ग़रीबी
उन्मूलन अगर किसी संस्था का ध्येय हो सकता तो सरकार बहादुर का भी यही ध्येय है और उनका
प्रयास भी यही है कि ग़रीब नागरिक के ग़रीबी से ग्रसित होना का सही कारण पता करते हुए
उसे उस ग़रीबी के जाता जाल से छुड़ा सके | पुराण और वेदों में ऐसे काफ़ी उदाहरण मिलते
हैं जिसके ज़रिए हम एक सम्राट और एक नागरिक के संवेदनशीलता को समझ सकें | एकबार भक्त
सुदामा के परिवार वर्ग ने सुझाया कि उनके मित्र श्री कृष्ण कन्हैया सम्राट बन चुके
, अब तो सुदामा को इस अवसर का भरपूर लाभ उठाते हुए अपनी ग़रीबी दूर कर लेनी चाहिए
! पर सुदामा के मन में कुछ संकोच था; जिस मित्र को एक मुट्ठी चावल की भुजिया नहीं दे
पाए थे उसी मित्र से कुछ कैसे माँगा जाय ! और फिर मित्र भला किसी मित्र से कहाँ कुछ
माँगता है ! मित्र से सिर्फ़ मैत्री का ही संबंध रहता है | उस मैत्री के संबंध में
स्वार्थ का आना उचित नहीं है और ऐसा करना भी नहीं चाहिए |
काफ़ी
अनुनय विनय करने के बाद सुदामा मान तो गये पर उनके मन में किसी और कारण से आनंद और
हर्ष का बाढ़ आया ; काफ़ी लंबी अवधि के बाद उन्हें अपने मित्र से मिलने का मौका मिलेगा
और इस मौके को सुअवसर में बदलते हुए सुदामा वही भेंट लेकर निकल पड़े आश्रम प्रवास के
समय जो कृष्ण के माँगने पर भी नहीं दे पाए थे | उस कारण से बने आत्म ग्लानि को धो डालने
का समय आया है यह जानकार भी सुदामा हर्षित हो रहे थे |
गिरिधारी
का मित्र वह भी ऐसी दशा में ! विश्वास भला किसे हो पाता , अतः सैनिकों का भ्रमित होना
भी जायज़ था | सुदामा को कृष्ण के सिंह द्वार पर ही रोका गया | अंदर जानकारी भेजी गई,
और फिर क्या; गिरिधारी अपने उस मित्र को गले
लगाने के लिए दौर पड़े और अपने परिषदों को अचंभे में डाल दिया | उस मित्र को अपने ही
आसन पर बिठाया और दोनों का प्रेम संवाद फिर देखते ही बन रहा था |
बचपन
में एक विद्यार्थी कक्षा से तब निकल जाना मुनासिब समझा जब टोल के शिक्षक महाशय गणित
का घटाव (या वियोग) सिखाना चाह रहे थे | उस विद्यार्थी को सिर्फ़ योग सीखना था: आत्मा
से परमात्मा का योग, मानव से ईष्ट का योग, सत्य और परम तत्व से अभ्यासी का योग, गुरु
से शिष्य का योग; घटाव तो ईश्वर से भक्त को अलग कर देता है इसलिए उस विद्यार्थी को
वियोग सीखना नहीं भाया | यह कथा श्री गदाधर के विद्यालय जीवन की कथा है जो आगे चलकर रामकृष्ण परमहंस नाम से परिचित हुए |
समय
समय पर संतों और मतमाओं द्वारा योग को परिभाषित करने का प्रयास होता आ रहा है | योग
के स्वरूप का उद्घाटन करते हुए भी संतों के द्वारा निरंतर प्रयास हो रहे हैं | भारतीय
दर्शन में, षड् दर्शनों में से एक का नाम योग है।
योग दार्शनिक प्रणाली,सांख्य मतों के साथ निकटता से संबन्धित है। ऋषि पतंजलि
द्वारा व्याख्यायित योग संप्रदाय सांख्य मनोविज्ञान और तत्वमीमांसा को स्वीकार करता
है | सांख्य को इसलिए भी एक वैज्ञानिक आधार
मिला है जिसके अंतर्गत ईश्वरीय सत्ता को जीव रचना का विधायक माना गया |
(१)
पातञ्जल योग दर्शन के अनुसार - योगश्चित्तवृतिनिरोधः (1/2) अर्थात् चित्त की वृत्तियों
