सत्य का आधार

प्रत्येक शास्त्र और दार्शनिक विवेचना में सत्य की अपनी एक प्रतिष्ठा है | योग दर्शन में सत्य को विधायक कर्म और ज्ञान मार्ग पर अग्रसर होने के लिए अवश्य पालनीय व्रत का हिस्सा माना गया जिसे अहिंसा के साथ जोड़कर पालन करना होगा | उस सत्य को पूर्ण मानते हुए ही हम ईस्वर के साथ जोड़कर देख सकेंगे ; यहाँ तक कि सत्य को ही ईश्वर मान सकेंगे | यह इंद्रिय जन्य सीमांकन ही है जिसके कारण हम सत्य के प्रत्येक स्वरूप को और उसके अपने निसर्ग में होने और न होने के विषय को सही तरीके से समझ नहीं पाते | अगर हम यह मान लें कि जो  दिखने लगे, जो सुनने में आए और जिसे महसूस किया जा सके उन तत्वों को छोड़ संसार में और कुछ है ही नहीं तो यह हमारी ज्ञान की परिधि को ही दर्शाता है | इस ज्ञान की परिधि का क्रमिक विकास एक नैसर्गिक विधान है जिसके आधार पर व्यक्ति प्रगति करते रहेगा  और अपनी समझ की सीमा को भी परिमार्जित करेगा |

 

विषय प्रवेश

“परम सत्यम धीमहि " ऐसा कहते हुए महर्षि वाल्मीकि श्री हरि , उनका धाम और उनकी कृतियों को सत्य मान लेने के लिए सबको प्रोत्साहित करते रहे; उस परम सत्य के धनी  योगी महात्मा  भी सत्य हैं और उनकी संगत को ही सत्संग माना गया। 

आचार्य कहते हैं, "सत्यम जगत तत्वतः।" जगत में  दार्शनिक लोग जिसे कभी कभी असत्य मान लेते हैं वह भी असल में सत्य ही है।  भ्रम स्थल में जोज्ञान” का अधिष्ठान होता है उसे भी अपने भारतीय दर्शन और विधान चिंतन में सब प्रकार से सत्य मान लिया गया | कोई काठ के बने खंभे को देखकर यह भी कह सकता कि वह लकड़ी का है, या खंभे में लकड़ी है, या सिर्फ़ लकड़ी ही है; और कोई दिव्य दर्शी विज्ञान मनस्क व्यक्ति यह भी कह सकेगा कि खंभे में कार्बन, हाइड्रोजन, ओक्सीजन और नाइट्रोजन है | इनमें से कोई भी ग़लत नहीं कह रहा: सबके देखने का नज़रिया और ज्ञान की परिधि विषयक भिन्नता और समझ ज़रूर परिलक्षित हो रही है |  भारतीय दर्शन में सत्य को व्रत के जैसा अनुपालनीय माना गया |  कोई अगर एक रज्जु को देखकर भ्रम वश सर्प कह दे, उसे भी तत्वतः सत्य माना जाएगा, भले ही क्षणिक काल के लिए ही क्यों हो। 

संसार में होने वाला सब ज्ञान ही यथार्थ ज्ञान है। भले ही किसी किसी स्थान काल और पात्रता के आधार पर   इस विषय को तर्क का विषय माना जाए , परन्तु धर्मार्थ मार्ग में तर्क की कोई प्रतिष्ठा है ही नहीं।  यही कारण है कि सत्य को ही सभी सृष्टि और विधायक कर्म का आधार मानते हुए अपने अपने समझ की सीमा की रचना , परिमार्जन और परिवर्धन करते रहते हैं |  

