संकट का बादल


भारत और अन्य कई विकास मुखी देश में स्वेच्छा से काम करनेवाली संस्थाओं की संख्या काफ़ी है | कुछ संस्थाएँ बंद भी हो रही है और कई नई संस्थाओं को भी कर्मरत देखा जा रहा है | जिस विचार से संस्था चलती है और उसके साथ लोग जुड़ते चले जाते हैं वही संस्था की असली पूंजी है | कई संस्था को एक संकुचित दायरे में सिमटते हुए भी देखा जाता है | यह भी उस संकट की ओर इशारा हुआ मानेंगे जिसके कारण विचारों का खातमा भी हो सकता है और संस्था के नाम पर सिर्फ़ इमारतें और पैसा ही शेष रहेंगे  | परिस्थिति विकराल रूप ले इसके पहले ही रचना धर्मी लोगों और समाज को इसका पहल करना होगा ताकि विरासत सुरक्षित रह पाए |

वस्तुस्थिति

अधिकांश वरिष्ठ मित्रों और कार्यकर्ताओं का यही मत है कि संस्थाएँ अपने मूल ध्येय से भटक चुकी है और उनके सामने अपने ही अस्तित्व को टिकाए रखने का प्रश्न निर्माण हो चुका है | कई सस्थाओं को जनता जनार्दन में पैसों का पहाड़ दिखता है और विचारों सर्वोदय संस्कारों से मीलों दूर किसी चमक दमक वाले गलियारों में वे सबके सब भटक रहे हैं | कभी सर्व भारतीय स्तर की मानी जानेवाली संस्था भी इन दिनों कूप मंडूकता से ग्रस्त होकर  उसी हिसाब में लग चुकी है कि पैसों के मार्ग से और अधिक पैसा किस प्रकार से हासिल किया जा सके | कई संस्था प्रमुखों का घमंड इस कोटि का हो गया है कि उन्हें अपने विरोध में एक भी शब्द सुनना पसंद नहीं | अतः यही वास्तविक है कि आनेवाले दिनों में इन संस्थाओं को कार्यकर्ता नहीं मिलेंगे और इन्हें नौकरों की टोली से ही काम निकालना होगा | जाहिर सी बात है क़ी अब संस्था चलाने का खर्च भी बढ़ेगा |

चिकित्सा विज्ञान से जुड़े अपने एक मित्रवत कार्यकर्ता का भी यही मत है कि हम एक ऐसे कठिन समय से गुजर रहे हैं जब संस्थाओं में कार्यकर्ताओं को शरण मिलना और उनके विचारों और संस्कारों का संरक्षण हो पाना ज़्यादा कठिन हो जाएगा | इस परिस्थिति में ज़मीनें, इमारतें और पैसों को छोड़ कर और कुछ भी नहीं बचेगा |  संस्था खुद को बचाए रखने के लिए अपने दायरों को दिन प्रतिदिन छोटा कर रही है | उन्हें भी अपने अस्तित्व खोने का डर सता रहा है और उनके पास दूसरा पर्याय है भी नहीं |

इस परिस्थिति में हम चुप रहें या फिर कुछ पहल करें इस विषय पर मित्र मंडली में चर्चा चल पड़ी है | ईस्वर की इच्छा अगर है और अगर यही समय की माँग हो रही है तो हमें ज़रूर कोई  समाधान सूत्र मिलेगा | महात्मा भी ऐसा ही कहा करते थे कि प्रयत्न करते रहना एक कार्यकर्ता का ही काम है |

