कर्म संन्यास

 

ज्ञान और भक्ति का सही सम्मलेन ही वह पड़ाव है जहाँ से कर्म को एक सही दिशा मिल जाया करेगी और व्यक्ति अपने लिए एक निर्णायक मार्ग कि तलाशी कर सकेगा ; उसे अंतरात्मा के साथ जुड़े हुए परमात्मा का सान्निध्य भी अनुभव होता रहेगा।

कभी कभी हम इस भ्रम में आ जाते हैं जब मन में यह विचार पनपने लगता है कि धर्मात्मा और महात्मा बनने के लिए शायद सबकुछ छोड़कर सभी विधायक कर्मों का त्याग करके तपस्या करते रहना पड़ेगा ; शायद दिन और रात के बारे में भी जानकारी न मिल पाएगी; शायद सभी रिश्ते नातों का त्याग कर देना होगा; ऐसा भी हो सकता कि किसी एकांत में जाकर समाज से हटकर उपायाचक के नाते जीवन जीने के लिए प्रस्तुत होना पड़े।  ऐसे संत महात्मा जरूर हुए जिन्होंने भोग्य वस्तु का त्याग करके ज्ञान मार्ग पर चलकर भक्त वत्सल के लिए मिसाल कायम कर गए। पर ऐसा शायद ही हुआ होगा जिसमें किसी तपस्वी साधक ने भोजन, श्वास वायु और शौच संतोष का त्याग किया हो ; जीवन जीने के प्रयत्न के अंतर्गत हर जीव को भोजन, श्वास वायु, शौच , संतोष आदि का सहारा तो लेना ही होगा।  यहीं से जीव मात्र के लिए यह अनिवार्य बन जाता है कि उन्हें प्रकृति के अधीन रहना पड़े और प्रकृति के कुछ नियमों का पालन करे।  साधना कितनी भी गहन हो बीच में नींद आने लगे तो फिर तपस्या को विराम देना ही होगा।

 तपस्या, ध्यान, प्राण वायु का नियंत्रण, कर्म कि शुद्धता आदि विषयों के बारे में हम कुछ भी अतिशयोक्ति करते समय इतना तो ध्यान अवश्य रखें कि हमें उस सर्व शक्तिमान के अनुकम्पा के अधीन ही जीवन जीना होगा; उसी विधायक कर्म को भी अपनाना होगा जिसके बल पर हमारे जीवन का रथ गतिशील हो सके; उन्हीं लोगों के बीच रहना होगा जिनके बीच हमारे मन को संतोष मिले; उन्हीं लोगों के लिए काम करना होगा जिनसे हमें कुछ उम्मीदें रही हो; उसी तत्व का संरक्षण और सम्प्रचार करना होगा जिसके जरिये हम सार्विक समाधान और समन्वय का सपना देखा करते हों; उन्ही तत्वों को प्रतिफलित होते हुए देखना होगा जिनके बीच दिव्य जीवन कि स्वच्छंद गति सुनिश्चित हो सके। 

तीन प्रकार के लोग अपने चारों और तपस्या और इष्ट चिंतन करते हुआ पाए जा सकेंगे: कुछ ऐसे लोग रहेंगे जिन्हें धन - सम्पदा और पैसा चाहिए, कुछ ऐसे भी लोग रहेंगे जिन्हें पैसों से ज्यादा चिंता प्रतिष्ठा पाने कि रहेगी; तीसरे कुछ ऐसे प्रकार रहेंगे जिन्हें न तो पैसा चाहिए और न ही प्रतिष्ठा, उन्हें सिर्फ उस दिव्य ज्ञान का अनुसंधान करने कि अभिलाषा रहेगी जिसके आधार पर व्यक्ति के लिए मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो सके।  वह एक ऐसे मार्ग का पथिक होना चाहेगा जिसपर चलकर जन्म-मृत्यु के द्वन्द से खुद को मुक्त किया जा सके। 

आध्यात्मिक परिपक्वता

पहले  पहल  तो एक ऐसी परिस्थिति बनती है जब हम खुद को किसी भी कृति का कर्ता मान लेते हैं और उसी भ्रम जीवन बिता देते हैं कि हमने कुछ किया; कुछ ऐसी कृति जिसका श्रेय हम चाहते हैं कि हमें मिले।  फिर एक ऐसा पड़ाव आता जब हमारी समझ बनती है कि सृष्टि और विनाश तो प्रकृति के नियमों के अधीन एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है और इसमें पदार्थ और ऊर्जा का आपसी मेल बंधन का विज्ञान क्रियाशील निकाय बना; यह भी एक भवितव्य ही है है कि हर जीव के जीवन में मृत्यु का अनुशाशन कभी भी आ सकता।  एक पड़ाव ऐसा भी आता है जब व्यक्ति जीवन को काफी मूल्यवान मानते हुए सभी अल्पावधि के सुखों को छोड़कर उस आनंदमय जीवन का पथिक बन जाना पसंद करेगा जिसपर चलकर आत्मा और अरमात्मा के रिश्तों को उनके सही स्वरुप में उपलब्धि किया जा सके और जीव के लिए सम्यक ज्ञान के आधार पर कर्म बंधन से मुक्ति का मार्ग प्रशांत किया जा सके। 

