जंगी सनक


हम दो जंगी सनक रखने वाले देश की स्थिति का जायजा लेते हुए इस निष्कर्ष पर पहुँचना चाहते हैं कि आख़िर जंगी सनक रखनेवालों के सामने ऐसी कौन सी मजबूरी आन पड़ी जिसके कारण  उन्हें एक दूसरे के खून के प्यासे बना डाला? क्या इसका कोई ठोस और स्थाई समाधान निकाला जा सकेगा ? इस विषय में भारत की क्या कोई भूमिका बन सकेगी ? अगर हमें इस सनक को रोकना रहा तो पहल कहाँ से करें और कैसे करें ?”

वस्तुस्थिति

फिर एकबार समग्र मानव समाज जंग के मैदान में प्रत्यक्ष या फिर परोक्ष रूप से उतरने के लिए मजबूर हो गया | इस विषय में इतना तो स्पष्ट ही कहा जा  सकता है कि हथियार का व्यापार  करने वाले देश और समूह के लिए अच्छी खबर है , वहीं शांति और स्थिरता की आश् लगाए बैठने वाले समूओ के लिए बुरी खबर | हम चाहते हुए भी खुद को जंग के लिए प्रस्तुत करने लग जाएँ यह भला किसे किसी विकास मुखी मानव समाज को भाएगा ! ऊपर से अगर कोई समुदाय शांति और स्थिरता पर यकीन रखे तब तो सनकी मिज़ाज रखने वाले देश के लिए मायूसी की बात है ही |

अभी हम रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे तनातनी की बात कर रहे हैं | जब हम बात कर रहे हैं तब तक तीन पखवाड़े तक की विनाशलीला चल पड़ी है | जब यह लेख पाठक वर्ग के हाथ में आएगा तब तक कुछ सुलह के मार्ग बन भी सकते होंगे पर स्थाई समाधान की धारा कुछ हद तक उम्मीद से परे ही मानें | इस तनातनी की जड़ काफ़ी पुराने किसी रंजिश से निकलकर आने वाला वैचारिक और तात्विक मतभेद का नतीजा है ऐसा भी मान सकते हैं |

"रूस को तत्काल प्रभाव से यूरोपीय परिषद से बाहर किया जाए", यूक्रेन के प्रधानमंत्री डेनिस श्मिहल के इस माँग पर जंग का पेचीदान और ज़्यादा  स्पष्ट हो रहा है | हम भला किसी देश को समग्र समाधान की व्यवस्था से अलग करके अलगाव की जड़ को कैसे उखाड़ सकेंगे ? अगर बातचीत के मेज पर आना तय होता हो तो फिर हवाई हमलों का औचित्य ही कहाँ खरा बैठता है ! सिर्फ़ जंग से कोई समाधान निकल रहा होता तो आज विश्व में सरहदों की लकीर को लेकर मर मिटने वालों की संख्या बढ़ती | यकीन यह भी लगाया जा रहा है कि  मौजूदा परिस्थिति में यूक्रेन की अर्थव्यवस्था 35 फीसदी तक गिर सकती है। इस संघर्ष से वैश्विक खाद्य सुरक्षा पर भी संकट गहरा सकता है ; सिर्फ़ इतना ही नहीं अन्य देशों के बीच भी तनातनी की स्थिति बन सकती है |

रूस के हमले की शुरुआत के बाद से 17 लाख से अधिक यूक्रेनी सीमा पार कर पोलैंड में दाखिल हो चुके हैं | आनेवाले दिनों में समस्या और अधिक गहराने की उम्मीद भी जताई जा रही है | इस बात से कदापि इनकार नहीं किया जा सकता कि शांति और स्थिरता लाने के एकतरफ़ा प्रयास से रूस भी नाखुश है | उसका पक्ष सुनने की मानसिकता लिए सामने आनेवालों की संख्या यूरोप में विरले ही मिलेंगे |

