प्रारंभिक साधक के लिए योग
के साधनों का विवरण देते
हुए महर्षि पतंजलि द्वारा साधन पाद को रचा गया
| साधन के ज़रिए ही
व्यक्ति का योग मार्ग
प्रशस्त होता रहता है | इस अध्याय में
क्रिया योग का फल , उस
क्रियायोग के अभ्यास के
मार्ग में आनेवाली बढ़ाएँ और उन बाधाओं
को पार करके आगे बढ़ने का उपाय बताया
गया है | योग
के आठ अंगों का
विवरण देते हुए क्रिया योग के अभ्यासी खुद
को अविद्या से मुक्त करते हुए
और प्राणायाम का अभ्यास करते
हुए प्रत्याहार की स्थिति तक
खुद को उन्नीत कर
सकेंगे |
विभूति पाद में योग
साधनों के श्रद्धापूर्वक किये
गए अनुष्ठान से प्राप्त होने
वाली विविध प्रकार की सिद्धियों अर्थात
विभूतियों का वर्णन मुख्य
रूप से किया गया
है | इस
अध्याय में में
धारणा,ध्यान एवं समाधि संयम त्रय के लक्षण तथा
उनका शास्त्रीय पारिभाषिक खूबियाँ, उनकी सिद्धि का फल तथा
विभिन्न स्तरों में विनियोग,मोक्ष प्राप्ति में सभी सिद्धियाँ या विभूतियाँ बाधक
हैं इस बात की
समुष्टि भी किया गया
है | संयम
के अनुष्ठान से विविध ऐश्वर्य
की प्राप्ति, विवेक से उत्पन्न ज्ञान
की उत्पत्ति एवं उसका परिणाम आदि मुद्दों पर विस्तार पूर्वक
आलोकपात किया गया है | क्रिया योग से संबंधित सभी
तत्वों और अभ्यास क्रियाओं
पर साधन पाद में (तालिका १ देखें ) कुशलतापूर्वक
प्रकाश डाला गया | इस क्रम में
महर्षि यह भी प्रतिपादित
करते हैं कि क्रिया योग
के ज़रिए ही व्यक्ति खुद
को संयम के मार्ग पर
भली भाँति स्थापित करते हुए खुद को उन्नीत कर
सकेगा | महर्षि इस बात की
भी पुष्टि करते हैं कि क्लेश ही मूल हैं
उस कर्माशय के जो दिखने
वाले अर्थ वर्तमान, तथा न दिखने वाले अर्थ भविष्य में होने वाले जन्मों का कारण हैं
|
अष्टांग
योग के अनुष्ठान से
अशुद्धि का क्षय तथा
विवेक ख्याति पर्यन्त प्रकाश होता है | यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि, यह योग के आठ अंग
हैं | दूसरे को मन, वाणी,
कर्म से दुख न
देना, सत्य बोलना, ब्रह्मचर्य, तथा संचय वृत्ति का त्याग, यह
पाँच यम कहे जाते
हैं | ये यम जाति, देश,
काल तथा समय की सीमा से
अछूते, सभी अवस्थाओं में पालनीय, महाव्रत हैं | शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर प्रणिधान, यह नियम हैं
|
तालिका
१ : क्रियायोग और संबंधित विषय
|
|
क्रिया
योग |
तप,
स्वाध्याय, और ईश्वर प्रणिधान योग का
अभ्यास समाधि प्राप्ति की भावना से, वित्त में विद्यमान क्लेशों को क्षीण करने के लिए है; पंच
क्लेश, शक्ति के प्रति प्रसव क्रम द्वारा त्यागे जाने योग्य हैं | क्रिया योग का अभ्यास समाधि प्राप्ति की भावना से, वित्त में विद्यमान क्लेशों को क्षीण करने के लिए है | |
क्लेश |
अविद्या
अस्मिता राग द्वेष अभिनिवेश; यह
चारों क्लेश अविद्या को जन्म देनेवाले क्षेत्र स्वरूप भी हैं | |
अविद्या |
अनित्यत्व
अपवित्र दुख, अनात्म में क्रमशः नित्यत्व, पवित्रता, सुख तथा आत्मभाव की बुद्धि |
अस्मिता |
देखने
वाली शक्ति तथा देखने का माध्यम चित्त शक्ति दोनों की एकात्मता |
राग |
सुख
भोगने पर, उसे फिर से भोगने की इच्छा बनी रहती है; |
द्वेष |
दुख
भोगने पर, उससे बचने की इच्छा |
अभिनिवेश |
स्वभाव
से प्रवाहित होने वाला, सामान्य जीवों की भाँति ही विद्वानों को भी लपेट लेने वाला; |
|
|
ताल्लिक़ा
२: दुःख का कारण और उसकी व्याप्ति
दुःख का उद्भव और उसका
परिणाम |
क्लेशों
के अधीन व्यक्ति कर्माशय का फल भोगते हुए दुःख में डूबा रहता है | परिणाम दुःख ,
ताप दुःख तथा संस्कार दुःख बना ही रहता है, तथा गुणों की वृत्तियों के परस्पर विरोधी
होने के कारण, सुख भी दुःख ही है, ऐसा विद्वान जन समझते हैं त्यागने योग्य है वह दुःख जो अभी आया नहीं है | सुख
दुःख रूपी फल भी पुण्य और अपुण्य को जन्म
देनेवाला होता है | |
दुख
का मूल कारण |
दुख
का मूल कारण, द्रष्टा का दृश्य में संयोग होना और परिस्थितियों में उलझ जाना
है | अब प्रश्न यह उठता है कि दृश्य क्या है | प्रकाश सत्व , स्थिति अर्थ
तम् तथा क्रियाशील अर्थ रज् , पंचभूत तथा इन्द्रियाँ अंग हैं जिसके भोग करने के लिए
व्यक्ति स्वतंत्र है तथा मोक्ष देना जिसका
प्रयोजन है, वह दृश्य है | |
अविद्या |
दृश्य
के संयोग का इंद्रिय, बुद्धि और चेतना से उलझने
का कारण अविद्या है | |
द्रष्टा |
गुणों
के चार परिणाम हैं, विशेष अर्थ पाँच महाभूत (आकाश, वायु,अग्नि, जल तथा पृथ्वी), अविशेष
अर्थ प्रकृति की सूक्ष्म तन्मात्राएँ (शब्द, स्पर्ष,रूप, रस और गंध) तथा छठा अहंकार; लिंग (अर्थ प्रकृति में बीजरूप), अलिंग (अर्थ
अप्रकट देखने वाला), द्रष्टा (अर्थ आत्मा), देखने की शक्ति मात्र है| इस कारण से
यह द्रष्टा शुद्ध भी है और वृत्तियों के देखने वाला भी है | |
कैवल्य
मुक्ति |
यह
भी प्रतिपादित किया जा सकता है कि अविद्या के अभाव से, संयोग का भी अभाव हो जाता
है, यही वह भान है जिसे कैवल्य मुक्ति कहा जाता है | |
मुक्ति और सिद्धि को प्रात हो जानेवाले
साधक के लिए दृश्य समाप्त होकर भी, अन्य साधारण जीवों के लिए तो वैसा ही बना रहता है
| दृश्य के स्वरूप का कारण क्या है? उसके स्वामी (अर्थ दृष्टा) की शक्ति विवेक (अर्थ
दृश्य) तथा दृष्टा की भिन्नता का निश्चित ज्ञान, हानि का उपाय है |