शिक्षण एक निरंतर चलने वाली सतत प्रक्रिया है | इसे सिर्फ़ विद्यालय तक सीमित नहीं माना जा सकता | हमारे निसर्ग के प्रत्येक कण में शिक्षण पाने लायक तत्व भरा पड़ा है | चाहिए एक सकारात्मक दृष्टि ताकि उन बिखरे विचार को हम सफलता पूर्वक ले सकें | मां, बाप, गुरु, संत, बच्चे इनमें यदि हम परमात्मा न देख सकें, तो फिर किस रूप में देखेंगे ? इससे उत्कृष्ट रूप परमेश्वर का दूसरा नहीं है। ईसप के राज्य में सियार कुत्ते‚ कौए‚ हिरन‚ खरगोश‚ कछुए‚ सांप‚ केंचुए- सभी बातचीत करते हैं‚ हंसते हैं। एक प्रचंड सम्मेलन ही समझिए नǃ ईसप से सारी चराचर सृष्टि बातचीत करती है। उसे दिव्य दर्शन प्राप्त हो गया है।
मानव के बौद्धिक और
वैचारिक प्रगती से हमारा यही अभिप्राय रहता है कि उसमें कुछ ऐसा परिवर्तन आ जाए जिसके
आधार पर उसे समाज में कारगर और यशस्वी बनाया जा सके | हम यह भी चाहते हैं कि व्यक्ति
में अच्छे बुणों का समावेश हो और दुर्गुणों का नाश हो | व्यक्ति में दोनों विरुद्ध
विचारों का होना एक नैसर्गिक नियति है | कभी भी शुद्ध सात्विक या फिर शुद्ध तामसिक
कोई व्यक्ति नहीं बन सकता | उसमें तीन गुणों के अंश में बदलाव भले ही आ जाएँ पर किसी
एक गुण से व्यक्ति को संपूर्ण रूप से मुक्त कर पाना कभी संभव ही नहीं हो सकता | हमें
यह भी देखना होगा कि शिक्षण प्रक्रिया सिर्फ़ सात्विक गुणों का संवर्धन करने वाला है
या उस प्रक्रिया में तामसिक गुणों से व्यक्ति को मुक्त करने की विधा भी सम्मिलित की
गई है | इस काम के लिए हम सिर्फ़ विद्यालय पर निर्भर रहें यह भी उचित नहीं माना जा
सकेगा, न ही वास्तविक | व्यक्ति विद्यालय के बाहर भी काफ़ी समय तक विविध गतिविधियों
के ज़रिए सक्रिय रहता है ; अतः उन सभी नैसर्गिक तत्वों से भी व्यक्ति कुछ न कुछ नैसर्गिक
शिक्षण प्राप्त कर लेता है |
निसर्ग से, परिवार से, माता पिता से शिक्षण पाने के बारे में सचेत रहते हुए हमें उन सभी तत्वों के बीच एक कड़ी स्थापित करने का प्रयास करना चाहिए जिससे शिक्षण प्रक्रियाओं
को एक दूसरे से जोड़ा जा सके और पूरी प्रक्रिया को अधिक कारगर बनाया जा सके |. इस विषय में हम यह भी उम्मीद रखते हैं कि निरंतर चलने वाली शिक्षण प्रक्रिया के क्रम में व्यक्ति ज़मीन से जुड़ा रहे और उसके सांस्कृतिक
और वैचारिक परिपक्वता
का संवर्धन हो सके, न कि किसी विरोधाभाषी विचारों का संकर्षन होता हुआ द्वंद उतन्न हो | व्यक्ति क्रमशः द्वंद के साथ रहना सीख लेता है ; प्रकृति का द्वंद, कर्म क्षेत्र का द्वंद और व्यक्ति जीवन का द्वंद उत्पन्न होते रहता है | उन सभी द्वंद को झेलते हुए व्यक्ति को क्रियाशील