ज़्यादा छानबीन किया जाय तो कुछ और ही राज निकलकर आने की संभावना दिख रही है | हम भले ही मुँह मोड़ कर रहना पसंद करें पर हक़ीकत तो यह है कि आज की स्थिति में निष्पक्ष रूप से दोनों पक्षों को सुनकर कुछ ठोस निर्णय निकाल पाने की आकांक्षा लिए आगे आनेवालों की संख्या कम ही है |

 

किसकी क्या भूमिका

खुद को नुकसान में डालकर रूस से संबंध ख़त्म करने से इनकार करने वाले समूह में जर्मनी का नाम रहा है; उसे अपने युवा को बेरोज़कार करके रूस से तेल की आपूर्ति रोक देने में आपत्ति है |  पहले से ही समाजवादी शक्ति के रूप में रूस और चीन का ध्वज एक बुलंदी तक जा चुका है | पूंजी तत्व पर टीके रहने वालों के आँख में ख़टकती भी होगी | अमेरिका को इस बात की चिंता सता रही है कि दोनों समाजवादी शक्ति  अगर एकजुट हो जाते हैं तब उन्हें विश्व परिमंडल में हावी होने से कोई रोक ही नहीं पाएगा | जल्दबाज़ी में लिए गये निर्णयों से शत्रु पक्ष के तराजू पर अधिभार भी डल सकता है | समझदारी दिखाते हुए हमें उस परिस्थिति को रोकने के लिए भी काम करना होगा | वर्चस्व के दिखावे से पनपनेवाले आपसी तनातनी में अन्य देश को भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है | जिस बात की चिंता ज़्यादा सता रही है वह मानविकता और मानवतावादी विचार को लेकर हो रहा है | इसके कई नमूने भी सुनने में रहे हैं: सेंट्रल लंदन में रूसी अरबपति ओलेग डेरिपस्का के एक बहुमंज़िला इमारत  पर कुछ लोगों ने जबरन कब्जा कर लिया  | उनका कहना है कि इस इमारत  में बहुत कमरे हैं और इसे वो यूक्रेनी और अन्य शरणार्थियों के लिए खोलना चाहते हैं। इस कारण उन्हें और ज़्यादा सहायता सामग्री भी जुटाना होगा | यह उसी जंग का नतीजा है जहाँ से समग्र विश्व परिमंडल को स्पष्ट रूप से दो गुटों में बाँटते देखा जा रहा है |

यूक्रोनी बल नागरिकों के पीछे छिप रहे हैं, नतीजा यह हो रहा है कि आम नागरिकों को भी रूसी हमले का शिकार होना पड़ रहा है | किसी भी परिस्तिति में सामरिक गतिविधि में आम नागरिकों को घसीटा जाना उचित नहीं माना जा सकेगा | अमेरिका और चीन यह भी प्रयास कर रहे हैं कि दोनों देशों के बीच चलनेवाली प्रतिस्पर्धा को ख़त्म कर दिया जाय | इस बात को लेकर हम भी सोच विचार कर रहे हैं कि दोनों मुल्कों को एक मेज पर बिठाने के लिए हम सब और क्या प्रयास करें | सिर्फ़ उम्मीद जताए बैठें या फिर दोनों पक्षों के आवेदन निवेदनों को भी सुनें! हर पक्ष की अगर सही मात्रा में सुनवाई हो तो भला कोई क्यों लड़े !

इस विषय में अमेरिका की भूमिका भी संदेह के घेरे में है; क्यूंकी उसने ही यूक्रेन के हौसले बुलंद करते हुए उकसाया भी है और भरपूर सहायता सामग्री देने का वादा भी किया | नतीजा अब नियंत्रण से बाहर चले जाने के बाद उसपर अंकुश पाने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं | रूस के साथ अगर अमेरिका भी चर्चा के मेज पर बैठे तो कोई छोटा हो जाएगा और कोई बड़ा | फिर आनाकानी किस बात की! यह तो स्पष्ट  हो ही रहा है की दो  ध्रुवों के समीकरण का जोड़ - तोड़ की प्रक्रिया चल पड़ी है| अब पीछे हट पाने की संभावना ना के बराबर ही मानना होगा | मित्र वर्ग की सूची बना लेने से शत्रु वर्ग की सूची अपने आप ही अद्यतन हो जाएँगे | अष्ट्रेलिया और जापान जैसे देश ने रूस के खिलाफ जहर उगल पाने की स्थिति तक आ चुके हैं | ; कुछ और देश भी परिस्थिति का जायज़ा लेते हुए अपनी भूमिका बनाने के लिए कतारें बना चुके हैं |