का निरोध ही योग है।
(२)
सांख्य दर्शन के अनुसार - पुरुषप्रकृत्योर्वियोगेपि योगइत्यमिधीयते। अर्थात् पुरुष
एवं प्रकृति के पार्थक्य को स्थापित कर पुरुष का स्व स्वरूप में अवस्थित होना ही योग
है।
(३)
विष्णुपुराण के अनुसार - योगः संयोग इत्युक्तः जीवात्म परमात्मने अर्थात् जीवात्मा
तथा परमात्मा का पूर्णतया मिलन ही योग है।
(४)
भगवद्गीता के अनुसार - सिद्धासिद्धयो समोभूत्वा समत्वं योग उच्चते (2/48) अर्थात् दुःख-सुख,
लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, शीत और उष्ण आदि द्वन्दों में सर्वत्र समभाव रखना योग है।
(५)
भगवद्गीता के अनुसार - तस्माद्दयोगाययुज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् अर्थात् कर्त्तव्य
कर्म बन्धक न हो, इसलिए निष्काम भावना से अनुप्रेरित होकर कर्त्तव्य करने का कौशल योग
है।
(६)
आचार्य हरिभद्र के अनुसार - मोक्खेण जोयणाओ सव्वो वि धम्म ववहारो जोगो अर्थात् मोक्ष
से जोड़ने वाले सभी व्यवहार योग हैं।
(७)
बौद्ध धर्म के अनुसार - कुशल चितैकग्गता योगः अर्थात् कुशल चित्त की एकाग्रता योग है।
हमारी
स्वतंत्र अवधारणाओं और ज्ञान की संरचनों के मुताबिक योग के प्रकार भेद भी गिनाए जा
सकते हैं | सबसे अधिक प्रामाणिक ग्रंथों में से दो श्रोत को चुना जा सकता है
| शिवसंहिता तथा गोरक्षशतक में योग के चार
प्रकारों का वर्णन मिलता है -
मंत्रयोगों
हष्ष्चैव लययोगस्तृतीयकः।
चतुर्थो
राजयोगः (शिवसंहिता , 5/11)
मंत्रो
लयो हठो राजयोगन्तर्भूमिका क्रमात्
एक
एव चतुर्धाऽयं महायोगोभियते॥ (गोरक्षशतकम् )
उपर्युक्त
दोनों श्लोकों के अनुसार योग के चार प्रकार हुए : मंत्रयोग, हठयोग लययोग व राजयोग।
मंत्र
योग के बारे में योगतत्वोपनिषद में कहा गया है-
योग
सेवन्ते साधकाधमाः।
(
अल्पबुद्धि धारण करनेवाले साधक मंत्रयोग से ईष्ट की सेवा करता है अर्थात मंत्रयोग उन
साधकों के लिए है जो सीमित बुद्धि या अल्पबुद्धि के धारक माने जाते हैं |)
मंत्रजप
मुख्यरूप से चार प्रकार से करने की बात कही गई है |
(1)
वाचिक (2) मानसिक (3) उपांशु (4) अणपा।
हठ
प्रदीपिका पुस्तक में हठ का अर्थ इस प्रकार दिया है-
हकारेणोच्यते
सूर्यष्ठकार चन्द्र उच्यते।
सूर्या
चन्द्रमसो र्योगाद्धठयोगोऽभिधीयते॥
“ह”
का अर्थ सूर्य तथा ठ का अर्थ चन्द्र है। सूर्य और चन्द्र की समान अवस्था हठयोग है।
शरीर में कई हजार नाड़ियाँ है उनमें तीन प्रमुख नाड़ियों का वर्णन है: सूर्यनाड़ी (अर्थात पिंगला ) दाहिने स्वर का प्रतीक
है। चन्द्रनाड़ी (अर्थात इड़ा) बायें स्वर का प्रतीक है। इन दोनों के बीच अवस्थान करनेवाली
तीसरी नाड़ी सुषुम्ना है। इस प्रकार संक्षेप में अगर कहा जाए तो हठयोग वह क्रिया है
जिसमें पिंगला और इड़ा नाड़ी के सहारे प्राण को सुषुम्ना नाड़ी में सन्निविष्ट कराकर
ब्रहमरन्ध्र में समाधिस्थ किया जाता है। योगतत्वोपनिषद में हठयोग के आठ अंगों का वर्णन
है- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि |
लय
योग
इस
योग के अंतर्गत चित्त अपने स्वरूप में विलीन हो जाता है | चित्त की निरुद्ध अवस्था
