स्वधर्म

गीता (हमें इस बार श्री मद्भागवद्गीता ही समझते हुए चलना होगा ) विषय पर , या फिर गीता के प्रतिपाद्य विषयों को आधार मानकर भाष्य लिखने की परम्पपरा हमारे लिए कोई नया नहीं ; इस विषय काफी विमर्श भी समय समय पर होते आये; उम्मीद यही रखी जाती है किआगे भी ऐसा होते ही रहनेवाला , और समय समय पर उस अमृत सुधा का स्वाद हमें भी मिलता ही रहेगा। 

गीता का मुख्य प्रतिपादन भक्ति हो सकते होंगे, पर साथ ही साथ कर्म और ज्ञान के अधिष्ठान की बात भी कही जा सकेगी।  विविध भाष्य में विविध प्रकार  के संचयन और समाकलन का विज्ञान भले ही परिलक्षित हो, पर प्रमुख रूप से इस आशय की पुष्टि जरूर हो सकेगी कि विविध विचार सम्प्रेषण की प्रक्रिया के बीच सामंजस्य स्थापित करने का काम काफी कुशलता से गीता के जरिये समय समय पर होता रहा।  कभी कभी कुछ ऐसी भी घटना घटती है जो हमें सोचने के लिए मजबूर कर देता है; और फिर हम उसी आशय कि पुष्टि  करते हुए गीता का आश्रय लेते आये।  भक्ति, उसमें भी विशुद्ध भक्ति, का विषय भी कुछ ऐसा ही समझें।

अक्सर देखा गया है कि भगवान अपने भक्तों से काम करवा लेते हैं   कुछ ऐसी व्यवस्था बनती है जिससे अभीष्ट लक्ष्य प्राप्ति में सुगमता का निर्माण होने लगता है   

            दक्षिण भारत में एक कवि दरिद्र परिवार से थे, पर बहुत माने हुए शिव भक्त थे   उसी राज्य का राजा भी एक बड़ा शिव भक्त था   शंकर भगवान ने दोनों को सपना दिया   दरिद्र कवि के मंदिर में आएँगे, तथा राजा के राज्य में आएँगे, ऐसा बताया   संयोगवश राजा एक विशाल शिव मंदिर का भी निर्माण करवा रहा था   उनको लगा की ईष्ट देवता को उसी मंदिर में प्रतिष्ठित करना संभव हो  सकेगा   उनके पास ऐसी भी खबर आई की किसी गाँव में भजन कीर्तन में लोग झूम रहे हैं   उसी गाँव एक दरिद्र ब्राह्मण के यहाँ भोलेनाथ आएँगे ऐसा सपना खुद शंकर भगवान ने दिया है   मज़े की बात यह है कि उस ब्राह्मण का मंदिर सपने का है   राजा उस ब्राह्मण से मिलने के लिए निकल पड़े   गाँव में पेड़ के नीचे ध्यानरत उस ब्राह्मण से मंदिर का विवरण सुनते रहे तथा अपने मंदिर से मिलाते रहे   दोनों मंदिर संपूर्ण रूप से मिल रहा था ।  यह असंभव को संभव करने का काम करने वाले ईष्ट देवता शिव दोनों भक्तों के अंतर्मन में विराजमान थे   उपस्थित जनता इस घटना को प्रत्यक्ष कर रही थी   सबके मन में  एक ही प्रश्न था ।  दोनों भक्तों में इसके पहले कभी मुलाकात नहीं हुई थी, पर निर्माण में समानता आने का क्या रहस्य हो सकता है  ! रहस्य का कारण तो प्रभु भक्ति से था ।  दोनों का अंतर्मन शिव भक्ति से ओतप्रोत था ।  अतः उनके उपासनाओं में समानता का होना एक नैसर्गिक घटना ही है ।  

            भगवान ने दोनों भक्तों के पुरुषार्थ को जोड़कर असंभव को संभव कर दिया ।  एक निष्ठावान भक्त को उसके सपने का मंदिर पाने का मार्ग निकाला ।  उसके मंदिर में आकर उसी राज्य के राजा को भी धन्य  किया   

            मंदिर तो मन में भी हो सकता है ।  उपासना के लिए सदैव पैसा चाहिए ऐसा भी नहीं है   हम जीवन मंत्र से भी अपने ईष्ट देवता को प्रतिष्ठित कर सकते हैं ।  भगवान को तलाशते हुए स्वामी विवेकानंद अपने गुरु रामकृष्ण के पास पहुँच गये थे ।  सिर्फ़ इतना ही नहीं भगवान का दर्शन करने के लिए तैयार भी हो गये ।  जब विग्रह के सामने कुछ निवेदन करने की बारी आई तो उनका मन त्याग और वैराग्य की ओर चला गया ।  भौतिक सुख सुविधा के बारे में कहने से चुके ।  असली भक्ति सुधा का धनी जीवन सबके लिए सुख सुविधाएँ तलाशते रहता है ।  उन्होंने भी ऐसा ही कर पाने लायक शक्ति अपने ईष्ट देवता सा पाना चाहा 

एक भक्त का पहला गुण तो सरलता, सादगी और निष्ठा से परिपूर्ण मन ही है   उसके मन में शंकाओं के लिए कोई स्थान नहीं रहता है   भक्त भी भगवान को अंतर्मन में समा सकता है   भगवान  भी भक्त की आकांक्षाओं  पर खरे उतरते हैं   दोनों का संवाद भी आत्मिक संवाद होता है   अपने देश में हाथरस नामक एक रेल स्टेशन पर एक बार एक स्वामीजी काफ़ी देर तक बैठे थे   समय भी बीता जा रहा था    उनके बैठे रहने की बात स्टेशन मास्टर को बताया गया ।  मास्टरजी ने उस सन्यासी को कुछ न कहने के लिए सबको बताया ।  आख़िर वो  खुद ही सन्यासी के पास गये तथा हाल चाल पूछा ।  बातचीत करके काफ़ी प्रभावित भी हुए ।  स्वामीजी का भक्त बनने के लिए भी मास्टरजी  आग्रही हुए   स्वामीजी ने कहा कि  अगर मास्टरजी अपने सुंदर चेहरे पर राख लगाकर आ सकें तो दीक्षा ज़रूर मिलेगी   मास्टरजी हक़ीकत में चेहरे पर राख लगाकर आ गये   अपने भक्त की सरलता के सामने स्वामीजी बिल्कुल ही विवश थे   अपने भक्त को उन्हें स्वीकार करना पड़ा ।  वो  भक्त ही उनके सन्यास जीवन का पहला भक्त था   

