कर्म और यज्ञ

 

बुद्धियोग और ब्राह्मी स्थिति में उसकी परिसमाप्ति, जो गीता के द्वितीय अध्याय के अंतिम भाग का विषय है, उसमें गीता की बहुत कुछ शिक्षा बीज- रूप से गयी है- गीता का निष्काम कर्म, समत्व, बाह्म संन्यास का वर्जन और भगवद्भक्ति, ये सभी सिद्धांत इसमें गये हैं। परंतु अभी ये सब बहुत ही अल्प और अस्पष्ट रूप में हैं। जिस बात पर अभीतक सबसे अधिक जोर दिया गया है वह यही है कि मनुष्य के कर्म करने का जो सामन्य प्रेरक-भाव हुआ करता है उससे, अर्थात् उसकी अपनी कामना से तथा आवेशों और अज्ञान के साथ इन्द्रियसुख के पीछे दौड़ने वाले विचार और संकल्पमय उसके सामान्य प्राकृत स्वभाव से और अनेक शाखा-पल्लवों से युक्त संतप्त विचारों और इच्छाओं में भटकते रहने का उसका जो अभ्यास है उससे, मनुष्य की बुद्धि हट जाये और वह ब्राह्मी स्थिति की निष्काम स्थिर एकता और निर्विकार प्रशांति में पहुँच जाये। इतना अर्जुन ने समझ लिया है। इसमें उसके लिये कोई नयी बात नहीं; क्योंकि उस समय की प्रचलित शिक्षा का यही सार था जो मनुष्य को सिद्धि प्राप्त करने के लिये ज्ञान का मार्ग तथा जीवन और कर्म से संन्यास का मार्ग दिखा देता था।

