जाएगा, भले ही क्षणिक काल के लिए ही क्यों न हो। संसार में होने वाला सब ज्ञान ही यथार्थ ज्ञान है। भले ही किसी किसी स्थान काल और पात्रता के आधार पर इस विषय को तर्क का विषय माना जाए , परन्तु धर्मार्थ मार्ग में तर्क की कोई प्रतिष्ठा है ही नहीं। यही कारण है किहम सत्य को ही सभी सृष्टि और कर्म का आधार मान लें।
"वयं अमृतस्य पुत्राः। " तत्वतः यह सत्य हो सकता है; ज्ञान के अधिस्थान के आधार पर व्यक्ति से व्यक्ति का अंतर तो प्रकृति के गुणों के अधीन है और अभ्यास का भी विषय है। व्यवहार और क्षमता कि दृष्टि से भिन्नता रहने ही वाली है। श्री भागवत में वैष्णव धर्म को ही परम गति का मार्ग बताया गया। परमात्मा को पाने का यह भी एक अन्यतम मार्ग है जिसके पथगामी होकर माया मोह से मुक्त होकर हम अपने ही दिव्य स्वरुप को देख पाते हैं।
समाज में हम अपनी भूमिका तय करते समय ज्ञान और कौशल को ही आधार स्वरुप व्यवहार में लाते हैं और समाज में रिश्ते नाते बनाते रहते हैं। एक धर्मार्थी को ऐसी कृति करते समय सिर्फ इतना धयान रखना होता है कि व्यक्ति सभी बंधनों से निर्लिप्त रहे और समय आने पर श्री हरी धाम कि यात्रा कर आये और माया रहित होकर संसार बंधन से मुक्त हो सके। रघुनाथ जी का चरित्र भी एक तपस्वी राजा का चरित है। श्री भारत भी मिसाल कायम करते हुए निर्लित भाव से ही अयोध्या के नागरिकों को अपनी सेवा देते रहे। इस निर्लिप्तता का एक फल यह मिलता है कि व्यक्ति बड़ी ही सरलता से संसार बंधन को छोड़ पाते यहीं और श्री हरी के चरण का आश्रय ले पाते हैं।
एक गुरु ही हैं जो अपने भक्त को सरलता पूर्वक बैकुंठ का सुख दे सकते हैं और व्यक्ति को देवत्व का दर्शन करने के क्रम में सहायक होते हैं। "प्रयक्षति गुरु प्रीतो वैकुंठम योगी दुर्लभम। " ऐसा कहते हुए श्री सौनक जी गुरु महिमा का प्रतिपादन करते हैं। तन कि शुद्धि के लिए बहुत से साधन हैं , धन को शुद्ध करते के लिए दान आदि कर्म किये जाते हैं; चित्त शुद्धि के लिए ईष्ट चिंतन और उनके आराधना में लगे रहने को ही एकमेव मार्ग है। मन के जरिये ही हमारा कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय नियंत्रित होते रहता है। अतः मन को विषयों से अलग कर पाने से ही मन निर्मल और ईश्वर अनुरागी हो उठता है और हमें एक ऐसे दिव्य लोक कि अनुभूति होने लगती है जिसके आधार पर हम दिव्य स्वरुप वाले श्री हरी कि उपस्थिति और कर्तृत्व महसूस करने लगते हैं। मन को एक प्रेत से तुलना किया गया है और इसी लिए मन को कर्म में लिप्त किये रहने कि बात कही गई। ईष्ट चिताएक बार कर लिए और निरश्त हो गए यह वृत्ति कभी फङाई नहीं हो सकता। चिंतन और मनन का सातत्य उतना ही जरूरी है जितना कि इस चिंतन शुद्धता का।[1]
संतों के जीवन में भी चिंता होती है पर उनकी चिंता का मूल कारण व्यक्तिगत सुख की कामना या फिर किसी लाभ -हानि का कोई विषय नहीं होता ; महात्मा सदा लोक कल्याण को लेकर चिंतित हो जाते हैं और धर्म की रक्षा का मार्ग सुझाते रहते हैं। यह स्वभाव ही एक संत का सहजात वृत्ति है। पाखण्ड धर्माचरण का स्वरुप बताते हुए संत जन कहा करते हैं कि जब किसी धर्माचरण को सिर्फ दिखावे के लिए किया जाता हो तो उसे लोक प्रीत्यर्थ किया जाने वाला धर्माचरण नहीं मान सकते। आधुनिक समाज में ऐसे पाखण्ड से ग्रसित धर्माचरण का वर्चस्व चारों और दिख