"वयं अमृतस्य पुत्राः। " तत्वतः यह सत्य हो सकता है पर ज्ञान के अधिष्ठान और परिमार्जन के आधार पर   व्यक्ति से व्यक्ति का अंतर तो प्रकृति   के गुणों के अधीन है, और अभ्यास का भी विषय है।  यह मान लेना ही समीचीन होगा कि व्यवहार और क्षमता कि दृष्टि से भिन्नता रहने ही वाली है।  श्री भागवत में वैष्णव धर्म को ही परम गति का मार्ग बताया गया।  परमात्मा को पाने का यह भी एक अन्यतम मार्ग है जिसके पथगामी होकर और कुछ हद तक माया मोह से मुक्त होकर हम अपने ही दिव्य स्वरुप को देख पाते हैं।  कभी नारद मुनि को भी अपने विद्वान होने के विषय को लेकर अभिमान और अहंकार हो गया था| इस अभिमान के वशीभूत होकर महादेव के पास काम कथा सुनाने लगे,  जैसे महादेव को कुछ आता ही हो ! भोलेनाथ नारद मुनि की कथा सुन लेने के बाद उन्हें ऐसी कथा और कहीं कहने का परामर्श दिया | नारद मुनि को लगा अब महादेव को भी ईर्ष्या होने लगी | मुनि बोले, "वैसे तो कहीं यह कथा नहीं सुनाई जाती पर अगर प्रसंग निकले तो श्री हरि के दरबार में ज़रूर सुनाया जा सकेगा |"

महादेव का यह भी निवेदन था कि वहाँ श्री हरि के दरबार में भी यह कथा सुनाई जाए | इस क्रम में जब नारद मुनि के मन में विवाह करने की अभिलाषा प्रकट होने लगी और श्री हरि को इस विषय का भान हुआ तो मुनि का बचाव  करने के उद्देश्य से श्री हरि ने मुनि को अपना रूप देते हुए उन्हें एक बंदर के जैसा कुरूप दे दिया | इस विषय से यह प्रतीत हो रहा है कि ईश्वर अपने भक्तों की रक्षा करने के लिए, भक्तों को सही प्रकार से दिशा निर्देशित करने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं |

 

कर्तव्य बुद्धि और तत्व चिंतन

समाज में हम अपनी भूमिका तय करते समय ज्ञान और कौशल को ही आधार स्वरुप व्यवहार में लाते हैं और समाज में रिश्ते नाते बनाते रहते हैं।  एक धर्मार्थी को ऐसी कृति करते समय सिर्फ इतना धयान रखना होता है कि व्यक्ति सभी बंधनों से निर्लिप्त रहे और समय आने पर श्री हरि धाम कि यात्रा कर आये और माया रहित होकर संसार बंधन से मुक्त हो सके।   

रघुनाथ जी का चरित्र भी एक तपस्वी राजा का चरित है। श्री भरत भी मिसाल कायम करते हुए निर्लिप्त भाव से ही अयोध्या के नागरिकों को अपनी सेवा देते रहे।  इस निर्लिप्तता का एक फल यह मिलता है कि व्यक्ति बड़ी ही सरलता से संसार बंधन को छोड़ पाते और श्री हरि के चरण का आश्रय ले पाते हैं।

एक गुरु ही हैं जो अपने   भक्त को सरलता पूर्वक   बैकुंठ का सुख दे सकते हैं और व्यक्ति को देवत्व का दर्शन करने के क्रम में सहायक होते हैं।  "प्रयक्षति गुरु प्रीतो वैकुंठम योगी दुर्लभम। " ऐसा कहते हुए श्री सौनक जी गुरु महिमा का प्रतिपादन  करते हैं।  तन कि शुद्धि के लिए बहुत से साधन हैं , धन को शुद्ध करते के लिए दान आदि कर्म किये जाते हैं; चित्त शुद्धि के लिए ईष्ट चिंतन और उनके आराधना में लगे रहने को ही एकमेव मार्ग माना गया ।  मन के जरिये ही हमारा कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय नियंत्रित होते रहता है।  अतः मन को विषयों से अलग कर पाने से ही मन निर्मल और ईश्वर अनुरागी हो उठता है और हमें एक ऐसे दिव्य लोक कि अनुभूति होने लगती है जिसके आधार पर हम दिव्य स्वरुप वाले श्री हरि कि उपस्थिति और कर्तृत्व महसूस करने लगते हैं।