इस योग के अंतर्गत विचार्य विषय है | साधक
के चित्त् में जब चलते, बैठते, सोते और भोजन करते समय हर समय ब्रह्म का ध्यान रहे इसी
को लययोग कहते हैं। योगत्वोपनिषद में इस प्रकार वर्णन है- गच्छस्तिष्ठन स्वपन भुंजन् ध्यायेन्त्रिष्कलमीश्वरम्
स एव लययोगः स्यात (22-23) ||
राजयोग
एक
ऐसे योग का विधान शास्त्र में सन्दर्भित होता है जिसके अंतर्गत अन्य सभी योग -आचरणों
को समाविष्ट होता हुआ देखा जा सकता है | राजयोग का विषय चित्तवृत्तियों का निरोध करना
है। चित्त-वृत्ती निरुद्ध करने की विधि को सर्वाग्र महत्व का विषय माना गया |
महर्षि
पतंजलि के अनुसार समाहित चित्त वालों के लिए अभ्यास और वैराग्य तथा विक्षिप्त चित्त
वालों के लिए क्रियायोग का सहारा लेकर आगे बढ़ने का रास्ता सुझाया है। इन साधनों का
उपयोग करके साधक के क्लेशों का नाश होता है, चित्त प्रसन्न होकर ज्ञान का प्रकाश फैलता
है और विवेक ख्याति प्राप्त होती है।
योगाडांनुष्ठानाद
शुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिरा विवेक ख्यातेः (2/28)
राजयोग
के अन्तर्गत महर्षि पतंजलि ने अष्टांग को इस प्रकार बताया है-
यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टांगानि।
योग
के आठ अंगों में प्रथम पाँच बहिरंग तथा अन्य तीन अन्तरंग में आते हैं।
महर्षि
पतंजलि द्वारा प्रणीत योग, बुद्धि के नियंत्रण के लिए एक प्रणाली है जिसे राज योग के
रूप में जाना जाता है। पतंजलि उनके दूसरे सूत्र मे "योग" शब्द को परिभाषित
करते है, पूरे काम के लिए इसे व्याख्या सूत्र माना जाता है:
"योग: चित्त-वृत्ति निरोध: [- योग सूत्र 1.2
]"
तीन संस्कृत शब्दों के अर्थ पर यह संस्कृत परिभाषा टिकी
है। योग बुद्धि (चित्त) को विभिन्न रूप (वृत्ति) अपनाने से तथा विषयों में आविष्ट होने से रोकता तो है ही,
बुद्धि को अधिक सुचाग्र करते हुए व्यक्ति को अंतर्मुखी बनने के लिए सहायक होता है
|
राज योग (महर्षि पतंजलि प्रणीत हठयोग) के आठ अंग हैं:
यम : सत्य, अहिंसा, अस्तेय (चोरी न करना), अपरिग्रह (अनावश्यक
धन और सम्पत्ति एकत्र न करना), ब्रह्मचर्य ।
नियम (पांच "धार्मिक क्रिया") : शौच (पवित्रता),
सन्तोष, तपस, स्वाध्याय और ईश्वरप्राणिधान।
आसन : स्थिर (मन,
चित्त, देह और बुद्धि ) अवस्था प्राप्त करते हुए व्यक्ति अगर सुख अनुभव कर सके उसे
योगासन या सिर्फ़ आसान कहेंगे |
प्राणायाम : प्राण,
सांस, "अयाम ", को नियंत्रित करना या बंद करना। साथ ही जीवन शक्ति को नियंत्रण
करने की व्याख्या की गयी है।
प्रत्याहार : बाहरी
वस्तुओं से भावना अंगों के प्रत्याहार |
धारणा ("एकाग्रता"): एक ही लक्ष्य पर ध्यान लगाना |
ध्यान : ध्यान की वस्तु की प्रकृति का गहन चिंतन |
समाधि : ध्यान के वस्तु को चैतन्य के साथ विलय करना। इसके
दो प्रकार है - सविकल्प और निर्विकल्प। निर्विकल्प समाधि में संसार में वापस आने का
कोई मार्ग या व्यवस्था नहीं होती। यह योग पद्धति की चरम अवस्था है।
इस
योग के अंतर्गत आत्म तत्व के विविध स्वरूपों का विवेचन है और यह विधान हर स्तर का जीवन