बुद्धि का इन्द्रियों से, विषय-वासनाओं से तथा मानव-कर्म से हटकर उस परम में, उस एकमेवाद्वितीय अकर्ता पुरुष में, उस अचल निराकार ब्रह्म में लगना ही ज्ञान का सनातन बीज है। यहाँ कर्म के लिये कोई स्थान नहीं, क्योंकि कर्म अज्ञान के है; कर्म ज्ञान से सर्वथा विपरीत है; कर्म का बीज है कामना और उसका फल है बंधन-यही कट्टर दार्शनिक मत है और श्रीकृष्ण भी इसे स्वीकार करते हुए मालूम होते हैं, जब वे कहते हैं कि कर्म बुद्धियोग के सामने बहुत ही नीचा है और फिर भी जोर देकर यह कहा जाता है कि योग के अंग के रूप में कर्म करना होगा; इस तरह इस शिक्षा में एक मूलगत परस्पर-विरोध दीख पड़ता है। इतना ही नहीं; क्योंकि ज्ञान की अवस्था में भी कुछ काल तक किसी प्रकार का कोई कर्म बना रह सकता, ऐसा कर्म जो कम- से-कम हो, अत्यंत निर्दोष हो; पर यहाँ जो कर्म बताया जा रहा है वह तो ज्ञान के,सौम्यता के और स्वांत सुखी जीव की अचल शांति के सर्वथा विरुद्ध है- यह कर्म तो एक भयानक, यहाँ तक कि राक्षसी कर्म है, खून-खराबे से भरा हुआ संघर्ष है एक निर्दय संग्राम है, एक दानवी हत्याकांड है। फिर भी इसी कर्म का यहाँ विधान किया जा रहा है और अंत:स्थ शान्ति और निष्काम समता तथा ब्राह्मी स्थिति की शिक्षा से इसका समर्थन किया जा रहा है! यह ऐसा परस्पर-विरोध है जिसका अभी मेल नहीं मिला है। अर्जुन इस बात का उलाहना देता है कि मुझे ऐसी शिक्षा दी जा रही है जिसमें सिद्धातों का परस्पर-विरोध है और उसे बुद्धि बडे असमंजस में पड़ती है, ऐसा कोई स्पष्ट और सुनिश्चित मार्ग नहीं दिखाया जा रहा, जिस पर चलकर मुनष्य की बुद्धि बिना इधर-उधर भटके सीधे परम कल्याण की ओर चली जाये। इसी आपत्ति का उत्तर देने के लिये गीता तुरंत अपने निश्चित और अलंघनीय कर्म-सिद्धांत का अधिक स्पष्ट प्रतिपादन आरंभ करती है। गुरु पहले मोक्ष के उन दो साधनों का भेद स्पष्ट करते हैं जिन्हें मनुष्य इस लोक में अलग-अलग अपना सकते हैं, एक हे ज्ञानयोग और दूसरा है कर्मयोग। साधारण मान्यता ऐसी है कि ज्ञानयोग कर्मों को मुक्ति का बाधक कहकह त्याग देता है और कर्मयोग इनको मुक्ति का साधन मानकार स्वीकार करता है। गुरु अभी इन दोनों को मिला देने पर, इन दोनों का विभाजन करने वाले विकारों में मूल मिलाने पर बहुत अधिक जोर नहीं दे रहे हैं, बल्कि यहाँ इतने से आरभ करते हैं कि साख्यों का कर्मसंन्यास तो एकमात्र मोक्ष मार्ग है और कर्मयोग से उत्तम ही है। नैष्कर्म्य अर्थात् कर्मरहित शान्त शून्यता अवश्य ही वह अवस्थ है जो पुरुष को प्राप्त करनी है; क्योंकि कर्म प्रकृति के द्वारा होता है और पुरुष को सत्ता की कमण्यताओं में लिप्त होने की अवस्था से ऊपर उठकर उस शांत कर्मरहित अवस्था और समस्थित में पहुँचना होगा जहाँ से वह प्रकृति के कर्मों का साक्षित्व तो कर सके, पर उनसे प्रभावित हो। पुरुष का नैष्कर्म्य तो यथार्थ में यही है, प्रकृति के कर्मों का बंद हो जाना नहीं। इसलिये यह समझना भूल है कि किसी प्रकार का कर्म करने से की नैष्कर्म्य अवस्था को पाया और भोगा जा सकता है। केवल कर्मों का संन्यास तो मुक्ति का पर्याप्त, यहाँ तक कि एकदम उचित साधन भी नहीं है।कर्म करने से ही मनुष्य नैष्कर्म्य को नहीं प्राप्त होता, केवल (कर्मों के) संन्यास से उसे सिद्धि ही प्राप्त होती है।यहाँ सिद्धि से मतलब है योगसाधना के लक्ष्य की प्राप्ति। पर कम-से-कम कर्मों संन्यास एक आवश्यक,अनिवार्य और अलंघनीय साधन तो होगा ही? यदि प्रकृति के कर्म होते रहें तो पुरुष के लिये यह कैसे संभव है वह उनमें लिप्त हो? यह कैसे संभव है कि मैं युद्ध भी करूं और अपने अंदर यह समझूं, यह अनुभव करूं कि मैं, अमुक व्यक्ति युद्ध कर रहा हूं, तो विजय-लाभ की इच्छा करूं और हारने पर अंदर दु: ही हो। सांख्यों का यह सिद्धांत है कि जो पुरुष प्रकृति के कर्मो में नियुक्त होतेा है, उसकी बुद्धि अहंकार, अज्ञान और काम में फंस जाती और इसलिये वह कर्म में प्रवृत्त होती है। दूसरी ओर, बुद्धि यदि निवृत्त हो तो इच्छा और अज्ञान की समाप्ति होने कैसे कर्म का भी अंत हो जाता है। इसलिये मोक्षमार्ग की साधना में संसार और कर्म का परित्याग एक आवश्यक अंग अपरिहार्य अवस्था और अनिवार्य अंतिम साधन है। उस समय की विचार-पद्धति का यह आक्षेप-यद्यपि अर्जुन के मुख से यह बात बाहर नहीं हुई है, पर उसके मन में है, यह उसकी बाद की बातचीत से झलकता है-भगवान् गुरु ताड़ जाते हैं। वे कहते हैं कि नहीं,इस प्रकार के संन्यास का अनिवार्य होना तो दूर रहा, ऐसे संन्यास का होना ही संभव नहीं है।कोई प्राणी एक क्षण के लिये भी बिना कर्म किये नहीं रह सकता; प्रकृतिजात गुण हर किसी से बरबस कर्म कराते ही हैं।“ इस महान् विश्वकर्म का और विश्व-प्रकृति की शाश्वत कर्मण्यता और शक्ति का यह स्पष्ट और गंभीर अनुभव गीता की एक विलक्षण विशेषता है।