विचारों और पैसों का द्वंद

विचार के साथ अर्थ ( पैसा , सम्पद, ज़मीन आदि ) का रिश्ता ही कुछ अजीब सा है | लोग पैसों के बल पर हर एक को झुका देने की तमन्ना रखते हैं | कभी कभी उन्हें इतिहास के पन्नों से सीख लेते हुए अपनी भूमिका तय करना होगा | हम सब यह भली भाँति जानते हैं कि एक लुटेरा जब भारत से लूट का पैसा लेकर जा रहा था तो वह अपने ही साथियों के हाथों मारा गया | वो पैसा आख़िर किसी के भी काम सका | अगर किसी को यह लगता है कि मंगल विचार के धनी सिर्फ़ पैसों के लिए काम करेंगे तो उन्हें अनतिविलंब अपना विचार बदलते हुए यह समझ लेना होगा कि पैसों की ओर भागने वाला व्यक्ति मंगल और क्रांतिकारी विचार का धनी कदापि नहीं हो सकता | जिन संस्थाओं के पास पैसे, ज़मीनें और इमारतें चुकी है उन्हें लगता है कि अब वो दुनिया को किसी भी तरफ मोड़ सकेंगे और जनता जनार्दन को उनके पास आना ही होगा | उन संस्था प्रमुखों को इस बात का ध्यान रखना होगा कि क़ानून का शिकंजा कभी भी कसा जा सकता है और किसी लोकतांत्रिक ढाँचों में इसकी संभावना कुछ ज़्यादा ही रहेगी | अतः कुछ ऐसा संतुलन बनाकर संस्थाओं को चलना होगा जिससे जनता जनार्दन के बीच उन वित्तवान संस्थाओं के चलते किसी प्रकार का रोष उत्पन्न हो | एक ऐसी भी संस्था के बारे में पता चला जिन्होंने अपने ही कार्यकर्ताओं को काफ़ी अपमानित करके उनकी भावनाओं को कुचलकर काम से निकाल बाहर करने का निर्णय लिया | कभी कभी हमें भावनाओं का भी ध्यान रखना होता है; ताकि कोई व्यक्ति आवेश में आकर कोई ग़लत कदम उठा ले | जिन कार्यकर्ताओं को निकाला गया उनमें से अधिकांश लोगों का नौकरी पाने का उम्र ही निकल चुका था और वो तो नई व्यवस्था में ढलने के लिए मानसिक रूप से तैयार थे | इसका यह अर्थ भी नहीं है कि संस्थाओं को कामगार लोगों की संख्या में कटौती करने का कोई हक ही नहीं है | संस्था उन अधिकारों का उपयोग करते  समय वयक्ति की भावनाओं का भी यथोचित सम्मान करे | किसी नौकर के अपमानजनक कारनामों का असर संस्था प्रमुख और उनके साथ जुड़े लोगों की प्रतिष्ठा को भी चपेट में ले सकता है | और यह एक प्रकार की मूर्खता ही है जिस बदौलत कोई संस्था बने बनाए कुशल कार्यकर्ताओं को छोड़ दे |

कार्यकर्ता निर्माण

अपने देश में ऐसे और भी संस्थाओं का परिचय हमें मिलता है जिनका मुख्य काम ही है कार्यकर्ता निर्माण | उनके पास कई युवा जीवन की तलाश में आते हैं और उनमें से कई पूर्ण रूप से जुड़ जाते हैं और ध्येय मार्ग पर अडिग भी रहते हैं | उन संस्थाओं की प्रगति इन दिनों तीव्र गति पर है और धीरे धीरे भारत के प्रत्यन्त भागों तक फैल रही है | इसको किसी दबी पाँव चलनेवाले तूफान से भी तुलना कर सकते  जिसमें खर पतवारों के साथ साथ बड़े पेड़ पौधों  को भी उड़ा ले जाने की असीम शक्ति है; उनका भान भी कुछ इस प्रकार का ही है | इस बात से समझदार लोगों को एक तो मौका मिल ही जाएगा कि वो अपने बिखरे हुए वस्तुओं को समेटकर उस तीव्र तूफान के वापस जाने का इंतजार करते रहें या फिर खुद को किसी सुरक्षित जगह  स्थानांतरित कर लें | नासमझ और घमंडी लोगों के लिए आने वाला काल और अधिक विकराल होने जा रहा है |

संस्था का प्रमुख काम ही है विचार का संकर्षन और उस विचार पर चल पड़ने वाले लोगों का संरक्षण |