जीनेवाले विविध अभ्यासी के लिए किया जानेवाला योग बताया गया | विचार, स्मृति और बुद्धि
में समाधि पाने के बाद व्यक्ति खुद के अस्तित्व को विश्व ब्रह्मांड के आलोक में भली
भाँति समझ सकेगा ; इतना ही नहीं विश्व चराचर में अपनी भूमिका भी तय कर सकेगा
| योग के महत्व और जीवन सुधारक परम तत्व होने के विषय को लेकर समय समय पर संवाद होते आ रहा है और आगे भी होता
ही रहेगा | कई प्रकार से इस विधान को दार्शनिकों और विवेचकों के माध्यम से समझने का
प्रयास भी अक्सर होता आ रहा है |
सर्व
प्रथम सांख्य, वेदांत और राज योग के बीच समन्वय स्थापित करने का प्रयास महर्षि वेद
व्यास के द्वारा महाभारत के भीष्म पर्व के
अंतर्गत किया गया | उसी पर्व के एक संकलन को हम श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में पाते हैं | गीता के प्रथम अध्याय को
अर्जुन विषाद योग कहा गया | प्रथम अध्याय में कौरव और पांडव इन दोनों सेनाओं का वर्णन
किया जाता है। शंख बजाने के पश्चात अर्जुन सेना को देखने के लिए रथ को मैदान के बीच
में ले जाने के लिए श्री कृष्ण से कहता है। तब मोहयुक्त होकर अर्जुन कायरता
पूर्ण तथा शोक युक्त वचन कहने लग जाता है। गीता का मूल विषय ही है सांख्य, वेदांत और
हठयोग में समन्वय स्थापित करते हुए एक योगी को उत्तम तथा धर्मार्थ मार्ग पर चलने के
लिए प्रेरित करना |
कभी कभी हम इस बात को लेकर ज्यादा व्यस्त
हो जाते हैं जब किसी व्रत विशेष को लेकर चर्चा चल पड़े। स्वाध्याय के बारे में भी वही परिस्थिति का
मिर्माण होता हुआ दिखेगा। सामान्य सृष्टि
से यह समझा जाता है कि किसी वरिष्ठ के मदद के बिना किसी साहित्य का अध्ययन ही
स्वाध्याय समझा जाये। इसका मतलब है स्व-
का अध्ययन। अपनी स्थिति को सही तरीके से
जान लेना ही स्वाध्याय समझा जाएगा। ेसे और
भी कई अर्थ निकाले जाते होंगे।
सोच विचार तब और
बढ़ जाता है जब हम किसी कृति का नाम ही स्वाध्याय रख दें ! यह कुछ ऐसा समझा जाना
चाहिए जब हम श्री गंगा जी की पूजा करने के लिए उसी जल से अंजलि दे दें। कुछ ख़ास माने शायद ही निकालता होगा। जिस व्यक्ति को सनातनी परंपरा का रीति रिवाज
विषयक सम्यक ज्ञान नहीं रहा होगा उसे तो यह काम बड़ा अजीब ही लगेगा, और मूर्खता भी
समझी जायेगी। किसी संत को भी असा अजीब ही
लगा था जब उनहोंने देखा कि तरपान के समय पूर्वजों को जल देने के लिए अंजलि नदी और
जलाशय में डाली जा रही थी; वो भी बड़े ही श्रद्धा के साथ और काफी नियमों का पालन
करते हुए।
इस शीर्षक के
जरिये कुछ ऐसे ही विषयों पर चर्चा सत्र चलाई जा रही है जिसके आस पास विचार और
परंपरा विषयक चर्चा और अध्ययन को गति मिल सकेगी। अभ्यासियों के सम्मुख एक नया आयाम
भी खुल सकेगा। सिर्फ इतना ही नहीं हम उन
सभी क्रियाओं के जरिये स्व- के अध्ययन विषयक कृति को भी संदर्भित कर सकेंगे। योग दर्शन में स्वाध्याय को नियम के अंतर्गत एक
व्रत माना गया। वहां चित्त के विक्षेप
विषयक अनुक्रिया पर अंकुश पाने के लिए इस व्रत कि अहमियत गिनाई गई है। अगर वेद का
आधार मानें तो पाते हैं कि पवित्र ग्रंथों का अध्ययन ही स्वाध्याय है।