प्रकृति के इसी भाव पर तांत्रिक शाक्तों ने आगे चलकर बहुत जोर दिया, उन्होंने तो प्रकृति या शक्ति को पुरुष से भी श्रेष्ठ बना दिया। प्रकृति या शक्ति की महिमा का गीता में यद्यपि मृदु संकेतमात्र है, फिर भी, उसके ईश्वरवादी और भक्तिवादी तत्त्वों की शिक्षा के साथ मिलकर यह महिमा काफी बलवान् हो गयी है और इसने प्राचीन दार्शनिक वेदांत की शांति-कामी प्रवृत्ति का संशोधन कर अपने योगमार्ग में कर्म की उपयोगिता को सिद्ध कर दिया है। प्रकृति के जगत् में शरीरधारी मनुष्य एक क्षण के लिये, एक पल-विपल के लिये भी कर्म नहीं छोड़ सकता; उसका यहाँ रहना ही एक कर्म है; सारा विश्वब्रह्माड ईश्वर का एक कर्म है, केवल जीतना भी उसी की एक क्रिया है। हमारा दैहिक जीवन,उसका पालन, उसकी निरवच्छिन्न स्थिति एक यात्रा है, एक शरीरयात्रा है, और कर्म के बिना वह पूरी नहीं हो सकती।

परंतु यदि कोई मनुष्य अपने शरीर को पाले-पोसे यों ही बेार छोड़ दे, किसी वृक्ष-सा सदा चुप खड़ा रह जाये या पत्थर-सा अचल बैठा रहे तो भी इस वैटप या शैल अचलता से वह प्रकृति के हाथ से नहीं बच सकता; प्रकृति के गुण-कर्म से उसकी मुक्ति नहीं हो सकती। कारण केवल हमारे शरीर चलना-फिरना और अन्य कर्म करना ही कर्म नहीं है, हमारा मानसिक जीवन भी तो एक बहुत बड़ा जटिल कर्म है, बल्कि चंचला प्रकृति के कर्मों का यही बृहत्तर और महत्तर अंग है-हमारे बाह्म दैनिक कर्म का यही आंतरिक कारण और नियामक है। यदि हमने आंतरिक कारण की क्रिया को तो जारी रखा और उसके फलस्वरूप होने वाले बाह्म कर्म का निग्रह किया तो इससे कोई लाभ नहीं। इन्द्रियों के विषय हमारे बंधन के केवल निर्मित-कारण हैं, असल कारण तो मन का तद्विषयक आग्रह है। मनुष्य चाहे तो कर्मेन्द्रियों का नियमन कर सकता है और उन्हें उनकी स्वाभाविक कर्मक्रीड़ा से रोक सकता है, पर यदि उसका मन इन्द्रियों के विषयों का ही स्मरण और चिंतन करता रहे तो ऐसे संयम और दमन से कोई लाभ नहीं। ऐसा मनुष्य तो आत्म-संयम को कुछ-का-कुछ समझकर अपने-आपको भ्रम में डालता है;

वह तो संयम उद्देश्य को समझता है उसकी वास्तविकता को, अपने अंत:करण के मूल तत्त्वों को ही; इसलिये संयम के संबध में सबके सब प्रयत्न मिथ्या और व्यर्थ हो जाते हैं और वह मिथ्याचारी[1] कहलाता है। शरीर के कर्म, और मन से होने वाले कर्म भी अपने-आप में कुछ नहीं हैं, वे बंधन है बंधन के मूल कारण ही। मुख्य बात है प्रकृति की वह प्रबल शक्ति जो मन, प्राण और शरीर के महान क्षेत्र में अपनी ही चलायेगी, वह अपने ही रास्ते चलेगी: उसमें खतरनाक चीज है त्रिगुण की वह ताकत जिससे बुद्धि मोहित होती और भरमती है और इस तरह आत्मा को आच्छारिदत करती है। आगे चलकर हम देखेंगे कि कर्म और मोक्ष के संबंध में गीता का सारा रहस्य यही है त्रिगुण के व्यामोह और व्याकुलता से मुक्त हो जाओ, फिर कर्म हुआ करे, क्योंकि वह तो होता ही रहेगा; फिर वह कर्म चाहे जितना भी विशाल हो, समृद्ध हो या कैसा भी विकट और भीषण हो, उसका कुछ महत्त्व नहीं,क्योंकि तब पुरुष को उसकी कोई चीज छू नहीं सकती, जीव नैष्कर्म्य की अवस्था को प्राप्त हो चुकता है। परंतु इस बृहत्तर तत्त्व का गीता अभी तुरंत वर्णन नहीं कर रही है।

