आज
हमें यह सोचने में भी शायद कुछ अलग ही लगता होगा जब हम एक जानकारी पाते हैं कि युद्ध
शुरू होने से पहले शंखनाद से कुरुक्षेत्र की धरती को पवित्र किया गया था; पितामह, गुरुदेव,
सभी भ्राता, प्रमुख योद्धा और स्वयं जगदीश्वर
भी अपने अपने शंख साथ में लाये थे; उन सभी शंखनाद से सुर, असुर, राजा, सेनानायक, राठी,
महारथी और स्वयं जगदीश भी युद्ध क्षेत्र में अपनी उपस्थिति का भान कराते रहे।
शंखनाद से ही सभी कर्मकांड शुरू करने
की बात और उसी शंखनाद से कर्मकांड समाप्प्त करने की बात हमारी जानकारी में आयी जरूर;
पर रण क्षेत्र में अगर वैसी परिस्थिति का निर्माण हो तब हमें फिर से
उस कर्म काण्ड के बारे में विचार करना होगा जिसमे युद्ध को भी शंखनाद से शुरू करने
के बारे में और सूर्यास्त के बाद इस रण को फिर से शंखनाद के जरिये समाप्त कर देने की
बात कही जाती हो। आधुनिक युग का युद्ध है ही निराला; कहीं कहीं पर अंधकार का सहारा
लेकर , छिपकर , शत्रु को कोई मौका न देते हुए आक्रमण कर दिए जाते होंगे; तो कहीं सूचना जाल का सहारा लेकर मशीनें
खराब कर दिए जाते होंगे; और फिर कहीं पूरी दुनिया को चार पांचबार विनष्ट कर देने की
योजना बन रही होगी; योजना बनाने वालों को शायद ही इस बात की जानकारी रही होगी कि संसार विनष्ट होने के बाद फिर किसी भी मनुष्य के
लिए धरती पर स्थान नहीं बन पायेगा; संसार के रचना तंत्र के साथ खेलने का अर्थ हुआ विनाश
लीला शुरू करने के लिए जगदीश्वर श्री हरि को शंखनाद करने के लिए मजबूर कर देना।
हमें जगदीश्वर के शंखनाद के विपरीत
चलने के बारे में स्वप्न में भी नहीं सोचना चाहिए; वैसी पात्रता भी किसी मनुष्य को
नहीं मिली; सूर्य से ऊर्जा लेकर उसी के सहारे भोजन बनाकर अन्य सभी जीव का पोषण करने
की जिम्मेदारी; प्रकृति में संतुलन बनाये रखने की जिम्मेदारी जिस भाँती जिस जीव को
मिली होगी उसे वैसा ही करते रहना होगा; शंखनाद करके शिकारी कभी भी शिकार पर झपट्टा
नहीं मार पायेगा; या फिर किसी अपराधी को पकड़ते समय किसी दरोगा को शायद ही हम शंखनाद
करते हुए देख पाए!
कुरुक्षेत्र में शंखाबाद के जरिये मानसिक
और बौद्धिक संघर्ष की सूचना हो जाने के बाद दोनों पक्षों की सेना में व्यूह रचना की ओर नजर डालने का मौका
मिला; आधुनिक युग में शंखनाद के जरिये युद्ध शुरू करने की बात को बेमानी मान लेने को हम जल्दबाजी ही मानेंगे; शंखनाद
के पैमाने और तरीके भले ही बदल गए होंगे पर अभी भी युद्ध के पहले अखबार के जरिये, प्रचार नाध्याम के जरिये, पत्राचार,
सभाएं और सेना स्थानान्तरित करने के जरिये युद्ध का शंखनाद ही होता है। सेनानायकों के आपसी मेल मिलाप को भी हम शंखनाद ही
मानेंगे। इतिहास साक्षी है कि अपने देश में
संघर्ष और नरसंहार रोकने के लिए शंखनाद किये गए थे; भले ही उस शंखनाद के बाद हमें शंखनाद
करनेवाले सैनिक के जीवन पर संकट का बादल धूमायित होते हुए देखना पड़ा; और फिर उन्हें
हमसे दूर कर देने का प्रयास भी किया गया; सभ्य जनजाति को सभ्यता की शिक्षा देने के