मन को एक प्रेत से तुलना किया गया है और इसी कारण से मन को कर्म में लिप्त किये रहने कि बात कही गई।  ईष्ट चिंता, सर्वशक्तिमान की आराधना और भजन पूजन एक बार कर लिए और निश्चिंत हो गए यह वृत्ति कभी फल देने लायक या यश कीर्ति के लिए विधायक नहीं हो सकता।  चिंतन और मनन का सातत्य उतना ही जरूरी है जितना कि इस चिंतन शुद्धता की अहमियत ।

" एतस्मान परम किंचित मनः शुद्धिं  विद्यते।  "  ऐसा कहते हुए ऋषि बताते  हैं  सिर्फ ईश्वर चरित का गुणगान करने से मन की शुद्धि पाई जा सकेगी। 

संतों के जीवन में भी चिंता होती है, पर उनकी चिंता का मूल कारण व्यक्तिगत सुख की कामना या फिर किसी लाभ -हानि का कोई विषय नहीं होता ; महात्मा सदा  लोक कल्याण को लेकर चिंतित हो जाते हैं और धर्म की रक्षा का मार्ग सुझाते रहते हैं।  यह स्वभाव ही एक संत का सहजात वृत्ति है।   पाखण्ड   धर्माचरण का स्वरुप बताते हुए संत जन  कहा करते हैं कि जब किसी धर्माचरण को सिर्फ दिखावे के लिए किया जाता हो तो उसे लोक प्रीत्यर्थ किया जाने वाला धर्माचरण नहीं मान सकते।  आधुनिक समाज में ऐसे पाखण्ड से ग्रसित धर्माचरण का वर्चस्व चारों और दिख रहा है। 

भगवत विरोधी और भागवत विरोधी कृत कर्मों से हमें दूर ही रहना चाहिए।  अगर हम भगवत भक्तों कि आलोचना करने लगें तो भी धर्माचरण को कलंक लग जाता है।  आधुनिक परिमंडल में, जैसा कि सन्दर्भ में व्याप्त विधायक कर्म और उन कर्मकांडों में लगे विद्वजनों की अनुक्रिया से प्रतीत होता हो, ज्ञान और वैराग्य कि स्थिति जर्जर हो चुकी और लोगों का मन भी इन विधाओं से हट चूका है।  भक्ति के दो पुत्र, “ज्ञान” औरवैराग्य”, मानो आज कि स्थिति में अचेत पड़े हैं और कोई भी समाधान दे पाने के लिए असमर्थ पाए जा रहे हैं। उनकी अचेत अवस्था के कारण ही हमें उनके धर्मार्थ सेवा का फल मिल नहीं पाता। क्षणिक अवधि के लिए व्यक्ति के मन में श्मशान वैराग्य भी आता है।  श्मशान से बाहर   आते   ही उनका वो वैराग्य समाप्त हो जाता है।   

"सत्कर्म सूचकों नूनं ज्ञान यज्ञो स्मृतो बुधैः  | "

इस ज्ञान यज्ञ के आधार पर ही सत्कर्म कि गति प्रबल   होती है और लोग समाधान पाने के लिए प्रयत्नशील हो जाते हैं।  उस कर्म को ज्ञानाग्नि दग्ध होना चाहिए।  तत्व चिंतन से ही देवत्व प्राप्ति कि लालसा उत्पन्न होती है और उसके प्रीत्यर्थ लोग सत्कर्म में पुनः पुनः लिप्त होने का प्रयास करते हैं। 

वेदांत के आलोक में परिमित रूपक के निमित्त से उपनिषद् को लिपिबद्ध किया गया।  उस उपनिषद् से चुने हुए सीख को संकलित करते हुए महर्षि वेदव्यास नेश्रीमद्भगवद्गीता” का प्रतिपादन   किया।  इस गीता में सांख्य, योग और वेद - वेदांत के विचार, मत और पंथों का सफलतापूर्वक  और समुचित समन्वय हो सका। हर शाश्त्र में सत्कर्म कि महत्ता का विवरण दर्ज है।   