ग़रीबी
उन्मूलन अगर किसी संस्था का ध्येय हो सकता तो सरकार बहादुर का भी यही ध्येय है और उनका
प्रयास भी यही है कि ग़रीब नागरिक के ग़रीबी से ग्रसित होना का सही कारण पता करते हुए
उसे उस ग़रीबी के जाता जाल से छुड़ा सके | पुराण और वेदों में ऐसे काफ़ी उदाहरण मिलते
हैं जिसके ज़रिए हम एक सम्राट और एक नागरिक के संवेदनशीलता को समझ सकें | एकबार भक्त
सुदामा के परिवार वर्ग ने सुझाया कि उनके मित्र श्री कृष्ण कन्हैया सम्राट बन चुके
, अब तो सुदामा को इस अवसर का भरपूर लाभ उठाते हुए अपनी ग़रीबी दूर कर लेनी चाहिए
! पर सुदामा के मन में कुछ संकोच था; जिस मित्र को एक मुट्ठी चावल की भुजिया नहीं दे
पाए थे उसी मित्र से कुछ कैसे माँगा जाय ! और फिर मित्र भला किसी मित्र से कहाँ कुछ
माँगता है ! मित्र से सिर्फ़ मैत्री का ही संबंध रहता है | उस मैत्री के संबंध में
स्वार्थ का आना उचित नहीं है और ऐसा करना भी नहीं चाहिए |
काफ़ी
अनुनय विनय करने के बाद सुदामा मान तो गये पर उनके मन में किसी और कारण से आनंद और
हर्ष का बाढ़ आया ; काफ़ी लंबी अवधि के बाद उन्हें अपने मित्र से मिलने का मौका मिलेगा
और इस मौके को सुअवसर में बदलते हुए सुदामा वही भेंट लेकर निकल पड़े आश्रम प्रवास के
समय जो कृष्ण के माँगने पर भी नहीं दे पाए थे | उस कारण से बने आत्म ग्लानि को धो डालने
का समय आया है यह जानकार भी सुदामा हर्षित हो रहे थे |
गिरिधारी
का मित्र वह भी ऐसी दशा में ! विश्वास भला किसे हो पाता , अतः सैनिकों का भ्रमित होना
भी जायज़ था | सुदामा को कृष्ण के सिंह द्वार पर ही रोका गया | अंदर जानकारी भेजी गई,
और फिर क्या; गिरिधारी अपने उस मित्र को गले
लगाने के लिए दौर पड़े और अपने परिषदों को अचंभे में डाल दिया | उस मित्र को अपने ही
आसन पर बिठाया और दोनों का प्रेम संवाद फिर देखते ही बन रहा था |
बचपन
में एक विद्यार्थी कक्षा से तब निकल जाना मुनासिब समझा जब टोल के शिक्षक महाशय गणित
का घटाव (या वियोग) सिखाना चाह रहे थे | उस विद्यार्थी को सिर्फ़ योग सीखना था: आत्मा
से परमात्मा का योग, मानव से ईष्ट का योग, सत्य और परम तत्व से अभ्यासी का योग, गुरु
से शिष्य का योग; घटाव तो ईश्वर से भक्त को अलग कर देता है इसलिए उस विद्यार्थी को
वियोग सीखना नहीं भाया | यह कथा श्री गदाधर के विद्यालय जीवन की कथा है जो आगे चलकर रामकृष्ण परमहंस नाम से परिचित हुए |
समय
समय पर संतों और मतमाओं द्वारा योग को परिभाषित करने का प्रयास होता आ रहा है | योग
के स्वरूप का उद्घाटन करते हुए भी संतों के द्वारा निरंतर प्रयास हो रहे हैं | भारतीय
दर्शन में, षड् दर्शनों में से एक का नाम योग है।
योग दार्शनिक प्रणाली,सांख्य मतों के साथ निकटता से संबन्धित है। ऋषि पतंजलि
द्वारा व्याख्यायित योग संप्रदाय सांख्य मनोविज्ञान और तत्वमीमांसा को स्वीकार करता
है | सांख्य को इसलिए भी एक वैज्ञानिक आधार
मिला है जिसके अंतर्गत ईश्वरीय सत्ता को जीव रचना का विधायक माना गया |
(१)
पातञ्जल योग दर्शन के अनुसार - योगश्चित्तवृतिनिरोधः (1/2) अर्थात् चित्त की वृत्तियों