शास्त्र, पुराण, आगम , निगम आदि सभी दिव्य ग्रंथों और संत वाणी का एक ही मकसद रहा कि भक्त को कर्म के बंधन से और माया के संसार से मुक्त किया जा सके; उस मुक्ति के मार्ग पर सबका सम्यक अभिषेक हो सके; यह कुछ ऐसा ही हुआ कि किसी बगीचे में जाकर एक फल खाने के बाद संत सभी भक्तों को बताने लगे और यही आग्रह करते रहे कि बाकी के भक्त वत्सल भी उस बगीचे में दाखिल होकर उस फल का आस्वाद लें और जीवन को धन्य कर लें; यह कुछ ऐसा ही अनुभव मन जाएगा जैसे एक परिंदा ऊंची उड़ान भरते हुए नीले आसमान में गोते लगाता हो; जैसे एक भक्त प्रेम पूर्वक अपने भगवान को भोजन कराता हो और बाकी भक्तों से निवेदन करता हो कि वो भी ऐसा ही करें। इस प्रकार दिव्य जीवन का अनुसंधान करनेवाल साधक कभी भी अकेले मुक्त हो जाने के लिए तपस्या शायद ही करता हो।  उसे समग्र समाज को मुक्त करने कि चिंता सताया करेगी; उसे ऐसा भी लगेगा कि किसी भी भक्त के जीवन में संकट ही न रहे; भक्त वत्सल को ईश्वर अनुकम्पा मिले। यह कुछ ऐसी ही परिस्थिति बन जाया  करेगी जिसके अंतर्गत भक्त प्रह्लाद अपने प्रपंचक पिता के लिए इष्ट के पास क्षमा याचना करते रहे; नचिकेता विधाता से यह निवेदन करते रहे कि उनके पिता को यश और प्रतिष्ठा मिले ; शत्रु भाव नष्ट हो जाने के और भी कई प्रमाण गिनाये जा सकेंगे जिसके बल पर इतना तो अवश्य कहा जा सकेगा कि दिव्य जीवन कि अनुसन्धित्सा रखनेवालों के मन से शत्रुभाव नष्ट हो जाता होगा।  इसके अभ्यासी ही और सटीक तरीके से बता सकेंगे कि उनके मन, चित्त और बुद्धि पर क्या बीत रही होगी जब उन्हें यह तय कर लेना होता है कि ध्रुव सत्य के अनुसंधान में ही जीवन बिताना होगा।  भगवद्गीता में भी कर्म संन्यास और कर्मयोग के बीच हर प्रकार के समानता के बारे में बताई जाती है और यह भी माना गया कि सभी प्रकार के द्वन्द से मुक्त होते होते व्यक्ति माया के बंधनों से मुक्त हो जाया करेगा। केवल अल्पज्ञानी जन इस भ्रम में जकड़े रह जाते हैं कि कर्मयोग और कर्म संन्यास शायद कुछ अलग  अलग विधाएँ हैं।   ( V. १-४ )  

वास्तव में कर्मयोग और कर्म संन्यास को एक सामान ही देखा जाना चाहिए।  भक्ति के साथ कर्म किये बिना उस परिपक्वता को पाना भी संभव ही नहीं।  सभी इन्द्रियों को भली भाँती वश में रखते हुए बुद्धि का प्रयोग करते हुए कर्म करनेवालों को सहजता से ही कर्म बंधन से मुक्ति मिल जाय करेगी; दृढ निश्चय रखनेवाले खुद को कर्ता न मानते हुए कर्म करते रहेंगे;  कर्मफल इष्ट को अर्पित करदेनेवालों को पाप कभी भी ग्रसित नहीं कर सकता; योगीजन के लिए कर्म का प्रयोजन सिर्फ आत्म शुद्धि पाने से है; आसक्ति रहित होकर कर्म करते रहने के कारण भी योगी जन कर्म बंधन से खुद को मुक्त रखने में समर्थ हो जाया करेंगे; निरासक्त व्यक्ति शरीर में रहते हुए भी सभी रकार के कर्मबन्धन से मुक्त रहेंगे (भगवद्गीता V.  ५-१२) ।  कर्म फलों के बोध का पनपना प्रकृति के अधीन है; सर्वव्यापी परमात्मा भी पाप-पुण्य के कर्मों से निर्लिप्त ही रहेंगे ; मोहान्ध भक्तों की बुद्धि भी अज्ञान से आच्छादित रहेगी ; ज्ञान तो उस सूर्यप्रभा के सामान ही है जिसकी किरणों से संसार प्रकाशमान और व्यक्त हो उठता है; वह ज्ञान का प्रकाश ही है जिसके प्रभाव से सभी प्रकार के पा कर्मों का नाश हो जाया करेगा, इष्ट के प्रति श्रद्धा  और विशवास बढ़ेगा, विधायक कर्मों में लिप्त रहते हुए मुक्ति पाने के मार्ग पर बढ़ाते रहेंगे  (भगवद्गीता V.  १३ -१६) ।