            भक्ति की धारा में चल पड़ने का अनेकोनेक उदाहरण हम देख  सकते हैं   सबका एक ही ध्येय रहा  : सर्वजन कल्याण, जन सेवा तथा धर्मार्थ सेवा ।  भक्ति की धारा में ब्रह्म विद्या का अभ्यास करने वाले आचार्य विनोबा भी जनहित में ही कृत कर्मों को अंजाम देते थे   उनका व्यक्ति जीवन भी लोकहितार्थ तपस्या का ही मानक बना ।  भक्ति का ही व्यापक स्वरूप राष्ट्रभक्ति है; जो अपने नागरिकों को आवश्यपालनीय का विधान अपनाते हुए करना है ।  एक नागरिक जीवन का पहला ध्येय ही राष्ट्रभक्ति है    राष्ट्रभक्ति को धूमिल करने वाले सभी तत्वों की पहचान करते हुए एक ऐसी व्यवस्था कायम करना होगा जिसमें सभी नागरिक अपने राष्ट्र के प्रति    कर्तव्यपरायण   होने के साथ साथ दायत्वशील भी हो सकें   

            जिन्होंने राष्ट्र को ही अपना ईष्ट देवता मान लिया हो उनके लिए यह स्वाभाविक ही है कि सभी कर्मों को राष्ट्रहित में किया जाने वाला पुरुषार्थ मान लें   उनका जीवन भी व्यक्ति जीवन से उभरकर सामुदायिक जीवन के रूप में हमारे सम्मुख प्रतिभासित होता रहेगा   यह राष्ट्रहित में काम करनेवाले कार्यकर्ता का भी लक्षण है    उसके लिए ज़िम्मेदारी बाँटने तथा  आदेश   आने का कोई महत्व नहीं रहता है   कार्यकर्ता तो एक  अनुशाशित व्यवस्था में अपने अंतर्मन में समाविष्ट ईष्ट देवता के निर्देश पर स्वतः स्फूर्त  क्रियाओं को अंजाम देते रहता है   ऐसे विचारवंत कार्यकर्ताओं का होना एक राष्ट्र की सफलता का पहला मानक होगा    अदूर भविष्य में उन्हें ही अग्रज की भूमिका में देखना होगा 

भक्ति मार्ग में परमेश्वर के सद्गुणों की वंदना की जाती है ।  उस परम सत्ता के दिव्य स्वरूप को याद करते हुए उसी के गुणगान में मुखरित होना पड़ता है ।  जिस अविनाशी ब्रह्म के ऊपर मन और बुद्धि को टिकाए रखने की बात गीता में कही जा रही है वो  तत्व और कोई नही , त्रिगुण से परे पुरुष ही है ।  देहाभिमानी के द्वारा अव्यक्त विषयों की प्राप्ति दुःखों के द्वारा ही होता है ।   

जो सभी कर्म फलों का त्याग करते हुए मन और बुद्धि को उस परम सत्ता रूपी अविनाशी ब्रह्म में लगा पाता है उसे शीघ्र ही मुक्ति मिलने का मार्ग दिखेगा और खुद को उस मार्ग पर चलाते हुए जन्म  - मृत्यु और सृष्टि - विनाश के चक्र से खुद को अलग कर पाएगा ।    

ऐसा भी कहा गया है : मर्म को न जानकार किए गये कर्म से ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञान से परम सत्ता का ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यान से सभी कर्म फलों का त्याग श्रेष्ठ है ।  त्याग ही आत्मा को तत्काल शांति देने में सक्षम है ।  

उन्नीसवीं शताब्दी के आखरी दशक की बात है ।  एक बार एक संत बंबई के समुद्र तट पर बैठे थे ।  उनके स्थिर स्वरूप  से प्रभावित होकर एक युवक उनके पास आया और उनके साथ घूमते हुए सन्यास मार्ग पर चलने के आग्रह के बारे में बताया ।  पहले तो सन्यासी काफ़ी खुश हुए और युवक के त्याग की भावना से प्रभावित भी हुए ।  कौतूहल वश संत श्री ने पूछा ।  आजकल क्या कर रहे हो?

युवक बताया , "मैं इस शहर में नौकरी की तलाश में आया हूँ । "

"पढ़ाई कहाँ तक हुई है?"

"स्नातक हूँ । "

"क्या क्या कर सकते हो? कुछ समान बना सकते हो ? "

युवक फिर कहा, " मैं बच्चों को अँग्रेज़ी पढ़ा सकता हूँ । "

स्वामीजी के चेहरे पर फिर मायूसी छा गई और उस युवक पर दया भी आई ।  अल्प ज्ञान का धनी  वह युवक रोज़ी की तलाश में शहर आया है ।  अगर सन्यास ले भी लिया तो आगे  चलकर उसे  मायूसी ही मिलने वाली ।  कभी भी सन्यास धर्म से उसे आनंद नहीं मिल सकता ।  अगर सन्यास लेने की अनुमति दे भी दिया जाय तो यह साबित होगा कि व्यक्ति जीवन से हारने के बाद सन्यास जीवन में प्रवेश किया जा सकता है, और सन्यास एक मजबूरी  में अपनाया गया मार्ग है ।  उस युवह के घर की दशा भी शायद ही उसे सन्यास लेने के लिए प्रेरित करे ।  अगर आर्थिक दशा ठीक रही होती तो शायद वो नौकरी के लिए शहर नहीं आता ।  

"स्वामीजी! कुछ विचार बना ?"