का निरोध ही योग है।
(२)
सांख्य दर्शन के अनुसार - पुरुषप्रकृत्योर्वियोगेपि योगइत्यमिधीयते। अर्थात् पुरुष
एवं प्रकृति के पार्थक्य को स्थापित कर पुरुष का स्व स्वरूप में अवस्थित होना ही योग
है।
(३)
विष्णुपुराण के अनुसार - योगः संयोग इत्युक्तः जीवात्म परमात्मने अर्थात् जीवात्मा
तथा परमात्मा का पूर्णतया मिलन ही योग है।
(४)
भगवद्गीता के अनुसार - सिद्धासिद्धयो समोभूत्वा समत्वं योग उच्चते (2/48) अर्थात् दुःख-सुख,
लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, शीत और उष्ण आदि द्वन्दों में सर्वत्र समभाव रखना योग है।
(५)
भगवद्गीता के अनुसार - तस्माद्दयोगाययुज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् अर्थात् कर्त्तव्य
कर्म बन्धक न हो, इसलिए निष्काम भावना से अनुप्रेरित होकर कर्त्तव्य करने का कौशल योग
है।
(६)
आचार्य हरिभद्र के अनुसार - मोक्खेण जोयणाओ सव्वो वि धम्म ववहारो जोगो अर्थात् मोक्ष
से जोड़ने वाले सभी व्यवहार योग हैं।
(७)
बौद्ध धर्म के अनुसार - कुशल चितैकग्गता योगः अर्थात् कुशल चित्त की एकाग्रता योग है।
हमारी
स्वतंत्र अवधारणाओं और ज्ञान की संरचनों के मुताबिक योग के प्रकार भेद भी गिनाए जा
सकते हैं | सबसे अधिक प्रामाणिक ग्रंथों में से दो श्रोत को चुना जा सकता है
| शिवसंहिता तथा गोरक्षशतक में योग के चार
प्रकारों का वर्णन मिलता है -
मंत्रयोगों
हष्ष्चैव लययोगस्तृतीयकः।
चतुर्थो
राजयोगः (शिवसंहिता , 5/11)
मंत्रो
लयो हठो राजयोगन्तर्भूमिका क्रमात्
एक
एव चतुर्धाऽयं महायोगोभियते॥ (गोरक्षशतकम् )
उपर्युक्त
दोनों श्लोकों के अनुसार योग के चार प्रकार हुए : मंत्रयोग, हठयोग लययोग व राजयोग।
मंत्र
योग के बारे में योगतत्वोपनिषद में कहा गया है-
योग
सेवन्ते साधकाधमाः।
(
अल्पबुद्धि धारण करनेवाले साधक मंत्रयोग से ईष्ट की सेवा करता है अर्थात मंत्रयोग उन
साधकों के लिए है जो सीमित बुद्धि या अल्पबुद्धि के धारक माने जाते हैं |)
मंत्रजप
मुख्यरूप से चार प्रकार से करने की बात कही गई है |
(1)
वाचिक (2) मानसिक (3) उपांशु (4) अणपा।
हठ
प्रदीपिका पुस्तक में हठ का अर्थ इस प्रकार दिया है-
हकारेणोच्यते
सूर्यष्ठकार चन्द्र उच्यते।
सूर्या
चन्द्रमसो र्योगाद्धठयोगोऽभिधीयते॥
“ह”
का अर्थ सूर्य तथा ठ का अर्थ चन्द्र है। सूर्य और चन्द्र की समान अवस्था हठयोग है।
शरीर में कई हजार नाड़ियाँ है उनमें तीन प्रमुख नाड़ियों का वर्णन है: सूर्यनाड़ी (अर्थात पिंगला ) दाहिने स्वर का प्रतीक
है। चन्द्रनाड़ी (अर्थात इड़ा) बायें स्वर का प्रतीक है। इन दोनों के बीच अवस्थान करनेवाली
तीसरी नाड़ी सुषुम्ना है। इस प्रकार संक्षेप में अगर कहा जाए तो हठयोग वह क्रिया है
जिसमें पिंगला और इड़ा नाड़ी के सहारे प्राण को सुषुम्ना नाड़ी में सन्निविष्ट कराकर
ब्रहमरन्ध्र में समाधिस्थ किया जाता है। योगतत्वोपनिषद में हठयोग के आठ अंगों का वर्णन
है- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि |
लय
योग
इस
योग के अंतर्गत चित्त अपने स्वरूप में विलीन हो जाता है | चित्त की निरुद्ध अवस्था