बने रहना है | शिक्षा का यह भी अभिप्राय है कि व्यक्ति को द्वंद झेलने की सहज कला का ज्ञान हो सके | रात- दिन, ऋतु परिवर्तन,
लाभ हानि, भला -बुरा , आदि सभी द्वंद की ही परिस्थितियाँ हैं | जिस व्यक्ति में बुद्धि की स्थिरता और विचार की परिपक्वता
आ चुकी उसे किसी भी द्वंद के कारण कोई समस्या के प्रकोप मे नहीं पड़ना है | बल्कि उसे
कुशलता पूर्वक द्वंद को झेलते हुए अपनी भूमिका बनाते हुए समाज में और निसर्ग में क्रियाशील रहने की कला आ जाएगी |
हमें यह भी समझना होगा कि शिक्षण की प्रक्रिया
कभी भी न रुकनेवाली प्रक्रिया
है | यह विषय कुछ वैसा ही है जब हम नाव लेकर किसी विस्तीर्ण
जलराशि में नौका विहार के लिए उतरे हों और दूसरे पड़ाव के आने का इंतजार करते हों; दूसरा पड़ाव इतना दीर्घ है जिसके आने का हम बस इंतजार करते रहते हैं और जीवन बीत जाता है | इसे हम नमक के पुतले का सागर नापने के विषय से भी मिलाकर देख सकते हैं | सागर नापने का काम होते होते नमक का पुतला पिघल जाता है | हम सब पुतले ही हैं; कोई छोटा तो कोई बड़ा | आख़िर सबको पिघलना ही है और अपार ज्ञान का सागर हमारे लिए अछूता ही रहनेवाला
|
एक पंडित शास्त्रार्थ
करने काशी आए | कबीर दास जी से उनका शास्त्रार्थ
कराया गया | कबीर दासजी उस पंडित से पूछने लगे,
"आप पढ़कर समझे हैं या समझकर फिर पढ़े हैं?"
इस प्रश्न का उत्तर तलाशने के क्रम में ही बहुत बड़ा शास्त्रार्थ हो गया | जिसने दो अक्षर वाले शब्द
"प्रेम" का सही अर्थ जान लिया हो उसका पढ़ना ही सार्थक मानें |
भगवान का पता अगर किसी से पूछें तो उसपर व्याख्यान करने के लिए सभी जन तुरंत प्रस्तुत हो जाते हैं | भगवान सर्वत्र भले ही रहें पर उन्हें प्राप्त करने का मार्ग तो प्रेम की सांकरी गली से ही निकलेगा |
लोग तो यह भी कहेंगे ईश्वर खोजने वाले के भीतर ही मिलेंगे |
एक पढ़ा लिखा व्यक्ति बनारस की गंगा में नौका विहार पर निकला | माझी से विनोद में पूच बैठा, "अँग्रेज़ी
जानते हो?"
"नहीं हुजूर, मैं भला अँग्रेज़ी आदि का क्या जानूँ ! मुझे तो लिखना पढ़ना भी भी नहीं आता }"
"तब तो तुम्हारा बारह आने जीवन ही बेकार है |"
माझी मन ही मन मुस्कुरा रहा था और चुप रहना ही मुनासिब समझा | संयोग वश बीच नदी में नाव डगमगाया | अब वो अजनबी पढ़ा लिखा व्यक्ति घबराया |
"हुजूर आपको तो तैरना आता ही होगा !" माझी पूछ बैठा |
"नहीं मेरे भाई मुझे तैरना बिल्कुल ही नहीं आता | कोई उपाय निकालो और नाव को किनारे ले चलो
|"
उस व्यक्ति की घबराहट देखकर अब माझी को भी विनोद करने का मौका मिल गया ,
"तब तो आपकी सोलह आने जीवन ही बेकार हो गई !"