आत्म स्वरुप , सच्चिदानंद और विशुद्ध चैतन्य स्वरुप कि अनुभूति आने कि स्थिति को ही शास्त्र मेंज्ञान योग” कहा गया।  ज्ञान योग के अभ्यासी क्रमशः सृष्टि के रहस्य का उदघाटन करते हुए क्रमशः अपने लिए और अपने समुदाय के लिए मुक्ति का मार्ग प्रशस्त   कर लेते   हैं।  ज्ञान योग के अभ्यासी जनों को इस बात का ज्ञान हो जाता है कि संसार में सभी वस्तु, सभी रिश्ते नाते और सभी सम्पदा अनित्य हैं ; उन अनित्य वस्तुओं से योगियों का ध्यान हट जाता है और उन्हें सृष्टि के रहस्य को समझने में सहायता मिलती है।  इसी क्रम में आत्मा के अविनश्वरत्व का भी ज्ञान हो जाता है।  उसी अविनश्वर आत्मा और उसका आधार स्वरुप परमात्मा पर मन टिकने लगता है।  इस पर्याय में व्यक्ति जीवात्मा और परमात्मा के सही स्वरुप को भी समझ पाता है।  ऊर्जा संकर्षण के क्रम में जीवात्मा को परमात्मा के अंश रूप में भी प्रतिभासित होता हुआ दिखेगा।  हम उस जीवात्मा और परमात्मा के एकीकृत स्वरुप के बारे में भी अपनी समझ बना सकेंगे।   

यह एक सहजात वृत्ति है जिसके बल पर ज्ञान योगी के मन से हिंसा, द्वेष, क्रोध आदि अवगुण अपने आप ही हट जाता है और उनका मन संतोषी होने के साथ साथ ईश्वर अनुरक्त भी होने लगता है। सिर्फ़ ज्ञान अन्वेषण से ज्ञान योग का विषय प्रतिपादित नहीं किया जाता | ज्ञान के साथ जब निष्ठा जुड़ जाती है तब उसे ज्ञानयोग मान सकेंगे |

अब एक और विषय हम समझने का प्रयास करेंगे कि कौन सी परिस्थिति में हमारे मन में ब्रह्म जिज्ञासा उत्पन्न होता होगा? ऐसी कौन सी परिस्थिति होती होगी जब एक भक्त का मन ईश्वर के प्रति अनुरक्त होता होगा? क्या हर व्यक्ति के मन में ब्रह्म जिज्ञासा पनपता होगा?

प्राचीन भारत में एक ऐसे संत हमारे बीच आए जिन्हें इस ब्रह्म जिज्ञासा का विषय और संबंधित तत्वों पर काफ़ी सघनता से कार्य करते हुए देखा गया | यह भी माना गया कि उस आदि गुरु ने ही  गीता को उसके मौजूदा स्वरूप में उद्घाटित करते हुए भाष्य भी प्रस्तुत कर गये | महवाक्यों के ज़रिए व्यक्ति को उस विधायक कर्म और ज्ञान अन्वेषण की ओर दिशा निर्देशित करते रहे जिसके लिए उसका जन्म हुआ है |

चार प्रचलित ब्रह्म वाक्य निम्न रूप से हैं:

1.       अयमात्मा

2.       सर्वं खल्विदं ब्रह्म

3.       तत्वमसि

4.       अहम् ब्रह्मास्मि

गुरु मुख से इन ब्रह्म वाक्यों का श्रवण, मनन और चिंतन का विषय ही ज्ञानाग्नि दग्ध ब्रह्म जिज्ञासा का विषय है।

सत्य ही ईश्वर है !

सत्य को एक और पड़ाव और एक आधुनिक विधान मिला जिसके आधार पर हम सत्य को ईश्वर का स्वरूप मान सकेंगे | सत्य भी पूर्ण है, ईश्वर भी पूर्ण है ; सत्य और ईश्वर दोनों तर्क और संदेह की सीमा से परे एक सर्व जान विदित विधायक अनुक्रिया का हिस्सा है | यह तो हमारी ही कमज़ोरी समझनी चाहिए कि हम इंद्रिय की सीमा से चेतना को सीमित रख लेते हैं और उसके बाहर आकर कुछ भी ठोस निर्णय नहीं ले पाते कि क्या सत्य और क्या असत्य हो सकता है ; अपितु हम ईश्वर के सर्व व्यापक स्वरूप को भी उसके सही स्वरूप में समझ पाने में विलंब कर देते, कभी कभी समझ भी नहीं पाते |