रहा है। भगवत विरोधी और भागवत विरोधी कृत कर्मों से हमें दूर ही रहना चाहिए। अगर हम भगवत भक्तों कि आलोचना करने लगें तो भी धर्माचरण को कलंक लग जाता है। आधुनिक स्त्थिति में ज्ञान और वैराग्य कि स्थिति जर्जर हो चुकी और लोगों का मन भी इन विधाओं से हैट चूका है। भक्ति ये दो पुत्र, ज्ञान और वैराग्य, मानो आज कि स्थिति में अचेत पड़े हैं और कोई भी समाधान दे पाने के लिए असमर्थ पाए जा रहे हैं। उनकी अचेत अवस्था के कारण ही हमें उनके धर्मार्थ सेवा का फल मिल नहीं आता। क्षणिक अवधि के लिए व्यक्ति के मन में श्मशान वैराग्य भी आता है। श्मशान से बाहर आते ही उनका वो वैराग्य समाप्त हो जाता है। [2] वेदांत के आलोक में परिमित रूपक के निमित्त से उपनिषद् को लिपिबद्ध किया गया। उस उपनिषद् से चुने हुए सीख को संकलित करते हुए महर्षि विद व्यास ने श्री मद्भगवद्गीता का प्रतिपादन किया। इस गीता में सांख्य, योग और वेद का समुचित समन्वय हो सका।
आत्म स्वरुप , सच्चिदानंद और विशुद्ध चैतन्य स्वरुप कि अनुभूति आने कि स्थिति को ही शास्त्र में ज्ञान योग कहा गया। ज्ञान योग के अभ्यासी सृष्टि के रहस्य का उदघाटन करते हुए क्रमशः अपने लिए और अपने समुदाय के लिए मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर लेते हैं। ज्ञान योग के अभ्यासी जनों को इस बात का ज्ञान हो जाता है कि संसार में सभी वस्तु, सभी रिश्ते नाते और सभी सम्पदा अनित्य हैं ; उन अनित्य वस्तुओं से योगियों का ध्यान हट जाता है और उन्हें सृष्टि के रहस्य को समझने में सहायता मिलती है। इसी क्रम में आत्मा के अविनश्वरत्व का भी ज्ञान हो जाता है। उसी अविनश्वर आत्मा और उसका आधार स्वरुप परमात्मा पर मन टिकने लगता है। इस पर्याय में व्यक्ति जीवात्मा और परमात्मा के सही स्वरुप को भी समझ पाता है। ऊर्जा संकर्षण के क्रम में जीवात्मा को परमात्मा के अंश रूप में भी प्रतिभासित होता हुआ दिखेगा। हम उस जीवात्मा और परमात्मा के एकीकृत स्वरुप में भी अपनी समझ बना सकेंगे। यह एक सहजात वृत्ति है जिस पर ज्ञान योगी के मन से हिंसा, द्वेष, क्रोध आदि अवगुण अपने आप ही हट जाता है और उनका मन संतोषी होने के साथ साथ ईश्वर अनुरक्त भी होने लगता है।
हम सिर्फ अपने चारों और एक पगडण्डी बनाकर खुद के शान में व्याख्यान देते हुए आत्म तुष्टि के विज्ञान पर अवलम्बित नहीं रह सकते, ऐसा भी नहीं कर सकते कि हमारे जीवन को समृद्ध करने के लिए विश्व के किसी और कोने से पहल होता हो और हमें उसकी जानकारी ही न मिले, या फिर इंतज़ार ही करते रहें कि कोई पहल हो। अगर हमारे सामने विश्व चराचर को पोषकीय विकास कि धरा में पनपता हुआ हुआ और विक्सित होता हुआ देखना हो तो प्रयत्न करते रहने के बारे में पहल करना होगा, अग्रज भी बनाना ही होगा।
[1]
" एतस्मान
परम
किंचित
मनः
शुद्धिं न विद्यते। " ऐसा कहते हुए ऋषि बताते
हैं सिर्फ ईश्वर चरित का गुणगान करने से मन की शुद्धि पाई जा सकेगी।
[2]
"सत्कर्म
सूचकों
नूनं
ज्ञान
यज्ञो
स्मृतो
बुधैः | ", “इस ज्ञान यजन के आधार पर ही सत्कर्म कि गति प्रबल होती है और लोग समाधान पाने के लिए प्रयत्नशील हो जाते हैं। उस कर्म को ज्ञानाग्नि दग्ध होना चाहिए। तत्व चिंतन से ही देवत्व प्राप्ति कि लालसा उत्पन्न होती है और उसे के प्रीत्यर्थ लोग सत्कर्म में पुनः पुनः लिप्त होने का प्रयास करते हैं। “