कभी बंगाल के एक आश्रम से एक युवा सन्यासी यह कहकर निकल गये कि उन्हें उपयाचक  और परिव्राजक  का जीवन बिताना है | उपायाचक का अर्थ हुआ किसी से कुछ माँगना और परिव्राजक  से उनका अभिप्राय था  कहीं भी ज़्यादे दिन का प्रवास करना | उन्होंने गुरु माँ से अनुमति माँगकर निकलने का फ़ैसला भी कर लिया | सबसे ज़्यादा चिंता उस गुरु माँ को होने लगी; कारण था कि जिस देश में बिना माँगे पानी भी नहीं मिलता उस देश में कहीं इस युवा का हौसला टूट पाए | उस यूवा का आश्रम से निकल आने का कारण तो कुछ और ही था | कभी कभी हमें कुछ कड़वाहट  को गुप्त रखना होता है ताकि लोगों की भावनाओं को अनावश्यक ठेस पहुँचे | इस बात का भी ध्यान रखना होता है कि हमारे किसी कारनामे से दूसरों की प्रगति बाधित हो | कभी कभी दूरियाँ बना लेना मंगल कारक भी होता है | उस युवा सन्यासी ने आश्रम से दूरी इसलिए भी बना लिया था ताकि और साथियों को काम करने का अनुभव प्राप्त हो और उन्हें बड़ी ज़िम्मेदारियों से नवाजा जा सके |

समाधान सूत्र

हर समय संकट की बात करें और समाधान का कोई सूत्र हो ऐसा कभी हो ही नहीं सकता | हम जिस व्यवस्था से निकलकर आते हैं हमारी मानसिकता और दैनिक व्यवहार भी उसी के मुताबिक बनना स्वाभाविक है, और फिर उसमें आधुनिकता का कुछ अंश मिल जाता है | कोई सूचना और प्रौद्योगिकी का विद्यार्थी एक सरलता और सादगी का जीवन जी रहा है इस बात से लोग परेशान हो उठते हैं और कभी कभी ऐसा उन्हें यकीन भी नहीं होता | जाहिर सी बात, लोग किसी भी स्थिति का जायजा अपने नज़रिए से ही लेते हैं और उन्हें उसी नज़रिए से समाधान  सूत्र भी दिखने लगता है | आधुनिक प्रबंधन विज्ञान कहता है कि जिसे जिस प्रकार की भूख लगी उसे उसी प्रकार  का भोजन दिया जाय नहीं तो विरोध का बादल मंडराने लगेगा | पर सर्वोदय का विज्ञान इससे बिल्कुल ही अलग है : प्रबंधन को तभी कारगर और यशस्वी माना जाएगा जब परिसर में रहने वाले जानवर तक को भोजन और आसरा मिले | महात्मा का भी इसी से मिलता जुलता एक विचार था कि किसी परिसर में अहिंसा की प्रतिष्ठा है कि नहीं इसका पता लगाने के लिए हमें वहाँ रहनेवाले जानवरों और उनके साथ किए जाने वाले व्यवहारों को देखना होगा |  

आत्म प्रत्यय का विज्ञान यह कहता है कि प्रयास करते रहना है | निरंतर प्रयास करते रहने से शत्रु का भी  दिल जीता जा सकेगा | उसी आत्म प्रत्यय से अर्जुन को सारथि के रूप में श्री कृष्ण का साथ मिला और उतनी बड़ी सेना को परास्त करने में कामयाब हुए | दूसरी ओर श्री कृष्ण को भी पता था कि वो हर एक परिस्थिति से अर्जुन को नहीं बचा पाएँगे , पर अगर बजरंग बलि का साथ रहा तो हर संकट से उभरा जा सकेगा | अतः कपिध्वज का अवतरित होना और जंग समाप्त हो जाने के बाद जल जाना स्वाभाविक था | मौके मिलते रहें और निरंतर समय जाता रहे यह भी संतोष पाने लायक नहीं हो सकता | लंका नरेश रावण के सामने उसी के उपास्य देवता का रुद्र अवतार जीवन बचाने के उद्देश्य से समझाने आया और घमंड के बादलों से घिरे रावण को नियती के कराल ग्रास से बचा नहीं पाया | उस समय कई ऐसे भी दिन बीत रहे थे जब रावण नर्तकियों और किन्नरों से घिरा रहता था और मर्यादा  पुरुषोत्तम घास के मखमली विस्तर पर चंद्रमा को निहारते हुए निद्रा विहीन रातें बिताया करते थे | बजरंगी के पराक्रम और उनके शौर्य - धैर्य के पहिए वाले धर्म रथ ने उन्हें विजय श्री दिलवाया | 