जब मन ही कारण है, अकर्म जब असंभव है, तब यही युत्कि-संगत, आवश्यक और उचित है कि आंतर और ब्राह्म कर्मों को संयम के साथ किया जाये। मन को चाहिये कि ज्ञानेनिद्रयों को मेधावी संकल्प के रूप में अपने वश में करे और कर्मन्द्रियों को उनके उचित कर्म में लगाये, लेकिन ऐसे कर्म में जो योग के रूप में किया जाये। पर इस आत्मसंयम का सारत्तव क्या है, कर्मयोग का अभिप्राय क्या है? कर्मयोग का अभिप्राय है अनासशक्ति कर्म करना, पर मन को इन्द्रियों के विषयों से और कर्मों के फलो से अलिप्त रखना। सम्पूर्ण अकर्म तो भय है, मन की उलझन है, आत्मप्रवंचन है और असंभव है, बल्कि वह कर्म जो पूर्ण और स्वतंत्र हो, इद्रियों और आवेशों के वश होकर किया गया हो- ऐसा निष्काम और आसक्तिरहित कर्म ही सिद्धि का प्रथम रहस्य है।

इस प्रकार भगवान् कहते हैं कि नियत कर्म करो, मैनें यह कहा है कि ज्ञान, बुद्धि, कर्म की अपेक्षा श्रेष्ठ है, पर इसका यह अभिप्राय नहीं कि कर्म से अकर्म श्रेष्ठ है, श्रेष्ठ तो अकर्म की अपेक्षा कर्म ही है, कारण ज्ञान का अर्थ कर्म संन्यास नहीं है, ज्ञान का अर्थ है समता, तथा वासना और इन्द्रियों के विषयों से अनासक्ति। और इसका अर्थ बुद्धि का उस आत्मा में स्थिर-प्रतिष्ठा होना जो स्वतंत्र है, प्रकृति के निम्न कर्मों के बहुत ऊपर है और वहीं से मन, इन्द्रियों और शरीर के कर्मों को आत्मज्ञान की तथा आध्यात्मिक अनुभूति के विशुद्ध निर्विषय आत्मानंद की शक्ति द्वारा नियत करता है।

इस प्रकार से जो कर्म नियत होता है, वही नियतं कर्म[1] है। बुद्धि योग कर्म द्वारा परिपूर्ण होता है, आत्म-मुक्ति को देने वाला बुद्धियोग निष्काम कर्मयोग द्वारा सार्थक होता है। निष्काम कर्म की आवश्यकता का यह सिद्धांत गीता प्रस्थावित करती है, और सांख्यों की ज्ञान-साधना को-मात्र बाह्म विधि का परित्याग करके-योग की साधना के साथ एक करती है। परंतु फिर भी एक मूलगत समस्या का अभीतक समाधान नहीं हुआ। मनुष्यों के जितने भी कर्म हैं वे सभी किसी--किसी कामना से प्रेरित हुआ करते हैं और इसलिये यह कहना पड़ता है, कि पुरुष यदि कामना से मुक्त हो जाये, तो फिर मनुष्यों के जितने भी कर्म हैं वे सभी किसी--किसी कामना से प्रेरित हुआ करते हैं और इसलिये यह कहना पड़ता है कि पुरुष यदि कामना से मुक्त हो जाये तो फिर उसके लिये कर्म का प्रेरक कोई कारण नहीं रहता। हो सकता है कि शरीर की रक्षा के लिये फिर भी हमें कुछ--कुछ कर्म करना पड़े। पर यह भी शरीर संबंधी वासना की एक अधीनता हुई और यदि हमें सिद्धि प्राप्त करनी है तो ऐसी वासना से भी मुक्त होना होगा।