क्रम में भी शंखनाद करनेवाले सेनानायकों की जानें संकट में आयी; उनके ऊपर हथियार का
प्रयोग करनेवालों को शायद इस बात का अनुमान भी न रहा होगा कि शरीर छुड़ा लेने से किसी
जननायक को जनता जनार्दन के ह्रदय से दूर नहीं किया जायेगा; ऐसा कर पाने के बारे में
सोचनेवाले भी बुद्धि से कमजोर ही माने जाएंगे।
युद्ध को कभी हमने शुरू होते हुए जरूर
देखा होगा; पर इसकी समाप्ति की ओर संसार को एकरूप होते हुए आज तक नहीं देख पाए। युद्ध संस्कृति का जो भयानक परिणाम रहता होगा उसे
देखकर इतिहास से सीख लेनेवालों की संख्या भी कई होंगे; पर वैसा लड्डू किस काम का जो
हमेशा हमेशा के लिए एक डब्बे में ही रख दिया
जाय? हमें ऐसे अग्रज की तलाश हमेशा से रही जो जनता जनार्दन के ह्रदय सम्राट बन पाएंगे;
अपने यहां भी ऐसे महात्मा आये जिन्हें ह्रदय सम्राट बनते हुए भी हमने देखा; और फिर
उन्हें हम सही प्रकार से समझ ही नहीं पाए। शास्त्र में भी कुछ ऐसी ही मान्यता बन रही है कि
जगदीश्वर श्री हरि के सही स्वरुप को हम शायद ही ठीक से समझ पाएं! आखिर सागर की गहराई
के बारे में जानकारी पाने के उद्देश्य से निकलनेवाले नमक के पुतले को कभी न कभी पिघलना
तो पड़ेगा; उसके बाद यह फिर कोई माने नहीं रखता कि जगदीश्वर के शंखनाद से सृजन का निर्देश
मिला या विनाश की लीला रची गई!
हम उस अवसर की बंभीरता के बारे में
सिर्फ कल्पना कर पाएंगे जब सभी रथी महारथी योद्धा के शंखनाद से कुरुक्षेत्र की भूमि
को प्रकम्पित किया गया होगा; उसके बाद फिर श्रीहरि के पांचजन्य की भी बारी आयी होगी;
पर श्रीहरि के शंखनाद के जरिये प्रसारित की जानेवाली विनाशलीला को शायद ही कोई पक्ष
के महारथी ठीक से समझ पाए होंगे; अगर समझ पाते तो फिर श्रीमद्भागवद्गीता में एक ही
अध्याय रहता और सव्यसाची के आसपास अन्य सेनानायकों की कतार लग जाती; क्यूंकि उस परिस्थिति
में उन सभी को श्रीहरि के पास रचनाधर्मिता का और आध्यात्मिक चेतना का गुप्त मन्त्र
जो लेना था ! पर ऐसी परिस्थिति बनते हुए हम नहीं देख पाए। परिणाम हम सबके सामने है;
युद्ध शुरू हो जाने के बाद एक योद्धा के मन में युद्ध के भीषण परिणाम के बारे में सोच
विचार पनपे, और फिर उसे अगर ऐसा लगने लगे कि युद्ध न करते हुए अरण्य जीवन स्वीकार कर
लेना श्रेय होगा तो फिर हमें खुश होना चाहिए!
पर इस बात को जानकार श्रीहरि काफी नाराज हो गए और उस भावना को एक योद्धा के ह्रदय में
पनपनेवाली कायरता, कमजोरी, अज्ञान और हीन भावना कह दिया। वस्तुतः रण भूमि का बीच का क्षेत्र किसी भी योद्धा
के लिए शांति, अहिंसा और संतोष की बात करने के लिए स्थान, काल या फिर पात्रता के मापदंड से उपयुक्त स्थल नहीं मान पाएंगे ; जगदीश्वर भी ऐसा नहीं मान पाए; इस प्रयास
को उन्होंने स्वधर्म के निमित्त से भी गलता बताया । इसी लिए श्री हरि उस योद्धा को युद्ध करने के लिए
बताते रहे।
…… (विषाद योग शीर्षक पुस्तक से ; प्रस्तुति:
चन्दन सुकुमार सेनगुप्ता)