कभी कभी हम यह भी समझ नहीं पाते कि अगर संहार वृत्ति का प्रयोग करना भी रहा तो यह कैसे समझ लें कि वो समय अब चुका ! जब अपने  देश में आश्रम परंपरा  का विद्यालय चलता था उन दिनों एक आश्रम के कुछ विद्यार्थियों को नज़दीक के गाँव में एक कुटिया में आग की चिंगारी की ओर नज़रें गई  | उन्होंने अपने गुरु को बताया और उन्हें लगा कि गुरुदेव तुरंत ही आग बुझाने के काम में जुट जाने का आदेश देंगे |  पर गुरुदेव ग्रामीणों  के संकुचित वृत्ति से भली भाँति परिचित थे | उन्होंने इंतजार करने और स्थिति का जायज़ा लेते रहने के लिए कहा और खुद भी जगे रहे , और दूर से ही सही उस घटना को निहारते रहे | आग और बढ़ी, तब भी गुरुदेव चुप रहे और अन्य शिक्षुओं से भी चुप्पी बनाए रखने के लिए कहा | जब ग्रामीणों के बीच से "बचाओ, बचाओ " ऐसी पुकार आने लगी तब गुरुजी खुद कमर कसकर दौड़ पड़े, जाहिर सी बात थी कि उनके सभी विद्यार्थी साथ हो लिए | पूरी प्रक्रिया और आग बुझाने का काम पूरा होने के बाद जब विद्यार्थियों ने गुरुजी के ऐसे काम करने का कारण पूछा तो शिक्षक बोले , "लोगों की सामान्य वृत्ति का ही फल है कि उनके मन में किसी के भी प्रति सहज रूप से संदेह पैदा हो जाया करता है | अगर उन्हें नींद से उठाकर हम कहें कि हम उनके इमारत में लगे आग को बुझाने आए हैं तो उनके मन में हमारे ऐसा करने को लेकर संदेह भी पैदा होगा | उन्हें ऐसा भी लग सकता है कि हम कुछ चोरी करने आए हैं और आग लगने का बहाना बना रहे हैं | बुलावा आने से हमारा वहाँ जाना यह हमारा एक सहज मानव धर्म है | "

सहज़ीवन की कला से भी हम यही सीखते  कि मदद माँगे जाने पर मुँह नहीं मोड़ना चाहिए | हमें हमारी हैसियत के मुताबिक लोगों तक मदद का हाथ बढ़ा देना चाहिए | संस्था को अगर समाज के लिए बनाया गया होगा तो उस संस्था को समाज से हटकर कोई निर्णय नहीं लेना चाहिए | कभी कभी संस्था चालकों में भी वैचारिक मतभेद पनपने लगता है और उन्हें लगता है कि संस्था की हर गतिविधि से आमदनी हो | अगर आम के पेड़ से फल पाते पाते हमें यह लगने लगे कि उसकी जड़ों को भी निकाल लें और किसी किसी काम में लगा डालें तो यह हमारी वैचारिक दीनता समझी जाएगी कि सैद्धांतिक परिपक्वता | हम कभी कभी शराफ़त का चोला पहनकर कड़वाहट से दूर भागना चाहते हैं, पर कभी परछाईं व्यक्ति का साथ नहीं छोड़ता ; अतः हमें दोनों को साथ लेकर ही एक निर्णायक की भूमिका में खरा उतरना होगा | अगर हम उस नेतृत्व शक्ति के आदि नहीं  बन पाते हों तो तुरंत उस व्यवस्था और परिसर से हट जाना होगा | यही वक्त की नज़ाकत होने के साथ साथ सार्विक समाधान का सूत्र भी है |

 

शिक्षण विचार

शिक्षण एक निरंतर चलने वाली सतत प्रक्रिया है | इसे सिर्फ़ विद्यालय तक सीमित नहीं माना जा सकता | हमारे निसर्ग के प्रत्येक कण में शिक्षण पाने लायक तत्व भरा पड़ा है | चाहिए सेर्फ एक सकारात्मक दृष्टि ताकि उन बिखरे विचारून को हम सफलता पूर्वक ले सकें | मां, बाप, गुरु, संत, बच्चे इनमें यदि हम परमात्मा न देख सकें, तो फिर किस रूप में देखेंगे? इससे उत्कृष्ट रूप परमेश्वर का दूसरा नहीं है। ईसप के राज्य में  सियार कुत्ते कौए हिरन खरगोश कछुए सांप केंचुए- सभी बातचीत करते हैं हंसते हैं। एक प्रचंड सम्मेलन ही समझिए नǃ ईसप से सारी चराचर सृष्टि बातचीत करती है। उसे दिव्य दर्शन प्राप्त हो गया है।

 

