अपने
देश में सेवा भाव से काम करनेवाली
संस्थाओं की कमी नहीं
है | उस संस्थाओं को
देश विदेश से सेवा कार्य
और ग़रीब कल्याण के नाम से
पैसे भी मिल जाते
हैं | इस प्रकार से
सेवा करने के लिए बनी
संस्थाओं की गतिविधि चलती
चली आ रही है
| उसी संस्था के आस पास
समान विचारधारा वाले और समरूप तत्वज्ञान
से प्रबुद्ध होकर कार्य करनेवालों का जमावड़ा भी
होता आ रहा है
| जब कोई व्यक्ति किसी दरिद्र व्यक्ति तक आसानी सा
पहुँचना चाहे तो भी इन
सेवा भावी संस्थानों के ज़रिए पहुँचने
का प्रयास किया जाता है ताकि दान
को महिमा मंडित किया जा सके और
उस सेवा भाव का मूल मकसद
सध सके |
आचार्य
छाणक्य कहा करते थे कि सत्य
अगर कड़वा हो और अप्रिय
हो तो न कहा
जाय | पर सत्य को
अगर हम इश्वर मान
लें तो असत्य कहना
या सत्य को छिपाने के
लिए गोल मटोल बातें करना भी कहाँ तक
मानी हो सकेगा !
ध्येय
से भटकाव
संस्थाओं
के बनने की प्रक्रिया में
कई ध्येय को सामने रखा
जाता है और उस
ध्येय को पाने के
लिए संस्था की गतिविधियाँ बनाई
जाती है | अगर ध्येय की प्राप्ति हो
गई या फिर गतिविधियों
को चलाने के लिए कोई
माध्यम न बचा हो
तो संस्था का निष्क्रिय होना
स्वाभाविक है | उस परिस्थितीई में
संस्था को कुछ ऐसे
तट का चुनाव करना
होता है जहाँ से
विकास कार्य में लगे लोगों की उदार पूर्ति
का काम चलता रहे | यह विषय सभी
संस्थाओं के लिए सत्य
नहीं भी हो सकता;
जैसे शिक्षा और स्वास्थ्य जैसा
विषय निरंतर ही चलनेवाला है
; किसी ख़ास तत्व को ध्यान में
रखकर नागरिकों का प्रबोधन, भ्रष्टाचार
के खिलाफ मोर्चा खोलना और धर्माचरण से
नागरिकों को जोड़ना आदि
विषय नित्य जीवन का अंग है
| अतः ऐसे विषयों से जुड़ी संस्थाओं
की अहमियत भी सदा के
लिए रहने ही वाली है
| प्रश्न उन संस्थाओं के
बारे में निर्माण होता है जिन्हें ग़रीबी
उन्मूलन का बीड़ा उठाते
हुए जनता जनार्दन तक पहुँचना है
और ग़रीब कल्याण योजनाओं के ज़रिए राष्ट्र
निर्माण में अपनी भूमिका अदा करना है |
ग़रीबी
उन्मूलन अगर किसी संस्था का ध्येय हो
सकता तो सरकार बहादुर
का भी यही ध्येय
है और उनका प्रयास
भी यही है कि ग़रीब
नागरिक के ग़रीबी से
ग्रसित होना का सही कारण
पता करते हुए उसे उस ग़रीबी के
जाता जाल से छुड़ा सके
|
संवेदनशीलता
पुराण और वेदों में
ऐसे काफ़ी उदाहरण मिलते हैं जिसके ज़रिए हम एक सम्राट
और एक नागरिक के
संवेदनशीलता को समझ सकें
| एकबार भक्त सुदामा के परिवार वर्ग
ने सुझाया कि उनके मित्र
श्री कृष्ण कन्हैया सम्राट बन चुके , अब
तो सुदामा को इस अवसर
का भरपूर लाभ उठाते हुए अपनी ग़रीबी दूर कर लेनी चाहिए
! पर सुदामा के मन में
कुछ संकोच था; जिस मित्र को एक मुट्ठी
चावल की भुजिया नहीं
दे पाए थे उसी मित्र
से कुछ कैसे माँगा जाय ! और फिर मित्र
भला किसी मित्र से कहाँ कुछ
माँगता है ! मित्र से सिर्फ़ मैत्री
का ही संबंध रहता
है | उस मैत्री के
संबंध में स्वार्थ का आना उचित
नहीं है और ऐसा
करना भी नहीं चाहिए
|
काफ़ी अनुनय विनय करने के बाद सुदामा
मान तो गये पर
उनके मन में किसी
और कारण से आनंद और
हर्ष का बाढ़ आया
; काफ़ी लंबी अवधि के बाद उन्हें
अपने मित्र से मिलने का
मौका मिलेगा और इस मौके
को सुअवसर में बदलते हुए सुदामा वही भेंट लेकर निकल पड़े आश्रम प्रवास के समय जो
कृष्ण के माँगने पर
भी नहीं दे पाए थे
| उस कारण से बने आत्म
ग्लानि को धो डालने
का समय आया है यह जानकार
भी सुदामा हर्षित हो रहे थे
|
गिरिधारी का मित्र वह
भी ऐसी दशा में ! विश्वास भला किसे हो पाता , अतः
सैनिकों का भ्रमित होना
भी जायज़ था | सुदामा को कृष्ण के
सिंह द्वार पर ही रोका
गया | अंदर जानकारी भेजी गई, और फिर क्या; गिरिधारी
अपने उस मित्र को
गले लगाने के लिए दौर
पड़े और अपने परिषदों
को अचंभे में डाल दिया | उस मित्र को
अपने ही आसन पर
बिठाया और दोनों का
प्रेम संवाद फिर देखते ही बन रहा
था |