"मेरे भाई , अगर तुम सोचते हो कि सन्यास जीवन का आखरी मार्ग है तो तुम्हारा ऐसा सोचना ग़लत है ।  दूसरी बात है कि सन्यास वीरों के द्वारा अपनाया जाने वाला मार्ग है , ना कि कायरों के द्वारा ।  तीसरी बात, तुम्हारे पास विशेष कुछ हासिल किया हुआ सम्पद या ज्ञान धन है ही नहीं जिसका तुम त्याग कर सको; गौतम बुद्ध के पास उनका पूरा राज पाठ था जिसका उन्होंने त्याग किया ।  तुम्हारे इस परिस्थिति में किए जाने वाले त्याग से तुम्हें सन्यास जीवन का मार्ग चलकर मायूसी ही मिलेगी, आनंद का अनुभव नहीं कर सकोगे ।  अतः मेरी मानो तो पहले कुछ हासिल करो फिर उसका त्याग कर देना ।  "

स्वामीजी के इस कथन से त्याग की महिमा का ही दर्शन मिलता है और इसके ज़रिए भक्त और सर्वशक्तिमान के सम्मेलन का भी  ज्ञान होता है ।  कोई व्यक्ति यह भी कहे कि भक्ति आदि से उसे कोई लेना देना नहीं है तो यह उसकी नादानी और अज्ञानता ही मानेंगे ।  हक़ीकत तो यह है कि व्यक्ति अपने जीवन में किसी न किसी का भक्त तो होता ही है , और उसके भक्ति को प्रेम का ही आधार मिलता है, भले ही उसका प्रेम ईश्वर छोड़कर अन्य भौतिक वस्तु से ही क्यो न हो ।  एक साहूकार अपने रुपयों से प्रेम करता है, किसान ज़मीन से, योद्धा हथियार से, बागवान बगीचे से और चिकित्सक अपने संयंत्र से ।  यह तो वास्तविक और नित्य नियम और कार्य-कारणों के अधीन ही है ।  इस कृत्य को भी सांख्य सूत्र के आधार पर ही सही तरीके से और उसके सही स्वरुप में समझ सकेंगे ।   

भक्ति के शुद्ध धरातल पर कोई भक्त न तो उद्विग्न होता है और न ही दूसरों के लिए उद्वेग का पात्र बनता है ।  सेठ जमनालाल बजाज के जीवन से जुड़ी एक ऐसी घटना के बारे में हम जानते हैं जो महात्मा के प्रति उनके शुद्ध भक्ति को ही दर्शाता है ।  जब महात्मा सेवाग्राम में रहने आए तो उन्हें सेवाग्राम से शहर लाने ले जाने के लिए फ़ोर्ड कंपनी की एक मोटर गाड़ी को इस्तेमाल किया जा रहा था ।  क्रांति और स्वराज के मंत्र के धनी महात्मा उस गाड़ी को भला कैसे इस्तेमाल कर पाते! अतः उस गाड़ी के सामने के हिस्से में बदलाव लाकर उसे ऑक्स-फ़ोर्ड बनाय गया, अर्थात बैल द्वारा खींचा जाने वाला फ़ोर्ड ।  उपस्थित बुद्धि, तत्परता, नेकी, इरादों की बुलंदी और वात्सल्य के गुणों के धनी श्री जमनालालजी अपने हर कृत्य के ज़रिए महात्मा के प्रति विशुद्ध प्रेम को ही दर्शाते थे ।  और उस प्रेम को जन्म देनेवाला मन महात्मा के प्रति भक्ति का धनी था ।

चर्चा काफ़ी देर तक चल सकती है और इसमें जुड़ने वाले पर्याय भी कई हज़ार हैं, अतः हमें अपने समझदारी के क्षेत्र का निर्माण होने की अवधि तक ठहरना तो होगा ही ।  आख़िर शब्दों के द्वारा निकलकर आने वाले विचार से अगर किसी आत्मा को खुद के स्तर का पता चल पाने लायक समझ का निर्माण होता हो तो उसे प्रत्यक्ष - प्रमाण और अनुमान प्रमाण का सफल सम्मेलन माना जाएगा ।

भारत भूमि से हमारा रिश्ता कुछ ऐसा ही है जैसा कि एक संतान का अपने माँ के साथ रहना चाहिए ।  इस बात के लिए भी हमारा मन सदैव उद्विग्न रहता है जब  अपनी मातृभूमि को खंड खंड करनेवालों पर हम कोई कार्रवाई नहीं कर पाने की स्थिति में खुद को काफ़ी असहाय पाते हैं ।  भारतीय भूमि पर विदेशी मूल की शक्तियों और आतंकी गुटों का आक्रमण का इतिहास है भी बहुत पुराना ।  आर्य महाभारत काल के बाद से ही यह सिलसिला चलता चला आ रहा है ।  भारत में विदेशी शक्ति अनुप्रविष्ट कर पाने के लिए बाहरी लोगों की शक्ति, समझदारी और सूझ-बूझ का ज़्यादा बखान करने से अधिक महत्व का और समझदारी का काम होगा यदि  भारतीय मूल के जनपदों के बीच व्याप्त आपसी रंजिशों और परस्पर दुश्मनी विषयक मुद्दों पर  चर्चा करें ।  हम यह भी पता लगाने का प्रयास करें जिसके कारण आर्यावर्त के जनपद क्रमशः कमजोर  होते चले गये ।

कहा जाता है विश्व विजय के अभियान पर निकलनेवाले सिकंदर के सामने सबसे बड़ी बाधा और सबसे तीब्र प्रतिबंध खड़ा करनेवाले योद्धा भारतीय ही थे ।  जब सिकंदर की सेना भारत भूमि से वापस जाने का मन बना लिया उस समय की एक घटना सम्राट को काफ़ी विचलित कर रहा था ।  उन्होंने  देखा कुछ गिने चुने साधु महात्मा एक अजीब अंदाज में बगल की ओर उछल उछल कर ज़मीन का परिमाप लेते हुए जा रहे हैं ।  उनसे उनके ऐसा करने का कारण पूछा गया ।  उनका कहना था कि वे अपने लिए ज़रूरत की ज़मीन तलाश रहे हैं; मरने के बाद इंसान का सबकुछ खो   जाता है, सिर्फ़ शरीर का अंतिम सत्कार करने के लिए एक टुकड़ी ज़मीन ही चाहिए; उतनी ही ज़मीन पर व्यक्ति अपना हक मान सकेगा ।  परिस्थितियाँ अगर विपरीत हो तो शायद वो ज़मीन भी नसीब न हो ! इस घटना से सिकंदर के अपने विश्व विजयी होने और सभी ज़मीनों पर हक जताने जैसे अभिमान को भारी धक्का लगा ।  उन्हें भी लगने लगा कि उनके मृत्यु के बाद शायद उनके साथी, परिषद् और सिपाहीगण ज़रूरत की ज़मीन जुटा पाएँ या नहीं! इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि जंग के कुछ भी अंजाम हो सकते हैं : हार या फिर जीत ।  जंग में हार और जीत दोनों परिस्थितियों का विचार करते हुए व्यक्ति को भविष्य योजनाएँ बना लेने चाहिए ।  इस घटना के  बाद  सिकंदर के मन में काफ़ी उथल पुथल चलता रहा ।

