ब्राहण की गाय

ब्राह्मण देवता को एक गाय दान में मिली; उस गाय को लेकर महाशय घर तो आ गए, पर रखें कहाँ? एक छोटी सी कुटिया में अपना सस्त्रीक डेरा लगता है, और उसी के बगल में मनसा देवी का एक उपासना स्थल भी बनाया गया था; फिर गौ माता के लिए मुश्किल से चार गज जमीन बन पाती होगी।  उसके ऊपर से फिर आनेजानेवालों   की कतार लगाती थी।  फिर भी किसी तरह गैया को बाँधी गई; नियमित चारे की व्यवस्था भी की गई। यह तो हमेशा के लिए परेशानी ही बन गई; ऊपर से ब्राह्मणी के कठोर वचन की बौछार चलती थी।  ब्राह्मण देवता तो गाय लेकर फिर पटकथा भूल ही गए, पर मोहिनी  के लिए यह किसी फंदे से कम नहीं; भरपूर खानेवाली गाय एक चटाक भी दूध नहीं देती।  ऐसा दिन भी आ गया जब पगहा छुड़ाकर गैया हरियाली की और भागने लगी।  तंग आकर महिनी ने उसे फिर बांधना ही छोड़ दिया, "जाओ, पड़ोस में कई खेतिहरों का बसेरा हैं, मांगकर काम चला लो। "

गौ माता को मान भाषा की समझ आई हो, चलते हुए दो चार बार मुड़ मुड़कर पीछे देखने लगी; अपना हिस्सा पाने के लिए दोपहर को घर आ जाती, हिस्सा पा लेने के बाद फिर चल देती। आनेजाने का यह सिलसिला चलता रहा।  हर बात की स्थिरता आ गई होगी ऐसा भी नहीं।  उसपात कईओं की नजर भी थी।  वे खिला पिलाकर गौ माता का विश्वास हासिल करने का प्रयास करते रहे।  फिर अकेली गैया ज्यादे दिन अकेले रहेगी क्या! उसे अपने जैसों की तलाश ही थी, जो जन्मेजय साहूकार के गौशाला में मिल ही गया।  उस पड़ाव तक गैया का कदमताल बना रहा, उसके बाद मुड़कर वापस आने की बात और दोपहर के भोजन में से हिस्सा मांगने की बात मानो भूल ही गई। 

पूजापाठ से वापस आने के बाद रोज ब्राह्मण देवता भगवती के बारे में पूछते और मन मोटाव को बनाते हुए किसी तरह भोजन कर लेते। महीने भर   से सामने का परिसर खाली देखकर उन्हें लगा कुछ इंतजाम करना चाहिए; पता नहीं कड़ी धुप में गौ माता कहाँ डेरा डालती होगी?   कुछ खाने के लिए मिलता भी होगा या नहीं! कई बात सोचकर उन्हें पीड़ा भी होती थी।  अपने देश की कथा है ही निराली; यहाँ गौ माता को पूजनेवाले और काटकर खा लेनेवाले साथ साथ रहते भी हैं और जीविका के लिए अनुसंधान भी करते हैं।  कहीं विपरीत   प्रकार से बने प्रयोगशाला में गौ माता को ले जाय गया हो तब तो पाप ही लग जाएगा।  यह सोचकर ब्राह्मण देवता अपने काम काज छोड़कर तलाशी अभियान चलाने लगे। 

बलभद्र ब्राह्मण देवता का बचपन का मित्र, उसे किसी साहूकार के गौशाला में ब्राह्मण देवता की गाय नजर आई।  खबर फ़ैल गई; पंचायत बैठी; निर्णय यह हुआ कि कुछ खर्चा पानी देकर साहूकार के पास से ब्राह्मण देवता भगवती को वापस ले जाएंगे।  इसबार भगवती बगावत पर आ गई , और अपने साथी सहपाठी को छोड़कर ब्राह्मण देवता के घर आने से इनकार कर दिया।  जिस साईकिल के पीछे बांधकर उसे लाया जा रहा था वो साईकिल भी चकनाचूर हो गया; ऊपर से कई घाव भी बने ! आखिर सौदागर की बुद्धि भी सौदों के इर्द-गिर्द ही चलती है; जाहिर सी बात थी कि एक सस्ते का सौदा हुआ और गौमाता को हमेशा के लिए साहूकार के गौशाल में जगह मिल गई। 

घर आने के लिए ही ब्राह्मण देवता चले थे, बीच पड़ाव में उन्हें फिर से बलभद्र से मुलाकात हो गई; लम्बी चर्चा भी चली।  उन्हें इसबात का भी पता चला कि भगवती को उनके घर पर ही उपेक्षा मिली, यही कारण रहा होगा कि उसने साहूकार के घर से वापस आने के लिए राजी नहीं हो रही थी।  जब भी कुछ कारनामें को अनजाम दिया जाता है तब उसके पीछे किसी न किसी किरदार की भूमिका प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आँकी जाती होगी।  इस दृष्टि से भगवती का बेघर हो जाने के पीछे भी ब्राह्मणी का ही हाथ माना गया।   एक मानवी होने के कारण उसमें श्रद्धा , भक्ति, ईश्वर अनुराग सहज रूप से ही रहता होगा; पर दृश्य जगत में कुछ कारनामों के जरिये उसने इसका प्रदर्शन ठीक से शायद नहीं किया होगा।  ब्राह्मणी को भी उसके किये का पछतावा था; साथ ही साथ मजबूरी भी थी।  गरीबी की मार झेलनेवाले परिवार से हम शायद ही यह उम्मीद रख सकें कि अपना पेट काटकर भगवती का पेट भरें; उसपर से तब जब ऐसा करने से कोई नगद नारायण अत ही न हो!

ब्राह्मणी को लगा कि भगवती आ ही रही होगी, इसबार उसने अपनी चूड़ियां बेचकर चारा लाकर रखने का इंतजाम किया; कमसे कम महीने भर की चिंता से मुक्त होने का मौका मिले! अब उसे बाहर नहीं छोड़ा जाएगा।  पर ईश्वर को यह योजना मंजूर न थी, नतीजा हुआ कि ब्राह्मण देवता मलहम पट्टी और दवाई के साथ थपेड़ों को झेलते हुए घर वापस आये; साथ में खंडित हुआ पगहा भी था।  कुछ कह पाने की स्थिति में भी न थे।  आकर बिस्तर पर   लेटे और कम्पित स्वर में एक लोटा पानी माँगा; वह पीने के लिए या फिर हाथ धोने के लिए, यह भी स्पष्ट नहीं हो रहा था।  

बरगद का पेड़

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