संगीत का शास्त्र समझ तो लिया, किन्तु यदि कंठ से संगीत प्रकट करने की कला सधी, तो नाद-ब्रह्म की सजावट नहीं होगी। खेत का कचरा निकालते-निकालते कर्मयोगी को खुद अपने हृदय का वासना-विकाररूपी कचरा निकाल डालने को बुद्धि उपजती है। संतों ने तो घोड़ों को खरहरा करने वाला, गायें चराने वाला, रथ हांकने वाला, पत्तल उठाने वाला, लीपने वाला, कर्मयोगी परमेश्वर खड़ा किया है। तलवार हाथ में लेने से हिंसावृत्ति अवश्य प्रकट होती है, परन्तु तलवार छोड़ देने से मनुष्य अहिंसामय होता ही है, सो बात नहीं। ठीक यही बात स्वधर्माचरण की है। अकेली तेल-बत्ती से दीया नहीं जल जाता। उसके लिए ज्योति की जरूरत होती है। ज्योति होगी, तो अंधेरा दूर होगा। यह ज्योति कैसे जलायें?

बाहर से विषय भोगों को छोड़कर यदि मन में भगवान का चिंतन किया जाये, तो फिर इस बाहरी उपवास की क्या कीमत रही?

यदि कोई कहे कि ‘नमक मिर्च की तरह’‚ तो हम उसे पागल कहेंगे। पर यदि कोई यह कहे कि ‘तारे फूलों की तरह हैं तो उनमें साम्य दिखायी देने से आनंद होगा। हिंदू-मुस्लिम ऐक्य के लिए भूतकाल का विस्मरण ही एकमात्र उपाय है। मनुष्य यदि बुराई को छोड़कर सिर्फ अच्छाई को ही याद रखे तो कैसी बहार होǃ परंतु ऐसा नहीं होता। इसलिए विस्मृति की बड़ी आवश्यकता है। इसके लिए भगवान ने मृत्यु का निर्माण किया है।

अहिंसा की प्रक्रिया हृदय परिवर्तन पर आधार रखती है | हृदय परिवर्तन की अपनी एक पद्धति है | मनुष्य कभी कभी जनता भी नहीं कि उसका हृदय परिवर्तन हो रहा है | हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारे विचार, सोचने की पद्धति आदि उसके बाधक न हों |  हम जब हृदय परिवर्तन और विचार परिवर्तन की बात करते हैं, तो हमारे सामने दूसरों के विचार परिवर्तन की ही बात होती है, ऐसा नहीं है | हमारे अपने और दूसरों के भी विचार परिवर्तन और हृदय परिवर्तन की बात होती है, या होनी  चाहिए | जहाँ विचार और भ्रम दोनों होते हैं, वहीं उपासना भी होती है | यही दृष्टांत हृदय परिवर्तन की  प्रक्रिया के लिए लागू होता है | भ्रम और सत्य, दोनों का होना हृदय परिवर्तन की एक अवस्था की प्रक्रिया में ज़रूरी होता है |  मनुष्य पहले केवल भ्रम में होता है | वहाँ से उसे केवल सत्य में जाना है | अब केवल भ्रम से केवल सत्य की स्थिति में जाने के लिए रास्ते में ऐसी भूमिका आएगी , जब कि उसके मन में कुछ भ्रम और कुछ सत्य का आधार होगा | तब हम अगर फ़ौरन उसका खंडन करेंगे, तो उसका  चित्त विचलित होगा और एक विरोध स्थापित हो जाएगा | उस भ्रम का खंडन करना अहिंसा के लिए बाधक होगा, यदि सत्य के ख़याल से उसका  खंडन किया जाता हो तो | सत्य कभी चुभता नहीं | अगर वास्तव में सत्य है, तो हमेशा प्राण दायि होगा | जो तत्व प्राण दायि है,वह अहिंसक तो होगा ही, चुभेगा भी नहीं | चुभनेवाले सत्य में अहिंसा की कमी तो स्पष्ट ही है , लेकिन उसमें सत्य का  अंश भी कुछ कम होता है |