ऐसा जीवन ही किस काम का जिसे मुसीबतें झेलना न आता हो ! अब उस आगंतुक को अपने घमंडी होने के कारण लज्जा हो रही थी | अपने न तैर पाने के कारण और ज़्यादा लज्जित हो रहा था | बीच नदी में से उसे बचाकर निकाल लाने के लिए उसका ज्ञान किसी काम न आएगा |
ऐसे कई प्रसंग मिलेंगे जिसके बारे में हम पाएँगे कि ग्रंथों से मिली शिक्षा की अपनी सीमाएँ हैं और प्रत्यक्ष
अनुभव से मिलने वाले ज्ञान की व्यवहार कुशलता कहीं अधिक होती है | उस कौशल की प्राप्ति के लिए हम और अधिक सघन रूप से ज्ञान मंथन और कर्म चंचलता पा सकेंगे | परिस्थितियों का मुकाबला करने के लिए भी हमें व्यवहार कुशल होना होगा | कौन ब्रह्म ज्ञानी है और कौन मूर्ख इसका आकलन तो परिस्थिति के मुताबिक ही किया जा सकेगा | आकाश मार्ग से हवाई जहाज़ से जाते समय उस नौका के माझी का अनुभव कोई काम में नहीं आएगा | जहाँ जिसकी भूमिका बनती है उसी सीमा में उसके कौशल्य की प्रतिष्ठा
मानी जाएगी | हम किसी ब्रह्मा ज्ञानी से अन्य किसी ब्रह्म ज्ञानी की तुलना भी हर परिस्थिति में नहीं कर सकेंगे | अनेकांति विचार की दृष्टि से हर व्यक्ति उतना ही अहम है जितना अहम हम खुद को मानेंगे
| भारतीय परंपरा के महर्षि और संतगण भी अपने दार्शनिक विचार के माध्यम से उस मैत्री के महामंत्र की ही प्रतिष्ठा माने जिसे वेद में भी स्वीकृति मिली हुई है | कृष्ण भगवान अर्जुन को युद्ध भूमि में भली भाँति तत्व दर्शन और कर्तव्य बुद्धि का पाठ दे सके और इसमें उनको काफ़ी सफलता मिली इसका एक ही कारण है कि उन्होंने अर्जुन से अपना मित्रवत व्यवहार रखा | सर्वशक्तिमान के उस मैत्री का स्वरूप ही था जिसके कारण उन्हें अर्जुन की शंकाएँ दूर करने में सहजता मिली |
व्यवहार कुशलता
दंडकारण्य
में दो राक्षस रहते थे एक का नाम था आसाती दूसरे का नाम था वासाती | दोनों मिलकर कई संतों को मिटा चुके थे | आसाती संतों को बुलाकर लाता और वासाती खुद को भोजन के रूप में परोस देता | भोजन के बाद जब भी संत उन दोनों को भी भोजन कर लेने का आग्रह करते तो आसाती अपने भाई वासाती को पुकारने लगता | नतीजा यह होता कि वासाती संतों का उदर चीरते हुए बाहर निकल आता
| काफ़ी दिन तक यह सिलसिला निरंतर चलता रहा | संतों ने अगस्त मुनि से इस समस्या का हल निकालने के लिए कहा | अगस्त मुनि भी उसी तरह आसाती के निमंत्रण पर आए और भोजन करने के बाद आसाती से आग्रह करने लगे कि वो अपने भाई को खाने पर बुला ले; पर इस बार श्री मुनि उसके भाई को पूरी तरह पचा चुके थे | जाहिर सी बात है कि वासाती मुनि का पेट चीरकर बाहर निकलने में असमर्थ रहा | इसी विरह में आसाती भी समाप्त हो गया | पढ़ने लिखने का फल यह भी नहीं होना चाहिए कि व्यक्ति समाज और व्यवस्था से ही दूर हो जाए | अपने दैनिक जीवन में आनेवाले कुछ काम तो उसे कर लेने के लिए तत्पर भी रहनी चाहिए |
बंबई में रास्ते से गुजरने वाले एक बड़े व्यापारी के सफ़र करते समय की एक घटना हम याद कर सकते हैं | उनकी गाड़ी बीच रास्ते में अचानक खराब हो गई और एक पहिया बदलने की नौबत आ गई | गाड़ी का चालक कीमती वस्त्र पहने हुए था इसलिए उसने करीब के किसी कारीगर को बुलाने का प्रयत्न करने लगा | इतने में उस बड़े व्यापारी ने अपना कोर्ट जूते आदि उतारकर काम पर लगना ही मुनासिब समझा ताकि थोड़ा समय बचाया जा सके | इस घटना को देखते हुए गाड़ी का चालक भी अपने वस्त्र की परवाह न करते हुए काम में लगा और जल्द से जल्द उस काम को पूरा करने का प्रयास करते रहा |