भारत से वापसा जाने की स्थिति में सिकंदर के मन में  इस बात को लेकर धारणाएँ बन चुकी थी कि भारत भूमि को जीत पाना सबके लिए संभव नहीं ।  अपने साथियों से विमर्श करते हुए उन्होंने कहा था , "भारत भूमि में तीन प्रकार के लोग रहते हैं; कुछ लोग ऐसे हैं जिन्हें प्रतिष्ठा की भूख है, कुछ और लोग ऐसे हैं जिन्हें रुपया - पैसा, धन संपदा पाने की इच्छा है ।  कुछ और लोग ऐसे भी हैं जिन्हें न तो प्रतिष्ठा चाहिए और न ही धन संपदा ,उन्हें सिर्फ़ अपने भक्तों का कल्याण करना है और सबको सुखी देखना है ।  यही तीसरी शक्ति भारत भूमि को समृद्ध और बलशाली बनाए रखा है ।  अगर हमें भारत भूमि पर राज करना है तो इस तीसरी शक्ति को विश्वास में लेना होगा और योजनाओं को कार्यान्वित करना होगा । "

इस तीसरी शक्ति के समझ बूझ, रचानधर्मिता और क्रिया कौशल से उस समय के राज नेता भली भाँति परिचित भी थे ।  इस शक्ति की अनदेखी करने के परिणाम स्वरूप ही धननंद को अपना राज पाठ समेटना पड़ा और पंडितों के प्रकोप का शिकार होना पड़ा ।  वही संघ शक्ति और विचार शक्ति के बल पर आचार्य चाणक्या एक स्वर्णिम भारत और एक कुशल राजा का निर्माण कर पाए ।  उनके अथक परिश्रम का ही नतीजा था कि अखंड भारत के मानचित्र को कुछ हद तक आकलित कर पाना संभव हो पाया ।   जिन उपद्रवी तत्वों ने तक्षशिला विश्वविद्यालय में सुरक्षित पोतियों को जलाया उन्हें लगा कि अब भारात में पनपनेवाली तीसरी शक्ति का अंत हो ही जाएगा ।  पर ऐसा समझ लेना उनकी एक ऐतिहासिक भूल थी ।

राज घरानों की नाकामी और आपसी रंजिश के लिए भारत को समय समय पर विदेशी आक्रमण का शिकार होना पड़ा ; हमारे आखरी पांडव पृथ्वीराज चौहान के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ ।  उनके ही पड़ोसी राज्य के लोग उनके खिलाफ साजिस में सम्मिलित हो गये ।  पर बहुत जल्द ही उन्हें (जयचंद और विजयचंद ) अपनी ग़लती का भान हो गया ; पर तबतक काफ़ी देर हो चुकी थी ।  एकता न रख पाने के कारण भारत को अपनी अखंडता से फिर हाथ धोना पड़ा ।  अँग्रेज़ी और इस्लामी दोनों संस्कृति के आगमन से भारत के स्वरूप में भी एक समानांतर परिवर्तन आया और एकता के नये मंत्र से भारत के लोग ओतप्रोत होते चले ।  यहाँ भी उसी तीसरी शक्ति की भूमिका के बारे  में हम  सिकंदर की  बातों को याद कर सकते हैं ।  इतने कुचले जाने के बाद भी जहाँ के लोग अपनी संस्कृति को नहीं छोड़ते हैं वहाँ के लोगों का आत्मबल कैसा है इसके बारे में हम अपनी समझदारी भी रख ही सकेंगे ।  उस वलिष्ठ मानस पर हमें गर्व भी होगा ।   

सबसे सटीक तत्व देनेवालों में हम आचार्य विनोबा की बात करें, जिन्होंने सभी संस्कृति के सम्मेलन से पनपनेवाले राष्ट्रीयता और जागतिक मैत्री के संपर्क को संवर्धित होते हुए देखना चाहा ।  ब्रह्म विद्या के संकर्षन के साथ साथ उन्होंने भारत भूमि को स्नात करनेवाले सभी संस्कृति और धर्म मतों का स्वागत करते हुए मानव मात्र के लिए जागतिक मैत्री के मंत्र को कल्याणकारी और युग परख तत्व माना ।

स्वार्थ त्याग की संस्कृति से ही परमार्थ सधेगा; यह कई बार कई रूप में साबित होता आया, आगे भी ऐसा होता आएगा ।  विश्व के किसी कोने में अगर आतंकवाद और अलगाव की राजनीति पनपते हों तो हमें यह सोचना होगा कि उस परिस्थिति में हमसे क्या भूल हो गई ।  बंदूक ताने खड़ा रहना व्यक्ति का पहला काम नहीं हो सकता, या तो उसे बाहर से कोई सहयोग और साधन दे, या फिर बाहरी किसी तत्व के बहकावे में आकर किसी समूह का एक छोटा हिस्सा अपने ही लोगों पर गोलियाँ दागे ।  इस परिस्थिति से समुदाय के लिए कमज़ोरी और नाकामी छोड़कर और कुछ हासिल होने का अनुमान नहीं लगाया जा सकता ।  विश्व समुदाय क्रमशः एक ऐसी संघीय व्यवस्था के लिए काम कर रही है जहाँ कर्म प्रधानता को ही सर्वाग्र मान्य किया जाएगा, न कि मज़हबी या जनजातीय पहचान को ।  जनजाति विषयक पहचान आनेवाले दिनों में शायद ही कोई पूछे !

कर्म प्रधान संस्कृति की ओर हम काफ़ी   तेज़ी से जा रहे हैं ।  ऐसी परिस्थिति में हर व्यक्ति कुछ कर गुजरने की तमन्ना लिए एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर जाने के लिए प्रयासरत रहेगा ।  कोई भी समूह व्यवस्था से विरोध, नाफरमानी या खुदगर्जी तभी करने लगेगा जब उसे ऐसा भान होगा कि उसका स्वार्थ और परमार्थ साधित नहीं हो रहा है ।  ऐसी ही परिस्थतियाँ अन्य ठिकानों पर आतंकवाद और अलगाववाद पनपने के रूप में भी देखी जा सकेगी ।  किसी एक समूह के लिए जो आतंकवाद लगता हो किसी दूसरे समूह के लिए वो मुक्ति संग्राम भी लग सकता है ।  सरदार भगत सिंह हमारे लिए क्रांतिकारी हैं पर अँग्रेज़ी मूल के लोगों के लिए उन्हें आतंकवादी माना गया ।  मुक्ति संग्राम के नेता सुभाष बोस को अपने ही देश से छिपकर अन्य लोगों का सहयोग प्राप्त करने के उद्देश्य से जाना पड़ा ।  मित्र सेना की नज़र में उनका कारनामा गैर क़ानूनी था ; और भारत में अंग्रेज जो भी कर रहे थे उसके बारे में काफ़ी दिनों तक दुनिया चुप्पी साधे रही ।   