समाधि अध्ययन का मुख्य तत्व है | समाधियुक्त गभीर अध्ययन के बिना ज्ञान नहीं | अध्ययन से प्रज्ञा और बुद्धि स्वतंत्र और प्रतिभावान होनी चाहिए |  नई कल्पना,नया उत्साह, नया खोज, नई स्फूर्ति , ये सब प्रतिभा के लक्षण हैं | लंबी चौड़ी पढ़ाई के नीचे यह प्रतिभा दबकर मार जाती है | वर्तमान जीवन में आवश्यक कर्म योग का स्थान रखकर ही सार अध्ययन अध्ययन करना चाहिए | शरीर की स्थिति पर कितना विश्वास किया जाता है, यह प्रत्येक के अनुभव में आनेवाली बात है | भगवानकी हम सबपर पर अपार क्रिया ही समझनी चाहिए कि हममें वह कुछ न कुछ कमी रख ही देता है | वह चाहता है कि यह कमी जानकर हम जागृत रहें | जीवन का मार्ग दो बिंदुओं से ही निश्चित होता है: हम हैं कहाँ और हमें जाना कहाँ |[1]

मैं सत्य की ओर अपने कदम बढ़ते रहूं तो भी ईश्वर की कृपा के बिना मंज़िल पर नहीं पहुँच सकता | मैं रास्ता काटने का तो प्रयत्न करता हूँ, पर अंत में मैं रास्ता काटता रहूँगा कि बीच में मेरे ही पैर कट जानेवाले हैं, यह कौन कह सकता हैं ? प्रार्थना के सहयोग से हमें बल मिलता है | प्रार्थना में दैववाद और प्रयत्नवाद का समन्वय है | दैववाद में पुरुषार्थ को अवकाश नहीं है, इससे वह वावला है | प्रयत्नवाद में निरहंकार वृत्ति नहीं है, इससे वह घमंडी है | दैववाद में जो नम्रता है वह ज़रूरी है और प्रयत्नवाद में जो पराक्रम है वह भी ज़रूरी है | प्रार्थना इनका मेल साधती है |

आधुनिक शिक्षा

हम जिसे जीवन की तैयारी का ज्ञान कहते हैं उसे जीवन से बिल्कुल अलिप्त रखना चाहते हैं, इसलिए उक्त ज्ञान से मौत की ही तैयारी होती है | आजकी मौत कलपर ढकेलते ढकेलते एकदिन ऐसा आ जाता है कि उस दिन मारना ही पड़ता है | जिंदगी की ज़िम्मेदारी कोई निरि मौत नहीं है , और मौत ही कौन सी ऐसी बड़ी "मौत" है? जीवन और मरण दोनों आनंद की वस्तु होनी चाहिए |  ईश्वर ने जीवन दुःखमय नहीं रचा पर हमें जीवन जीना आना चाहिए | पानी से हवा ज़्यादा ज़रूरी है तो ईश्वर ने हवा को पानी से ज़्यादा सुलभ किया है | "आत्मा" अधिक महत्व की वास्तु होने के कारण वह हमेशा के लिए हरेक को दे डाली गई है |  जिंदगी की ज़िम्मेदारी कोई डरावनी चीज़ नहीं है | वह आनंद से ओतप्रोत है , बशर्ते  कि ईश्वर की रची हुई जीवन की सरल योजना को ध्यान में रखते हुए आयुक्त वासना को दबाकर रखा जाय |  यह पक्की बात समझनी चाहिए कि जो जिंदगी की ज़िम्मेदारी से वंचित हुआ वो सारे शिक्षण का फल गँवा बैठा | जिंदगी की ज़िम्मेदारी का भान होनेसे अगर जीवन कुम्हालता हो तो वह जीवन वस्तु ही रहने लायक नहीं है |  ईसप नीति के आरासिक माने हुए, परंतु वास्तविक मर्म को समझनेवाले मुर्गेसे सीख लेकर ज्वार के दानों की अपेक्षा मोतियों को मान देना छोड़ दिया तो जीवन के अंदर का कलह जाता रहेगा और जीवन में सहकार दाखिल हो जाएगा | भगवद्गीता जैसे कुरीक्षेत्र में कही गई वैसे शिक्षा जीवन - क्षेत्र में देनी चाहिए, दी जा सकती है | व्यवहार में काम करनेवाले आदमी को भी शिक्षण मिलता ही रहता है | वैसे ही बच्चों को मिले |

 