सभा में पहुँचने में विलंब तो हुई पर ज़्यादा परेशानी से वो बच गये | अगर अपना अभिमान लिए व्यापारी और गाड़ी चालक कारीगर का इंतजार करते रहते तो शायद सभा में पहुँच ही नहीं पाते , पर उन्होंने समझदारी दिखाते हुए समय बचा लिया
| नीति परायणता का उदाहरण रामायण में भी जगह जगह पर मिलता है | रण में मेघनाद मारे जाने के बाद उसकी पत्नी सुलोचना रावण से आग्रह करने लगी कि उसे सती होने का मौका दिया जाय | ऐसा कहकर सुलोचना श्री रामजी के शिविर में जाने के लिए निकल पड़ी | सबने रोकने का प्रयास किया और रावण से कहा कि सुलोचना को शत्रु के शिविर में जाने से रोकें | रावण को उसे रोकने का कोई उचित कारण नहीं लग रहा था | सुलोचना को रोककर भी राम बदले की भावना से ग्रसित होकर काम कर सकता है, ऐसी शंका व्यक्त करने के बाद रावण ने कहा ,
"यह काम रावण का हो सकता है पर राम का नहीं | जिस शिविर में बालक ब्रह्मचारी होते हों उस शिविर में ऐसा काम हो ही नहीं सकता
|"
कहने का तात्पर्य है कि रावण को भी यह ज्ञान हो गया था कि श्री राम और उनके साथी नीति परायण होकर युद्ध करते रहेंगे | उनके शिविर में किसी का भी नीति भ्रष्ट होने की कोई संभावना ही नहीं है | नीति परायण होने का सीधा संबंध अगर ज्ञान आहरण से होता तो रावण को भी नीति परायण होना था, पर हक़ीकत में ऐसा हमें देखने के लिए नहीं मिलता | हर तरफ पढ़ने लिखने की ही ज़्यादा चर्चा होती है | पढ़ने लिखने की ओर लोगों का रुझान भी काफ़ी बढ़ा | इसी क्रम लोगों में कर्म प्रधानता की कमी देखी जा रही है |
शिक्षा सर्वेक्षण के काम से दलमा घाटी के आस पास बसे ग्रामीणों के बीच घूमते समय शिक्षा के प्रति ग्रामीणों का आग्रह कम होने का कारण पता लगाना था | घाटी में बसे एक गाँव के एक वरिष्ठ का कहना था कि विद्यालय जाने वाले बच्चे हल जोतना भूल जाते हैं, कुछ दिनों के बाद अन्य कोई काम करना भी नहीं चाहते | बेहतर होता यदि सबके सब विद्यालय बंद कर दिए जाते | इस विरोधाभाषी
विचार से ओत प्रोत होने के बाद शोधकर्ता यह तलाश करने में जुट गये कि कुछ ऐसा सुधार करें जिससे उन ग्रामीणों का शिक्षण संस्थानों
पर विश्वास बन सके | आज तक ऐसा कोई पहल हो ही नहीं पाया
|
महात्मा और बाबा विनोबा के पास इसका काफ़ी व्यवस्थित
हल था, जिसको आधार मानकर बच्चे कम से कम हल जोतना नहीं भूलते और लोहे के बैल से होनेवाली समस्या का भी निराकरण कर पाते | पर अपनी व्यवस्था आधुनिकता के चक्रवात में फँस चुकी है | आए दिन कठिनाइयों
का नया समीकरण सन्दर्भित हो रहा है |
संस्कृति की जड़ें
भारत में अँग्रेज़ी
हुकूमत का एक लंबा दौड़ चला | नीति परायणता के चलते पृथ्वीराज
चौहान पहले ही हार चुके थे | चारों ओर से भारत में दस्तक देने का द्वार खुल चुका था और एक के बाद एक लुटेरों की घुसपैठ चलती रही | उपद्रवियों
के बीच आपसी लड़ाइयाँ भी चली | उन सबमें ज़्यादा कौशल्य रखने वाले अँग्रेज़ों
को लगा क्यों न भारतवर्ष को अँग्रेज़ी
हुकूमत का अभिन्न अंग बना लिया जाय | इस काम में एक ही बाधा आ रही थी और वो था भारतीय मूल के लोगों में व्याप्त संस्कृति की मजबूत जड़ | उस मजबूत जड़ के कारण उन्हें पूर्णतः गुलाम नहीं बनाया जा सकता | उन दिनों बंबई प्रांत में एल्फ़ींसटोन