कभी कभी संकुचित विचारधारा का व्यक्ति अकेला पड़ जाता है और उसे विचार संप्रेषण की कठिनाई का भी सामना करना पड़ता है ।  संत ऋषभ देव कहा करते थे  कि जितने  मत होंगे   उतने ही पथ भी होंगे ।  एक माने में इसे सही भी ठहराया जा सकेगा, कारण यह समझें कि व्यक्ति सदैव  ही परिस्थितियों को अपनी समझदारी और ज्ञान अन्वेषण के जरिये मोड़ने का प्रयास करते हुए पाए जाएंगे; मत, पंथों और परंपरा विषयक विविधता के चलते ही भारत भूमि को हम धर्म और आध्यात्मिक चिंतन के प्रयोगशाला के रूप में पाएंगे; यही वह भूमि समझें जहां से विश्व परिमंडल को एक दिशा मिलती आयी; लोगों के चिंतन और अध्यात्म का मार्ग प्रशस्त हुआ, लोग खुद की  भूमिका बनाने लायक आत्मबल पा सके। 

 एकबार ठाकुर रामकृष्ण[1] की परीक्षा लेने कुछ पंडित और विद्वान जन  मंदिर में आए और परमहंस से सवाल करने लगे ।  सबको बीच में रोक कर रामकृष्ण बोले कि एक नमक का पुतला सागर नापने निकला और अंततः पिघल गया ।   सबको पिघलना तो है ही कोई पहले और कोई बाद में पिघलेगा।  यह विचार वेदांत का सार है ।  सभी पंडित  और विद्वान जन सोच विचार करने लग गये और  सवाल पूछने  का सिलसिला रुक गया ।  ज्ञान समुद्र के व्याप्ति के बारे में ही ठाकुर रामकृष्ण बता रहे थे ।  एक ज्ञान ही है जो व्यक्ति के व्यक्तित्व को निखरता हुआ उन्नत पथ गामी बनाता है और समाज में उसकी प्रतिभागिता  सुनिश्चित कर देता है ।  अतः इतना तो हम ज़रूर कह सकते हैं कि उस अनेकान्त के मार्ग से ही प्रबुद्ध भारत को पनपता हुआ देखा जा सकेगा; न कि एकांत के संकुचित विचारधारा से।  सनातन की परंपरा पहले से ही सर्व समावेशक रही और आने वाले समय में भी यह ऐसा ही रहने वाला है ।  उसे मतों और पंथों का विधान देनेवाला केंद्रक भी कहा जा सकता है ।  व्यक्ति स्वीकार करे या न करे इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता और न ही हक़ीकत को कभी बदला जा सकता ।  

विचार सम्प्रेषण  कि इस कड़ी में हेमन यह भी देखना होगा कि गीता के सर्व समावेशक तत्व को कितना संरक्षण मिला और कौन कौन से भाष्य में उस सनातन परंपरा के आधार पर विचार मंथन कि नींव डाली गई।  और ऐसे कौन कौन से आयाम हैं जिसके बल पर हम गीता ज्ञान को एक सर्व समावेशक अध्यात्म विषयक  परीखा के रूप में पाएंगे।  हम यह भी देखना चाहेंगे कि जिस समय गीता ज्ञान कि नींव डाली गई थी उसके इतने साल बाद आज की परिस्थिति में उसी ज्ञान को कहाँ तक प्रासांगिक मानें और कहाँ तक उस विशुद्ध ज्ञान के आधार पर राष्ट्र धर्म को परखें !


---- चन्दन सुकुमार सेनगुप्ता

[1] ठाकुर रामकृष्ण ही बंगाल में काफी लोकप्रिय हुए और उनके सरलता पूर्वक इष्ट चिंतन के कारण हम उन्हें एक कुशल तत्व चिंतक के रूप में पाते हैं।

कर्म और यज्ञ

 

बुद्धियोग और ब्राह्मी स्थिति में उसकी परिसमाप्ति, जो गीता के द्वितीय अध्याय के अंतिम भाग का विषय है, उसमें गीता की बहुत कुछ शिक्षा बीज- रूप से गयी है- गीता का निष्काम कर्म, समत्व, बाह्म संन्यास का वर्जन और भगवद्भक्ति, ये सभी सिद्धांत इसमें गये हैं। परंतु अभी ये सब बहुत ही अल्प और अस्पष्ट रूप में हैं। जिस बात पर अभीतक सबसे अधिक जोर दिया गया है वह यही है कि मनुष्य के कर्म करने का जो सामन्य प्रेरक-भाव हुआ करता है उससे, अर्थात् उसकी अपनी कामना से तथा आवेशों और अज्ञान के साथ इन्द्रियसुख के पीछे दौड़ने वाले विचार और संकल्पमय उसके सामान्य प्राकृत स्वभाव से और अनेक शाखा-पल्लवों से युक्त संतप्त विचारों और इच्छाओं में भटकते रहने का उसका जो अभ्यास है उससे, मनुष्य की बुद्धि हट जाये और वह ब्राह्मी स्थिति की निष्काम स्थिर एकता और निर्विकार प्रशांति में पहुँच जाये। इतना अर्जुन ने समझ लिया है। इसमें उसके लिये कोई नयी बात नहीं; क्योंकि उस समय की प्रचलित शिक्षा का यही सार था जो मनुष्य को सिद्धि प्राप्त करने के लिये ज्ञान का मार्ग तथा जीवन और कर्म से संन्यास का मार्ग दिखा देता था।