बुद्धि, समझ, श्रद्धा, विशवास और संतोष को किसी भी साधक के जीवन में तभी स्थिर होता हुआ देखा जा सकेगा जब उनके जीवन में  हम दिव्य ज्ञान का उत्सर्जन होता हुआ परिलल्क्षित कर सकें। यह एक ऐसी परिस्थित है जहाँ व्यक्ति सभी नाशवान तत्वों से खुद को मुक्त करते हुए दिव्यज्ञान का साधक बने और ध्रुव सत्य का अनुसंधान करता रहे।   

कभी कभी यह भी दावे किये जाते रहे हैं कि दिव्य जीवन और ध्रुव सत्य का अनुसंधान करनेवालों कि गतिविधि से कर्म विमुखता ही पनपेगी और व्यक्ति कर्तव्य कर्म से भाग खड़े होने के लिए मार्ग निकालने लगेंगे; ऐसे कई साधक बनेंगे जो यह कहकर कर्म विमुख हो जाया करेंगे कि उन्हें समय नहीं मिलता; कुछ ऐसे साधक रहेंगे जिन्हें भक्त वत्सल लोगों के पास से सिर्फ दान पाने कि अभिलाषा रहेगी; कई साधक ऐसे भी हो जाया करेंगे जिन्हें धर्म कि एक नयी  पगडण्डी बनाने कि अभिलाषा रहेगी।  वैसे अनेकांतवादी यह भी विचार रख देते हैं कि "जितने मत हैं उतने ही पथ हैं"।  ऐसा होना भी चाहिए; तभी तो जलधारा को पहाड़ी से उतर आने के लिए विविध मार्ग का अनुसंधान करते हुए अग्रसर रहना होगा; यह भी मान्यता बन सकेगी: सभी धाराएं गंगाजी कि पवित्र धरा रहे और उतना ही मंगलकारी हो।  यह तो हमारी समझ पर ही टिका रहेगा कि हम उस धरा को क्या समझें और कैसे स्वीकार करें।  यह तो कुछ ऐसा ही हुआ कि एक कटोरा लेकर हमने समुद्र से पानी उठाया , फिर उस पानी को समुद्र के विस्तीर्ण जलराशि में मिला दिया और यह तलाश करने लग गए कि समुद्र में मिलनेवाले पानी का कौन सा हिस्सा उस कटोरे में था ! मौजूदा परिस्थिति में विविध प्रकार से विडम्बना का निर्माण होता आया जब हम किसी समुदाय को मतों और पंथों में बँट जाते हुए देखते आये हैं।  संत महात्मा का यही प्रयास रहेगा कि सभी समुदाय को किसी ख़ास मापदंड पर एक किया जा सके और उन्हें शाश्वत मार्ग का पथिक बनाया जा सके; अब उस मार्ग का कुछ भी नाम हो और उस विचारधारा को किधर से भी बहने दिया जाता हो ; अंततः एक ही पड़ाव पर सबका महा सम्मलेन होना एक भवितव्य ही है। 

इसमें कोई संदेह नहीं कि वेद, उपनिषद्, गीता, महाभारत, रामायण, पुराण, आगम ,निगम आदि पवित्र ग्रंथों के जरिये संत महात्मा समय समय हमारा दिशा निर्देशित करते आए और ऐसा आगे भी करते ही रहेंगे; फिर भी एक ऐसा विचार बनता है कि अब जलबिंदु को जलबिंदु ही समझा जाय और हमारा मार्ग उस दैवत्व के विशुद्ध तत्व को सही प्रकार से समझने के लिए बने जिसपर चलकर संत महात्मा समग्र मानव समाज को विशुद्ध दैवत्व के उपस्थिति का अनुभव दे सकें।  जीव मात्र के अभिव्यक्त होने की क्रिया में उस देवत्व को सन्निविष्ट  रहते हुए भी देखा जा सकेगा; सिर्फ इतना ही नहीं उस पूर्ण देवत्व का अंशमात्र को जीव चेतना में भी परिलक्षित किया जा सकेगा। 

[ ..............चन्दन सुकुमार सेनगुप्ता]

अपराध और अपराधी

  चन्दन सुकुमार सेनगुप्ता अपने    दैनिक    जीवन    में कुछ हादसे ऐसे भी होते हैं जो पूरी व्यवस्था और न्याय तंत्र पर ही एक...