 

 

भारत की भूमिका

भारत की हैसियत ही नहीं है कि वह मुक्त रूप से किसी एक पक्ष को खुश करने लायक स्पष्ट कोई भूमिका ले सके ; उसे सदैव अपना संतुलित मानस रखते हुए विचार व्यक्त करना है | इस विषय में हमारे राजनेता शायद ही जल्दबाज़ी करते होंगे | अगर उन्हें कोई बयान देना भी होगा तो वह बयान तैयार करने के लिए रक्षा विषयक जानकार लोगों के समूह को चर्चा के लिए बिठाना होगा | लोकतंत्र में किसी राजनेता के पास इतना अधिकार भी नहीं रहता है क़ि रक्षा विषयक किसी संवेदनशील  मुद्दों पर कोई मनमाना बयान दें |

जंग की स्थिति को रोकने के लिए हमें इतना तो प्रयास करना ही होगा कि लोगों के विचारों को ध्यान से सुना जाय और सर्व समावेशक कोई रास्ते निकाले जाएँ | इतिहास गवाही देगा कि विश्व युद्ध की स्थिति में अमेरिका पहले तो हथियार बेचने के काम में लगा रहा और अंततः उसे निर्णायक बनाने के लिए खुद भी मैदान में कूद पड़ा |  यह उसके जंगी सनक का ही नतीजा था कि उसे  विएतनाम में लाशों का अंबार बिछाना पड़ा | हर देश के झमेलों में खुद को डालना और वहाँ से अपने मुनाफ़े का हिस्सा निकाल लेना यह उसके संस्कृति का हिस्सा बन चुका है | तो क्या रूस, चीन और फ्रांस जैसे देश इस कड़ी में नहीं आएँगे? उन सबको इसी कतार में डाला जाना एक नियति  मात्र है | यह भी तीसरे महा - संग्राम की ओर इशारा कर रहा है | 

प्रश्न यह भी उठाए जा सकते हैं कि किसी अन्य देश के राजनैतिक मामलों में दखल देकर किसी अन्य देश को क्या हासिल हो सकेगा ? इसका एक ही आशय है कि उस देश के संसाधन और अर्थ व्यवस्था पर नियंत्रण  स्थापित किया जा सके | कोई देश अगर अपने संसाधनों और तकनीकों के बल पर अगर सफलता की  बुलंदी छूने लगे तो फिर जंगी सनक रखने वाले हथियार उत्पादक देशों  को ही बुरा लगने लगेगा और उसपर अंकुश पाने के लिए उसे प्रयास करते हुए देखा जा सकेगा | विकसित और विकास-मुखी हर देश पर यही समीकरण प्रस्थापित  किया जा सकेगा |

निरंतर बदलते हुए परिरेक्ष्य में संसाधन पर नियंत्रण पाने के इस विषय को ही समस्या की जड़ मान लेना होगा | इस समझदारी और वैचारिक परिपक्वता को रखते हुए हमें समाधान का सही और दूरगामी मार्ग भी निकालना होगा | हम यह भी प्रयास कर सकेंगे कि मानव से मानव का ही महा सम्मेलन हो जाय और मानव सत्ता के सामने जंगी सनक रखने वालों को हथियार डालना पड़े | हम खुद भी उस मार्ग पर चलें और अन्य जनों को प्रेरित करें जिसपर हमें पूर्ण विश्वास है | दोनों देशों के बातचीत का चौथा दौर चल रहा है | इस क्रम में कुछ पहल भले ही हुए हों पर इसे सामयिक तौर पर एक क्षणिक विराम ही माना जा रहा है |