बुद्धि का इन्द्रियों से, विषय-वासनाओं से तथा मानव-कर्म से हटकर उस परम में, उस एकमेवाद्वितीय अकर्ता पुरुष में, उस अचल निराकार ब्रह्म में लगना ही ज्ञान का सनातन बीज है। यहाँ कर्म के लिये कोई स्थान नहीं, क्योंकि कर्म अज्ञान के है; कर्म ज्ञान से सर्वथा विपरीत है; कर्म का बीज है कामना और उसका फल है बंधन-यही कट्टर दार्शनिक मत है और श्रीकृष्ण भी इसे स्वीकार करते हुए मालूम होते हैं, जब वे कहते हैं कि कर्म बुद्धियोग के सामने बहुत ही नीचा है और फिर भी जोर देकर यह कहा जाता है कि योग के अंग के रूप में कर्म करना होगा; इस तरह इस शिक्षा में एक मूलगत परस्पर-विरोध दीख पड़ता है। इतना ही नहीं; क्योंकि ज्ञान की अवस्था में भी कुछ काल तक किसी प्रकार का कोई कर्म बना रह सकता, ऐसा कर्म जो कम- से-कम हो, अत्यंत निर्दोष हो; पर यहाँ जो कर्म बताया जा रहा है वह तो ज्ञान के,सौम्यता के और स्वांत सुखी जीव की अचल शांति के सर्वथा विरुद्ध है- यह कर्म तो एक भयानक, यहाँ तक कि राक्षसी कर्म है, खून-खराबे से भरा हुआ संघर्ष है एक निर्दय संग्राम है, एक दानवी हत्याकांड है। फिर भी इसी कर्म का यहाँ विधान किया जा रहा है और अंत:स्थ शान्ति और निष्काम समता तथा ब्राह्मी स्थिति की शिक्षा से इसका समर्थन किया जा रहा है! यह ऐसा परस्पर-विरोध है जिसका अभी मेल नहीं मिला है। अर्जुन इस बात का उलाहना देता है कि मुझे ऐसी शिक्षा दी जा रही है जिसमें सिद्धातों का परस्पर-विरोध है और उसे बुद्धि बडे असमंजस में पड़ती है, ऐसा कोई स्पष्ट और सुनिश्चित मार्ग नहीं दिखाया जा रहा, जिस पर चलकर मुनष्य की बुद्धि बिना इधर-उधर भटके सीधे परम कल्याण की ओर चली जाये। इसी आपत्ति का उत्तर देने के लिये गीता तुरंत अपने निश्चित और अलंघनीय कर्म-सिद्धांत का अधिक स्पष्ट प्रतिपादन आरंभ करती है। गुरु पहले मोक्ष के उन दो साधनों का भेद स्पष्ट करते हैं जिन्हें मनुष्य इस लोक में अलग-अलग अपना सकते हैं, एक हे ज्ञानयोग और दूसरा है कर्मयोग। साधारण मान्यता ऐसी है कि ज्ञानयोग कर्मों को मुक्ति का बाधक कहकह त्याग देता है और कर्मयोग इनको मुक्ति का साधन मानकार स्वीकार करता है। गुरु अभी इन दोनों को मिला देने पर, इन दोनों का विभाजन करने वाले विकारों में मूल मिलाने पर बहुत अधिक जोर नहीं दे रहे हैं, बल्कि यहाँ इतने से आरभ करते हैं कि साख्यों का कर्मसंन्यास तो एकमात्र मोक्ष मार्ग है और कर्मयोग से उत्तम ही है। नैष्कर्म्य अर्थात् कर्मरहित शान्त शून्यता अवश्य ही वह अवस्थ है जो पुरुष को प्राप्त करनी है; क्योंकि कर्म प्रकृति के द्वारा होता है और पुरुष को सत्ता की कमण्यताओं में लिप्त होने की अवस्था से ऊपर उठकर उस शांत कर्मरहित अवस्था और समस्थित में पहुँचना होगा जहाँ से वह प्रकृति के कर्मों का साक्षित्व तो कर सके, पर उनसे प्रभावित हो। पुरुष का नैष्कर्म्य तो यथार्थ में यही है, प्रकृति के कर्मों का बंद हो जाना नहीं। इसलिये यह समझना भूल है कि किसी प्रकार का कर्म करने से की नैष्कर्म्य अवस्था को पाया और भोगा जा सकता है। केवल कर्मों का संन्यास तो मुक्ति का पर्याप्त, यहाँ तक कि एकदम उचित साधन भी नहीं है।कर्म करने से ही मनुष्य नैष्कर्म्य को नहीं प्राप्त होता, केवल (कर्मों के) संन्यास से उसे सिद्धि ही प्राप्त होती है।यहाँ सिद्धि से मतलब है योगसाधना के लक्ष्य की प्राप्ति। पर कम-से-कम कर्मों संन्यास एक आवश्यक,अनिवार्य और अलंघनीय साधन तो होगा ही? यदि प्रकृति के कर्म होते रहें तो पुरुष के लिये यह कैसे संभव है वह उनमें लिप्त हो? यह कैसे संभव है कि मैं युद्ध भी करूं और अपने अंदर यह समझूं, यह अनुभव करूं कि मैं, अमुक व्यक्ति युद्ध कर रहा हूं, तो विजय-लाभ की इच्छा करूं और हारने पर अंदर दु: ही हो। सांख्यों का यह सिद्धांत है कि जो पुरुष प्रकृति के कर्मो में नियुक्त होतेा है, उसकी बुद्धि अहंकार, अज्ञान और काम में फंस जाती और इसलिये वह कर्म में प्रवृत्त होती है। दूसरी ओर, बुद्धि यदि निवृत्त हो तो इच्छा और अज्ञान की समाप्ति होने कैसे कर्म का भी अंत हो जाता है। इसलिये मोक्षमार्ग की साधना में संसार और कर्म का परित्याग एक आवश्यक अंग अपरिहार्य अवस्था और अनिवार्य अंतिम साधन है। उस समय की विचार-पद्धति का यह आक्षेप-यद्यपि अर्जुन के मुख से यह बात बाहर नहीं हुई है, पर उसके मन में है, यह उसकी बाद की बातचीत से झलकता है-भगवान् गुरु ताड़ जाते हैं। वे कहते हैं कि नहीं,इस प्रकार के संन्यास का अनिवार्य होना तो दूर रहा, ऐसे संन्यास का होना ही संभव नहीं है।कोई प्राणी एक क्षण के लिये भी बिना कर्म किये नहीं रह सकता; प्रकृतिजात गुण हर किसी से बरबस कर्म कराते ही हैं।“ इस महान् विश्वकर्म का और विश्व-प्रकृति की शाश्वत कर्मण्यता और शक्ति का यह स्पष्ट और गंभीर अनुभव गीता की एक विलक्षण विशेषता है।