परंतु यदि हम यह मान लें कि ऐसा नहीं किया जा सकता, तो फिर एक ही रास्ता रह जाता है, कि हम कर्म का कोई ऐसा नियम मान लें जो हमारे बाहर हो और हमारे अंत:करण की किसी चीज से परिचालित होता हो, अर्थात् जो मुमुक्षु है वह वैदिक नित्यकर्म,आनुष्ठानिक यज्ञ, दैनन्दिन कर्म, सामाजिक कर्तव्य आदि किया करे और इन सबको केवल इसलिये करे कि यह शास्त्र की आज्ञा है तथा इनमें वह तो काई वैयक्तिक हेतु रखे और आंतरिक रस ले, वह जो कुछ करे सर्वथा उदासीन रहकर करे, प्रकृति के वश होकर नहीं, बल्कि शास्त्र का आदेश समझकर और समत्व बुद्धि के साथ।[2] परंतु यदि कर्मत्व इस प्रकार बाहर की कोइ चीज होकर अंत:करण की वस्तु हो, यदि मुक्त और ज्ञानी पुरुषों के कर्म भी उनके स्वभाव से ही नियत और निश्चित होते हों, तब तो वह आंतरिक तत्त्व एकमात्र कामना ही हो सकती है, फिर वह कामना चाहे कैसी भी हो-चाहे वह शरीर की लालसा हो या हृदय का भावावेग या मन का कोई क्षुद्र या महान ध्येय पर होगी प्रकृति के गुणों के अधीन कामना ही। हो सकती है, फिर वह कामना चाहे कैसी भी हो चाहे वह शरीर की लालसा हो या ह्र्दय का भावावेग या मन का कोई क्षुद्र या महान ध्येय-पर होगी प्रकृति के गुणों के अधीन कामना ही।

 



[1] नियतं कर्म का अर्थ बंधे-बंधाये और वैध कर्म अर्थात् वेदोक्त याज्ञिक आनुष्ठानिक नित्यकर्म और दिनचर्या नहीं है। निश्चय ही पिछले श्लोक केनियम्यशब्द का तात्पर्य लेकर ही इस श्लोक मेंनियतशब्द प्रयुक्त हुआ है। भगवान पहले एक वर्णन करते हैं, "जो कोई मन इन्द्रियों का नियमन करके कर्मेन्द्रियों द्वारा कर्मयोग करता है, वह श्रेष्ठ है (मनसा नियम्य आरभते कर्मयोगम) और यह कहकर फिर तुरत इसी कथन से, इसी के सारांशस्वरूप इसी को विधि बनाते हुए यह आज्ञा देते हैं कि तू नियत कर्म कर, नियतं कुरु कर्म त्वं-'नियतं' शब्द में "नियम्य" को लिया गया है और कुरु कर्म शब्द में आरभते कर्मयोगम को। यहाँ किसी बाह्य विधि द्वारा निश्चित वैध कर्म की बात नहीं है, बल्कि गीता की शिक्षा है मुक्त बुद्धि द्वारा नियत किया हुआ निष्काम कर्म।

नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो विद्यते स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ।। 2.40 ।।

- मनुष्य लोक में इस समबुद्धिरूप धर्म के आरंभ का नाश नहीं होता, इसके अनुष्ठान का उलटा फल भी नहीं होता और इसका थोड़ा सा भी अनुष्ठान[1]महान भय से रक्षा कर लेता है। व्याख्या- [इस समबुद्धि की महिमा भगवान ने पूर्व श्लोक के उत्तरार्ध में इस[2] श्लोक में चार प्रकार से बतायी है- इसके द्वारा कर्मबंधन से मुक्त हो जाता है, इसके उपक्रम का नाश नहीं होता, इसका उलटा फल नहीं होता और इसका थोड़ा सा भी अनुष्ठान महान भय से रक्षा करने वाला होता है।

 

[2] बुद्धि के बारे में भी यही मान्यता उपस्तापित की गई कि उसमें बहुआयामी विस्तार का सांचा ढलते हुए देखा जा सकता |

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन

बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् ।। .41 ।।

 

समबुद्धि की प्राप्ति के विषय में व्यवसायात्मिका बुद्धि एक ही होती है। अव्यवसायी मनुष्यों की बुद्धियाँ अनन्त और बहुशाखाओं वाली ही होती हैं। ज्ञान योग में पहले स्वरूप का बोध होता है, फिर उसके परिणाम स्वरूप बुद्धि स्वतः एक निश्चयावली हो जाती है और कर्मयोग तथा भक्तियोग में पहले बुद्धि का निश्चय होता है, फिर स्वरूप का बोध होता है। अतः ज्ञान योग में ज्ञान की मुख्यता है और कर्मयोग तथा भक्तियोग में एक निश्चय की मुख्यता मानी जा सकती | इसी आधार पर भक्ति और ज्ञान के सम्मेलन के बारे में भी हमारी धारणा बनती चली जाएगी |

कर्म और यज्ञ

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