कर्मयोग की विद्या

कर्मयोगी बनने के लिए विद्यार्थियों को कुछ न कुछ निर्माण कार्य करते रहना चाहिए | निर्माण के बिना निःसंशय  ज्ञान भी नहीं होता | प्रयोग से प्राप्त ज्ञान ही निःसंशय ज्ञान होता है | रोटी पकना अगर लड़कियों का काम है तो रोटी खाना भी लड़कियों का काम रहने दीजिए | अपने लिए ज्ञानमृत भोजन रख लीजिए | श्री कृष्ण बचपन में हाथ से काम करते थे, मेहनत मज़दूरी करते थे | इसीलिए गीता में  इतनी स्वतंत्र प्रतिभा का दर्शनहमें होता है | जिस विद्या में कार्तृत्व शक्ति नहीं, स्वतंत्र रूप से सोचने की बुद्धि नहीं, ख़तरा उठाने की वृत्ति नहीं वह विद्या निस्तेज है |

हर एक परिश्रम का नैतिक, आर्थिक और सामाजिक मूल्य एक ही है | प्राचीन कालमें हमारे यहाँ कला कम नहीं थी | लेकिन पूर्वजों से मिलनेवाली कला एक बात है और उसमें निरंतर प्रगती करते रहना अलग बात |  अपनी प्राचीन कला को देखकर हमें आश्चर्य होता है, यही सबसे बड़ा आश्चर्य है | ऐसा हुआ कैसे?  कारीगरों में ज्ञान का अभाव और हममें परिश्रम प्रतिष्ठाका अभाव यही इसका बड़ा कारण है | कुम्हार हो या बढ़ई, उसके घर में  बच्चों को बचपन ही से उसके धंधे की शिक्षा अपने  पिता माता से मिल जाती थी | बुनकर से तो मैं कहूँगा कि अपने पिता का धंधा करना तो उसका धर्म है और हम ही उसका बनाया कपड़ा न खरीदें तो वर्णाश्रम धर्म कैसे जीवित रहेगा ?

हमारी वृत्ति के कारण उद्योग गया और उसके साथ साथ उद्योगशाला भी गई |

 

निसर्ग शिक्षा

स्थूल और सूक्ष्म सरल और मिश्र सरल अक्षर और संयुक्ताक्षर सब सीखो और अंत में यह अनुभव करो कि परमेश्वार से ख़ाली एक भी स्थान नहीं है। अणु-रेणु में भी वही है।  कृष्ण के हाथ की मुरली कैसे बनूं? वे अपने होंठ से मुझे लगा लें और मुझसे मधुर स्वर निकालें मुझे बजाने लगें यह कैसे होगा? मुरली बनना यानि पोला बननाǃ परमेश्वर के हाथ का औजार बनना हो तो मुझे दस सेर वजन का लोहे का गोला नहीं बनना चाहिए।

शरीर के हरेक अवयव का पूर्ण और व्यवस्थित वृद्धि होना,  इंद्रियों का चतुर, चाल और कार्यकुशल बनना, विभिन्न मनोवृत्त्तियों का सर्वांगीण विकास होना ; स्मृति, मेधा, धृति, तर्क आदि बौद्धिक शक्तियों का प्रगलब और प्रखर बनना -  इन सब नैसर्गिक और प्राकृतिक प्रवृत्तियों का निसर्ग शिक्षा में अंतर्भाव हो जाता है | मानव को बाह्य परिस्थिति से जो ज्ञान प्राप्त होता है और व्यवहार में जो अनुभव मिलता है, उस समस्त पदार्थ ज्ञान या भौतिक जानकारी को वह  "व्यवहार शिक्षण " नाम देता है | निसर्ग शिक्षण से प्राप्त आत्म विकास का बाह्य व्यवहार ज्ञान की दृष्टि से बाह्य जगत में किस प्रकार से उपयोग किया जाय , इस बारे में अन्य मनुष्यों के प्रयातनों का जो वाचिक, सपरदायिक या विद्यालय आधारित शिक्षण मिलता है उसे व्यक्ति शिक्षण संज्ञा दी है | क्या व्यक्ति शिक्षण क्या व्यवहार शिक्षण, दोनों व्यक्ति को बाहर से मिलते हैं | केवल निसर्ग - शिक्षण व्यक्ति को  भीतर से मिलता है |