प्रकृति के इसी भाव पर तांत्रिक शाक्तों ने आगे चलकर बहुत जोर दिया, उन्होंने तो प्रकृति या शक्ति को पुरुष से भी श्रेष्ठ बना दिया। प्रकृति या शक्ति की महिमा का गीता में यद्यपि मृदु संकेतमात्र है, फिर भी, उसके ईश्वरवादी और भक्तिवादी तत्त्वों की शिक्षा के साथ मिलकर यह महिमा काफी बलवान् हो गयी है और इसने प्राचीन दार्शनिक वेदांत की शांति-कामी प्रवृत्ति का संशोधन कर अपने योगमार्ग में कर्म की उपयोगिता को सिद्ध कर दिया है। प्रकृति के जगत् में शरीरधारी मनुष्य एक क्षण के लिये, एक पल-विपल के लिये भी कर्म नहीं छोड़ सकता; उसका यहाँ रहना ही एक कर्म है; सारा विश्वब्रह्माड ईश्वर का एक कर्म है, केवल जीतना भी उसी की एक क्रिया है। हमारा दैहिक जीवन,उसका पालन, उसकी निरवच्छिन्न स्थिति एक यात्रा है, एक शरीरयात्रा है, और कर्म के बिना वह पूरी नहीं हो सकती।

परंतु यदि कोई मनुष्य अपने शरीर को पाले-पोसे यों ही बेार छोड़ दे, किसी वृक्ष-सा सदा चुप खड़ा रह जाये या पत्थर-सा अचल बैठा रहे तो भी इस वैटप या शैल अचलता से वह प्रकृति के हाथ से नहीं बच सकता; प्रकृति के गुण-कर्म से उसकी मुक्ति नहीं हो सकती। कारण केवल हमारे शरीर चलना-फिरना और अन्य कर्म करना ही कर्म नहीं है, हमारा मानसिक जीवन भी तो एक बहुत बड़ा जटिल कर्म है, बल्कि चंचला प्रकृति के कर्मों का यही बृहत्तर और महत्तर अंग है-हमारे बाह्म दैनिक कर्म का यही आंतरिक कारण और नियामक है। यदि हमने आंतरिक कारण की क्रिया को तो जारी रखा और उसके फलस्वरूप होने वाले बाह्म कर्म का निग्रह किया तो इससे कोई लाभ नहीं। इन्द्रियों के विषय हमारे बंधन के केवल निर्मित-कारण हैं, असल कारण तो मन का तद्विषयक आग्रह है। मनुष्य चाहे तो कर्मेन्द्रियों का नियमन कर सकता है और उन्हें उनकी स्वाभाविक कर्मक्रीड़ा से रोक सकता है, पर यदि उसका मन इन्द्रियों के विषयों का ही स्मरण और चिंतन करता रहे तो ऐसे संयम और दमन से कोई लाभ नहीं। ऐसा मनुष्य तो आत्म-संयम को कुछ-का-कुछ समझकर अपने-आपको भ्रम में डालता है;

वह तो संयम उद्देश्य को समझता है उसकी वास्तविकता को, अपने अंत:करण के मूल तत्त्वों को ही; इसलिये संयम के संबध में सबके सब प्रयत्न मिथ्या और व्यर्थ हो जाते हैं और वह मिथ्याचारी[1] कहलाता है। शरीर के कर्म, और मन से होने वाले कर्म भी अपने-आप में कुछ नहीं हैं, वे बंधन है बंधन के मूल कारण ही। मुख्य बात है प्रकृति की वह प्रबल शक्ति जो मन, प्राण और शरीर के महान क्षेत्र में अपनी ही चलायेगी, वह अपने ही रास्ते चलेगी: उसमें खतरनाक चीज है त्रिगुण की वह ताकत जिससे बुद्धि मोहित होती और भरमती है और इस तरह आत्मा को आच्छारिदत करती है। आगे चलकर हम देखेंगे कि कर्म और मोक्ष के संबंध में गीता का सारा रहस्य यही है त्रिगुण के व्यामोह और व्याकुलता से मुक्त हो जाओ, फिर कर्म हुआ करे, क्योंकि वह तो होता ही रहेगा; फिर वह कर्म चाहे जितना भी विशाल हो, समृद्ध हो या कैसा भी विकट और भीषण हो, उसका कुछ महत्त्व नहीं,क्योंकि तब पुरुष को उसकी कोई चीज छू नहीं सकती, जीव नैष्कर्म्य की अवस्था को प्राप्त हो चुकता है। परंतु इस बृहत्तर तत्त्व का गीता अभी तुरंत वर्णन नहीं कर रही है।

जब मन ही कारण है, अकर्म जब असंभव है, तब यही युत्कि-संगत, आवश्यक और उचित है कि आंतर और ब्राह्म कर्मों को संयम के साथ किया जाये। मन को चाहिये कि ज्ञानेनिद्रयों को मेधावी संकल्प के रूप में अपने वश में करे और कर्मन्द्रियों को उनके उचित कर्म में लगाये, लेकिन ऐसे कर्म में जो योग के रूप में किया जाये। पर इस आत्मसंयम का सारत्तव क्या है, कर्मयोग का अभिप्राय क्या है? कर्मयोग का अभिप्राय है अनासशक्ति कर्म करना, पर मन को इन्द्रियों के विषयों से और कर्मों के फलो से अलिप्त रखना। सम्पूर्ण अकर्म तो भय है, मन की उलझन है, आत्मप्रवंचन है और असंभव है, बल्कि वह कर्म जो पूर्ण और स्वतंत्र हो, इद्रियों और आवेशों के वश होकर किया गया हो- ऐसा निष्काम और आसक्तिरहित कर्म ही सिद्धि का प्रथम रहस्य है।

इस प्रकार भगवान् कहते हैं कि नियत कर्म करो, मैनें यह कहा है कि ज्ञान, बुद्धि, कर्म की अपेक्षा श्रेष्ठ है, पर इसका यह अभिप्राय नहीं कि कर्म से अकर्म श्रेष्ठ है, श्रेष्ठ तो अकर्म की अपेक्षा कर्म ही है, कारण ज्ञान का अर्थ कर्म संन्यास नहीं है, ज्ञान का अर्थ है समता, तथा वासना और इन्द्रियों के विषयों से अनासक्ति। और इसका अर्थ बुद्धि का उस आत्मा में स्थिर-प्रतिष्ठा होना जो स्वतंत्र है, प्रकृति के निम्न कर्मों के बहुत ऊपर है और वहीं से मन, इन्द्रियों और शरीर के कर्मों को आत्मज्ञान की तथा आध्यात्मिक अनुभूति के विशुद्ध निर्विषय आत्मानंद की शक्ति द्वारा नियत करता है।