संतोष की स्थिति अगर बनती है तो हमें यह भी देखना होगा कि किसी समुदाय के अरमानों को ज़्यादा कुचला जाय | इस विषय पर और ज़्यादा स्पष्टता लाते हुए हम यह विचार भी बनाना चाहेंगे कि समग्रता की दृष्टि से प्रत्येक मानव के लिए प्रगति का मार्ग प्रशस्त करें और सबको साथ लेकर चलने का प्रयास करें | यूक्रेन और रूस तक का सवाल नहीं है, बल्कि मानव मात्र को लेकर ही यह सवाल है | इसका कारण यह भी है कि हम उन लोगों को साथ लेकर चलने का प्रयास करें जिनसे हम कुछ सेवाएँ लेते हैं और जिनके लिए हम कुछ सेवाएँ देते भी हैं | यह भी हम स्पष्ट रूप से समझना चाहेंगे कि उन आयामों को निकाला जाय  जिसपर सघन रूप से काम करने पर विश्व परिमंडल में एक मानव  से दूसरे मानव का प्रेम संबंध बन सके |

वैचारिक परिपक्वता की ही अगर बात की जाय तो भारत उसमें सबसे आगे है और शांति स्थिरता लाने का पक्षधर भी है | आज परिस्थिति ऐसी भी है कि भारतीय मूल के लोग हर क्षेत्र में काम कर रहे हैं; उनके साथ हमारा रिश्ता भी कायम रूपी स्थिर है | किसी एक सनक को सहारा देने के क्रम में उस कायम रूपी रिश्तों को दाँव पर लगा देना ज़्यादे बुद्धिमानी से उठाया गया कदम शायद ही हम मान सकें! बल्कि विपरीत तरफ से यह कहा जा सकेगा की भारत के लिए ही विश्व मानव शृंखल बना लेना सरल है; और सूचना प्रौद्योगिकी के युग  में सुगन भी | इस विषय में सामाजिक पटल पर आपसी संबंध बनाकर चलनेवालों के लिए यह एक सुनहरा मौका भी है जबकि उन्हें आपसी संबंध और उससे जुड़े विचार विनिमय की प्रक्रिया को दिखाना होगा | परिस्थितियाँ कुछ भी हो जंगी सनक रखनेवालों का साथ देनेवालों की संख्या ज़्यादा नहीं हो सकता | हमें उस परिस्थिति से भी गुज़रना है जिसके बल पर हम यह स्वीकार करने लगें कि विश्व शांति की उम्मीद रखनेवालों की संख्या दिन प्रतिदिन घटती जा रही है |

विश्व परिमंडल में हमें यह भी देखना होगा कि अलगाव की इच्छा और मौका परश्ती रखनेवालों के सामने कोई बड़ी चुनौती दे सकें ऐसे समूह छोटे छोटे गुटों में बँटे हुए हैं | हम यह भी देख रहे हैं कि उनके बँटे रहने की स्थिति का फ़ायदा उठाकर कुछ लोग अपनी अपनी मंशा पूर्ति करने के क्रम में लगे हुए हैं | जिस बात को लेकर और ज़्यादा परेशानी है वह उनके उदासीन होने को लेकर है | उन्हें सर्वदा इस परिस्तिति का शिकार होते हुए देखा जा रहा है |

चर्चा के पहले टप्पे को विराम देते हुए हमें यह भी उम्मीद रखना होगा कि विश्व परिमंडल की स्थिति में शांति कामी लोग आपसी रिश्तों को पुनः ताज़ा करें और अपनी भूमिका अदा करने के लिए एक निर्णयात्मक भूमिका ले सकें |

 ---- चन्दन सुकुमार सेनगुप्ता

अपराध और अपराधी

  चन्दन सुकुमार सेनगुप्ता अपने    दैनिक    जीवन    में कुछ हादसे ऐसे भी होते हैं जो पूरी व्यवस्था और न्याय तंत्र पर ही एक...