इंद्रिय की सीमा से अगर ज्ञान को भी सीमंकित कर लिया जाए या फिर ज्ञान के सीमंकित होते रहने के विषय को समझ लिया जाए तब तो हर प्रकार से पूर्ण ज्ञान का अधिकारी कोई जीव हो ही नहीं सकता | जिसे हम देख नहीं पाते, जिसे महसूस नहीं कर पाते और जिसे सुन नहीं पाते उसके निसर्ग में नहीं होने को ही हम सत्य मान लेंगे; वस्तुतः ऐसे कई तत्व अपने परिमंडल में व्याप्त भी हैं और सक्रिय भी | प्रकाश को हम नहीं देख पाते और सूर्य की ओर देख पाने की शक्ति हमें मिली नहीं |  विषय चिंता से हटकर तत्व चिंता को आधार मान लेने के बाद यह भी प्रतीत होता होगा कि हमने काफ़ी कुछ हासिल कर लिया ; ऐसा भी शायद सीमंकित ही समझना होगा |

कुछ ऐसी ही परिस्थिति एक देवस्थान में निर्मित हो गई थी: वहाँ के नित्य पूजा  करने वाले पुजारीजी  परंपरागत मंत्र उच्चारण करके विधि विधान से पूजा अर्चना नहीं करते थे | देवी माँ को इस भाँति भोग चढ़ाते थे जैसे कोई अपनी माँ को भोजन परोस रहा हो; कभी कभी जूठा भी खिला देते | लोगों को लगने लगा कि शायद पुजारीजी को परंपरागत पूजा का विधान आता ही न हो ! जाहिर सी बात है कई विशारद, तत्व चिंतक और शास्त्री वहाँ आ गये और पुजारीजी से शास्त्र विषयक चर्चा करने लगे | सबको शांत करते हुए पुजारीजी का यह कहना था कि , "एकबार नमक का पुतला सागर नापने गया और बीच रास्ते में ही पिघल गया ; उसकी घर वापसी न हो सकी !"

सभी आगंतुकों, वेद विशारदों और तत्व चिंतकों को यह लगने लगा कि जो वेदांत का सार इतनी सरलता से बता सकता उसे शास्त्र का ज्ञान नहीं है ऐसा भी कह पाना कठिन है; अपितु उन शास्त्र और तत्व चिंतकों को तो यही लगने लगा कि आगंतुकों ज्ञान ही सीमित है और कभी भी उस परिस्थिति का सामना करने के लिए शायद ही पर्याप्त हो जिस परिस्थिति में पुजारीजी कोई कठिन सवाल पूछ बैठें | ऐसा हुआ भी, पुजारीजी का कहना था कि अपनी माँ को कुछ भी खिलाने के पहले यह भी देख लेना ज़रूरी हो जाता है कि कहीं उस भोजन में जहर तो नहीं मिला दिया गया होगा, या फिर खाना सड़ गया हो, यो फिर स्वादिष्ट न हो !  जिस दिव्य दृष्टि से पुजारीजी मृण्मयी को चिन्मयी और जगदंबा के रूप में देख पा रहे थे उस दृष्टि से अन्य जनों का अभिषेक तब तक नहीं हो पाने का ही नतीजा था कि लोगों को पुजारीजी का काम कुछ अटपटा लग रहा था |

वस्तुतः इतना ही कहा जा सकेगा कि हमारी जैसी समझ बन पाती है और जिस विधायक कर्म को ज्ञान और चैतन्य का आश्रय मिल पाता है उसके आधार पर ही व्यक्ति को यश और कीर्ति का परिमंडल मिल सकेगा और उसी आधार पर वैसे व्यक्ति को विधायक कर्म से जुड़ता हुआ देखा जा सकेगा |

 

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पूरा पता:

चंदन सुकुमार सेनगुप्ता

अरविंद नगर, बांकुड़ा

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ई-मेल : [senjics@gmail.com]

 

 

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