इस योग के अंतर्गत विचार्य विषय है | साधक
के चित्त् में जब चलते, बैठते, सोते और भोजन करते समय हर समय ब्रह्म का ध्यान रहे इसी
को लययोग कहते हैं। योगत्वोपनिषद में इस प्रकार वर्णन है- गच्छस्तिष्ठन स्वपन भुंजन् ध्यायेन्त्रिष्कलमीश्वरम्
स एव लययोगः स्यात (22-23) ||
राजयोग
एक
ऐसे योग का विधान शास्त्र में सन्दर्भित होता है जिसके अंतर्गत अन्य सभी योग -आचरणों
को समाविष्ट होता हुआ देखा जा सकता है | राजयोग का विषय चित्तवृत्तियों का निरोध करना
है। चित्त-वृत्ती निरुद्ध करने की विधि को सर्वाग्र महत्व का विषय माना गया |
महर्षि
पतंजलि के अनुसार समाहित चित्त वालों के लिए अभ्यास और वैराग्य तथा विक्षिप्त चित्त
वालों के लिए क्रियायोग का सहारा लेकर आगे बढ़ने का रास्ता सुझाया है। इन साधनों का
उपयोग करके साधक के क्लेशों का नाश होता है, चित्त प्रसन्न होकर ज्ञान का प्रकाश फैलता
है और विवेक ख्याति प्राप्त होती है।
योगाडांनुष्ठानाद
शुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिरा विवेक ख्यातेः (2/28)
राजयोग
के अन्तर्गत महर्षि पतंजलि ने अष्टांग को इस प्रकार बताया है-
यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टांगानि।
योग
के आठ अंगों में प्रथम पाँच बहिरंग तथा अन्य तीन अन्तरंग में आते हैं।
महर्षि
पतंजलि द्वारा प्रणीत योग, बुद्धि के नियंत्रण के लिए एक प्रणाली है जिसे राज योग के
रूप में जाना जाता है। पतंजलि उनके दूसरे सूत्र मे "योग" शब्द को परिभाषित
करते है, पूरे काम के लिए इसे व्याख्या सूत्र माना जाता है:
"योग: चित्त-वृत्ति निरोध: [- योग सूत्र 1.2
]"
तीन संस्कृत शब्दों के अर्थ पर यह संस्कृत परिभाषा टिकी
है। योग बुद्धि (चित्त) को विभिन्न रूप (वृत्ति) अपनाने से तथा विषयों में आविष्ट होने से रोकता तो है ही,
बुद्धि को अधिक सुचाग्र करते हुए व्यक्ति को अंतर्मुखी बनने के लिए सहायक होता है
|
राज योग (महर्षि पतंजलि प्रणीत हठयोग) के आठ अंग हैं:
यम : सत्य, अहिंसा, अस्तेय (चोरी न करना), अपरिग्रह (अनावश्यक
धन और सम्पत्ति एकत्र न करना), ब्रह्मचर्य ।
नियम (पांच "धार्मिक क्रिया") : शौच (पवित्रता),
सन्तोष, तपस, स्वाध्याय और ईश्वरप्राणिधान।
आसन : स्थिर (मन,
चित्त, देह और बुद्धि ) अवस्था प्राप्त करते हुए व्यक्ति अगर सुख अनुभव कर सके उसे
योगासन या सिर्फ़ आसान कहेंगे |
प्राणायाम : प्राण,
सांस, "अयाम ", को नियंत्रित करना या बंद करना। साथ ही जीवन शक्ति को नियंत्रण
करने की व्याख्या की गयी है।
प्रत्याहार : बाहरी
वस्तुओं से भावना अंगों के प्रत्याहार |
धारणा ("एकाग्रता"): एक ही लक्ष्य पर ध्यान लगाना |
ध्यान : ध्यान की वस्तु की प्रकृति का गहन चिंतन |
समाधि : ध्यान के वस्तु को चैतन्य के साथ विलय करना। इसके
दो प्रकार है - सविकल्प और निर्विकल्प। निर्विकल्प समाधि में संसार में वापस आने का
कोई मार्ग या व्यवस्था नहीं होती। यह योग पद्धति की चरम अवस्था है।
इस
योग के अंतर्गत आत्म तत्व के विविध स्वरूपों का विवेचन है और यह विधान हर स्तर का जीवन