वस्तुतः बाह्य शिक्षण मनुष्य को विश्व के प्रत्येक पदार्थ से लगातार मिलते रहता है | उसमें कभी बाधा नहीं पड़ती | जितने भी पदार्थ हैं सबमें शिक्षण के सारे तत्व भरे पड़े हैं | नैयायिकों का अणु से लेकर संख्यों के महत्तम तत्व तक, रेखागणित के बिंदु से लेकर भूगोल के सिंधु तक और बचपन की भाषा में कहना हो तो "राम की चोटी से लेकर तुलसी के मूल तक"[2] सभी छोटे बड़े पदार्थ मानव के गुरु हैं | विचक्षण विज्ञान वेत्ताओं की दूरबीन में, व्यवहार विशारादों के चर्म चक्षुओं में , कला कुशल कवियों के दिव्य चक्षुओं में या तार्किक तत्ववत्ताओं के ज्ञान चक्षुओं में जो भी पदार्थ प्रतिभात होते हों या न होते हों,   उन सभी में हमें नित्य ही शिक्षा मिलती रहती है | यह विशाल सृष्टि परमेश्वर द्वारा हम सबकी शिक्षा के लिए हम सबके सामने खोलकर रखा हुआ एक शाश्वत, दिव्य, आश्चर्यमय और परम पवित्र ग्रंथ है | पर यह ग्रंथ गंगा कितनी ही गहरी हो, मानव अपने लोटे से ही उसका पानी भरेगा | इसलिए इस विश्व से बाह्यतः हमें वही और उतना ही शिक्षण मिलेगा, जिसके और जीतने के बीज हमारे भीतर  निहित होंगे |

 

हम इस बाहरी दुनिया से जो कुछ सीखते हैं उसे अंततः भूल जाते हैं और उसके संस्कार मात्र शेष बचता है | शिक्षण का अर्थ जानकारी नष्ट होने पर बचे हुए संस्कार ही हैं | जो हमारे भीतर नहीं है उसका बाहर से मिलना असंभव है | इस तरह स्पष्ट है कि बाह्य शिक्षण कोई तांत्रिक पदार्थ न होकर केवल अभावत्मक क्रिया है |

 

सुख का बाह्य पदार्थों से क्या संबंध है?

 यदि कहें कि सुख बाह्य पदार्थों में है, तो उनसे सदैव सुख होना चाहिए; पर ऐसा होता नहीं | मानसिक स्थिति बिगड़ी रहे , तो अन्य समय जो पदार्थ सुखकर प्रतीत होते हों , वे भी सुख नहीं दे पाएँगे |

इसके विपरीत यदि ऐसा कहें " सुख एक मानसिक भावना है और बाहरी वस्तुओं से इसका कोई संबंध नहीं" तो वैसा नित्य अनुभव नहीं आता |  घड़ा और मिट्टी के बीच अनिर्वचनीय संबंध है |  यह संबंध अनिर्वचनीय होनेपर भी जिस तरह एक पक्ष में , "वाचारंभन विकारो नामधेयन म्रित्तिकेत्येव सत्यम" , यानी मिट्टी तात्विक और घड़ा मिथ्या,  इस तरह तारतम्य से निर्णय किया जाता है , ठीक उसी तरह अंतः शिक्षण भावरूप और बाह्य शिक्षण अभाव रूप ऐसा कहा जा सकता है | अंतः शिक्षण या आत्मिक विकास भावरूप होनेपर भी वह व्यक्ति के भीतर ही भीतर अपने आप हुआ करता है | उसके बारे में हम कुछ भी नहीं कर सकते | उसके लिए कोई पाठ्यक्रम भी नहीं बन सकता | और बनाया भी जाय तो उसे कार्यान्वित कर पाना संभव नहीं | वास्तव में बाह्य शिक्षण कार्य है, उपयुक्त कार्य है; पर अभावात्मक कार्य है | शिक्षण द्वारा कोई स्वतंत्र तत्व उत्पन्न नहीं करना है, पर निद्रित तत्व को जागृत करना है | शिक्षण उत्तेजक दवा होकर प्रतिबंध निवारक उपाय है | शिक्षण अभावत्मक होनेपर भी उपयुक्त है और प्रतिबंध - निवारण के नाते ही क्यों हो, उसे थोड़ी भावात्मकता  भी प्राप्त है |

 

 



[1] ग्रामसेवा वृत्त से

[2] अपने देश में बच्चे एक दूसरे से स्पर्धा करने में या कसमें खाते समय इन मुहावरों का प्रयोग करते पाए जाते हैं |

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