इस प्रकार से जो कर्म नियत होता है, वही नियतं कर्म[1] है। बुद्धि योग कर्म द्वारा परिपूर्ण होता है, आत्म-मुक्ति को देने वाला बुद्धियोग निष्काम कर्मयोग द्वारा सार्थक होता है। निष्काम कर्म की आवश्यकता का यह सिद्धांत गीता प्रस्थावित करती है, और सांख्यों की ज्ञान-साधना को-मात्र बाह्म विधि का परित्याग करके-योग की साधना के साथ एक करती है। परंतु फिर भी एक मूलगत समस्या का अभीतक समाधान नहीं हुआ। मनुष्यों के जितने भी कर्म हैं वे सभी किसी--किसी कामना से प्रेरित हुआ करते हैं और इसलिये यह कहना पड़ता है, कि पुरुष यदि कामना से मुक्त हो जाये, तो फिर मनुष्यों के जितने भी कर्म हैं वे सभी किसी--किसी कामना से प्रेरित हुआ करते हैं और इसलिये यह कहना पड़ता है कि पुरुष यदि कामना से मुक्त हो जाये तो फिर उसके लिये कर्म का प्रेरक कोई कारण नहीं रहता। हो सकता है कि शरीर की रक्षा के लिये फिर भी हमें कुछ--कुछ कर्म करना पड़े। पर यह भी शरीर संबंधी वासना की एक अधीनता हुई और यदि हमें सिद्धि प्राप्त करनी है तो ऐसी वासना से भी मुक्त होना होगा।

परंतु यदि हम यह मान लें कि ऐसा नहीं किया जा सकता, तो फिर एक ही रास्ता रह जाता है, कि हम कर्म का कोई ऐसा नियम मान लें जो हमारे बाहर हो और हमारे अंत:करण की किसी चीज से परिचालित होता हो, अर्थात् जो मुमुक्षु है वह वैदिक नित्यकर्म,आनुष्ठानिक यज्ञ, दैनन्दिन कर्म, सामाजिक कर्तव्य आदि किया करे और इन सबको केवल इसलिये करे कि यह शास्त्र की आज्ञा है तथा इनमें वह तो काई वैयक्तिक हेतु रखे और आंतरिक रस ले, वह जो कुछ करे सर्वथा उदासीन रहकर करे, प्रकृति के वश होकर नहीं, बल्कि शास्त्र का आदेश समझकर और समत्व बुद्धि के साथ।[2] परंतु यदि कर्मत्व इस प्रकार बाहर की कोइ चीज होकर अंत:करण की वस्तु हो, यदि मुक्त और ज्ञानी पुरुषों के कर्म भी उनके स्वभाव से ही नियत और निश्चित होते हों, तब तो वह आंतरिक तत्त्व एकमात्र कामना ही हो सकती है, फिर वह कामना चाहे कैसी भी हो-चाहे वह शरीर की लालसा हो या हृदय का भावावेग या मन का कोई क्षुद्र या महान ध्येय पर होगी प्रकृति के गुणों के अधीन कामना ही। हो सकती है, फिर वह कामना चाहे कैसी भी हो चाहे वह शरीर की लालसा हो या ह्र्दय का भावावेग या मन का कोई क्षुद्र या महान ध्येय-पर होगी प्रकृति के गुणों के अधीन कामना ही।

 



[1] नियतं कर्म का अर्थ बंधे-बंधाये और वैध कर्म अर्थात् वेदोक्त याज्ञिक आनुष्ठानिक नित्यकर्म और दिनचर्या नहीं है। निश्चय ही पिछले श्लोक केनियम्यशब्द का तात्पर्य लेकर ही इस श्लोक मेंनियतशब्द प्रयुक्त हुआ है। भगवान पहले एक वर्णन करते हैं, "जो कोई मन इन्द्रियों का नियमन करके कर्मेन्द्रियों द्वारा कर्मयोग करता है, वह श्रेष्ठ है (मनसा नियम्य आरभते कर्मयोगम) और यह कहकर फिर तुरत इसी कथन से, इसी के सारांशस्वरूप इसी को विधि बनाते हुए यह आज्ञा देते हैं कि तू नियत कर्म कर, नियतं कुरु कर्म त्वं-'नियतं' शब्द में "नियम्य" को लिया गया है और कुरु कर्म शब्द में आरभते कर्मयोगम को। यहाँ किसी बाह्य विधि द्वारा निश्चित वैध कर्म की बात नहीं है, बल्कि गीता की शिक्षा है मुक्त बुद्धि द्वारा नियत किया हुआ निष्काम कर्म।

नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो विद्यते स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ।। 2.40 ।।

- मनुष्य लोक में इस समबुद्धिरूप धर्म के आरंभ का नाश नहीं होता, इसके अनुष्ठान का उलटा फल भी नहीं होता और इसका थोड़ा सा भी अनुष्ठान[1]महान भय से रक्षा कर लेता है। व्याख्या- [इस समबुद्धि की महिमा भगवान ने पूर्व श्लोक के उत्तरार्ध में इस[2] श्लोक में चार प्रकार से बतायी है- इसके द्वारा कर्मबंधन से मुक्त हो जाता है, इसके उपक्रम का नाश नहीं होता, इसका उलटा फल नहीं होता और इसका थोड़ा सा भी अनुष्ठान महान भय से रक्षा करने वाला होता है।

 

[2] बुद्धि के बारे में भी यही मान्यता उपस्तापित की गई कि उसमें बहुआयामी विस्तार का सांचा ढलते हुए देखा जा सकता |

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन

बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ।। .41 ।।

 

समबुद्धि की प्राप्ति के विषय में व्यवसायात्मिका बुद्धि एक ही होती है। अव्यवसायी मनुष्यों की बुद्धियाँ अनन्त और बहुशाखाओं वाली ही होती हैं। ज्ञान योग में पहले स्वरूप का बोध होता है, फिर उसके परिणाम स्वरूप बुद्धि स्वतः एक निश्चयावली हो जाती है और कर्मयोग तथा भक्तियोग में पहले बुद्धि का निश्चय होता है, फिर स्वरूप का बोध होता है। अतः ज्ञान योग में ज्ञान की मुख्यता है और कर्मयोग तथा भक्तियोग में एक निश्चय की मुख्यता मानी जा सकती | इसी आधार पर भक्ति और ज्ञान के सम्मेलन के बारे में भी हमारी धारणा बनती चली जाएगी |