जीनेवाले विविध अभ्यासी के लिए किया जानेवाला योग बताया गया | विचार, स्मृति और बुद्धि
में समाधि पाने के बाद व्यक्ति खुद के अस्तित्व को विश्व ब्रह्मांड के आलोक में भली
भाँति समझ सकेगा ; इतना ही नहीं विश्व चराचर में अपनी भूमिका भी तय कर सकेगा
| योग के महत्व और जीवन सुधारक परम तत्व होने के विषय को लेकर समय समय पर संवाद होते आ रहा है और आगे भी होता
ही रहेगा | कई प्रकार से इस विधान को दार्शनिकों और विवेचकों के माध्यम से समझने का
प्रयास भी अक्सर होता आ रहा है |
सर्व
प्रथम सांख्य, वेदांत और राज योग के बीच समन्वय स्थापित करने का प्रयास महर्षि वेद
व्यास के द्वारा महाभारत के भीष्म पर्व के
अंतर्गत किया गया | उसी पर्व के एक संकलन को हम श्रीमद्भगवद्गीता के रूप में पाते हैं | गीता के प्रथम अध्याय को
अर्जुन विषाद योग कहा गया | प्रथम अध्याय में कौरव और पांडव इन दोनों सेनाओं का वर्णन
किया जाता है। शंख बजाने के पश्चात अर्जुन सेना को देखने के लिए रथ को मैदान के बीच
में ले जाने के लिए श्री कृष्ण से कहता है। तब मोहयुक्त होकर अर्जुन कायरता
पूर्ण तथा शोक युक्त वचन कहने लग जाता है। गीता का मूल विषय ही है सांख्य, वेदांत और
हठयोग में समन्वय स्थापित करते हुए एक योगी को उत्तम तथा धर्मार्थ मार्ग पर चलने के
लिए प्रेरित करना |
कभी कभी हम इस बात को लेकर ज्यादा व्यस्त
हो जाते हैं जब किसी व्रत विशेष को लेकर चर्चा चल पड़े। स्वाध्याय के बारे में भी वही परिस्थिति का
मिर्माण होता हुआ दिखेगा। सामान्य सृष्टि
से यह समझा जाता है कि किसी वरिष्ठ के मदद के बिना किसी साहित्य का अध्ययन ही
स्वाध्याय समझा जाये। इसका मतलब है स्व-
का अध्ययन। अपनी स्थिति को सही तरीके से
जान लेना ही स्वाध्याय समझा जाएगा। ेसे और
भी कई अर्थ निकाले जाते होंगे।
सोच विचार तब और
बढ़ जाता है जब हम किसी कृति का नाम ही स्वाध्याय रख दें ! यह कुछ ऐसा समझा जाना
चाहिए जब हम श्री गंगा जी की पूजा करने के लिए उसी जल से अंजलि दे दें। कुछ ख़ास माने शायद ही निकालता होगा। जिस व्यक्ति को सनातनी परंपरा का रीति रिवाज
विषयक सम्यक ज्ञान नहीं रहा होगा उसे तो यह काम बड़ा अजीब ही लगेगा, और मूर्खता भी
समझी जायेगी। किसी संत को भी असा अजीब ही
लगा था जब उनहोंने देखा कि तरपान के समय पूर्वजों को जल देने के लिए अंजलि नदी और
जलाशय में डाली जा रही थी; वो भी बड़े ही श्रद्धा के साथ और काफी नियमों का पालन
करते हुए।
इस शीर्षक के
जरिये कुछ ऐसे ही विषयों पर चर्चा सत्र चलाई जा रही है जिसके आस पास विचार और
परंपरा विषयक चर्चा और अध्ययन को गति मिल सकेगी। अभ्यासियों के सम्मुख एक नया आयाम
भी खुल सकेगा। सिर्फ इतना ही नहीं हम उन
सभी क्रियाओं के जरिये स्व- के अध्ययन विषयक कृति को भी संदर्भित कर सकेंगे। योग दर्शन में स्वाध्याय को नियम के अंतर्गत एक
व्रत माना गया। वहां चित्त के विक्षेप
विषयक अनुक्रिया पर अंकुश पाने के लिए इस व्रत कि अहमियत गिनाई गई है। अगर वेद का
आधार मानें तो पाते हैं कि पवित्र ग्रंथों का अध्ययन ही स्वाध्याय है।