नामक एक अंग्रेज अधिकारी राज करता था | उसने अपने राजा को वफ़ादारी दिखाते हुए यह वादा किया कि अगर भारतीय मूल के लोगों को अँग्रेज़ी सिखा दिए जाएँ और अँग्रेज़ी अदब क़ायदे का अभ्यास करा दिया जाय तो वो अपनी संस्कृति से अलग होकर अँग्रेज़ी संस्कृति के आदि हो जाएँगे और उस परिस्थिति में सुदूर लंदन से भी भारत पर लगाम कसा जा सकेगा | हक़ीकत तो यह ही है कि अपना देश आज भी गुलामी और वैचारिक दीनता जैसी परिस्थिति
का सामना कर रहा है | विविध विचारों में एकरूपता का सूत्र पिरोना सचमुच ही काफ़ी कठिन, और कभी कभी असंभव सा ही प्रतीत हो रहा है |
अँग्रेज़ों
को यह भी लगने लग गया था कि जिस प्रकार से राष्ट्रीयता का ऊफान सन ४७ में व्याप्त हो रहा था उससे यह लगने लग गया था कि स्वतंत्र भारत बड़ी तेज़ी से प्रगति करेगा | इस प्रगति की गति को कम करने का एक ही उपाय है: मानव संसाधन और नैसर्गिक संसाधनों के बीच बटवारा करा दिया जाय | इसी क्रम में हिन्दुस्तान,
पाकिस्तान का जन्म हो गया | बँटवारे की लकीर को जान बूझकर डाली गई ताकि आस पास रहनेवाले समुदाय कभी कमर कसकर सीधा खड़ा भी न हो सकें; मज़हबी अलगाव पहले से तो थे ही | विडंबना ऐसी बढ़ी कि मज़हबी खींच तान लंबी अवधि से चलते चले आ रहे हैं | अँग्रेज़ों
को अपनी सफलता पर गर्व भी होता होगा | छोटी छोटी बातों के लिए लड़ जाने और मार मिटने की प्रस्तुति
के बारे में सुनकर दुनिया के लोग इन दोनों मुल्कों की निंदा भी करते ही होंगे | अपना नुकसान होता हो और हमें समझ में न आता हो यह काफ़ी चिंता का विषय है | इस परिस्थिति
में नई पीढ़ी के लोग समग्र विषयों पर पुनरावलोकन करना ज़रूर पसंद करेंगे |
साझी संस्कृति का रथ
आधुनिक सभ्यता के साथ ताल मिलाकर चलने के लिए हम सबको एक ऐसी संस्कृति का आदि होना होगा जिसमें सभी मनुष्यों के अरमानों और हितों की रक्षा हो सके | कर्म प्रधानता के साथ साथ मूल तत्वों का भी संरक्षण हो सके | विज्ञान को आधार मानकर चलने वाले इस संस्कृति के रथ दो ही पहिए हो सकते हैं: शौर्य और धैर्य का पहिया | कहते हैं ऐसा ही रथ श्री रामजी को जंग भूमि में विजय दिलाया था | इंद्र का सम्मान करते हुए उन्होंने इंद्र के द्वारा भेजे गये रथ को भले ही रख लिए हों पर उनका यह हनुमान रूपी दिव्य रथ ही मुश्किल की घड़ी में काम आया | आधुनिकता का नशा इतना भी न हो कि हम मानव मुल्यबोध पर आधारित संस्कृति से उखड़ जाएँ और शैवाल दल की भाँति जलाशय में तैरते रहें | वह तो नीरभिमानी
रुद्र अवतार श्री बजरंग बली का ही प्रताप था जिसके कारण रावण को धराशायी होना पड़ा | उसका ज्ञान दस मस्ताकों के समान था (रूपक में उन्हें दसानन कहते थे) | इतने पर भी अहंकार और दंभ का बादल उस ज्ञान को ढक दिया था| बजरंगी तो अपनी कुछ करामात मानते भी नहीं थे |
समाज का स्वरूप बड़ी तेज़ी से बदल रहा है | सूचना तंत्र का ही प्रतिफल है कि अपने पास काफ़ी जानकारियाँ आ चुकी, पर किस जानकारी का कहाँ उपयोग करना है इसे बताने वालों की कमी आज भी ख़टकती है | कभी रामायण के युग में जब अगस्त मुनि के आश्रम से आगे का मार्ग श्री राम पता लगाने लगे तो मार्ग बताने वाले पचासों आ गये | उनमें से गिने चुने चार संतों को श्री अगस्त मुनि ने श्री राम के साथ भेजा और पंचबटी का मार्ग बताया गया | चार संत से अभिप्राय चार वेद का था और पंचबटी से पाँच इंद्रिय का अभिप्राय था | शरीर के साथ ज्ञान का उचित समन्वय होने के बाद ही व्यक्ति पूर्णता प्राप्ति के मार्ग पर कुशलता पूर्वक आगे बढ़ सकेगा | किसी भी कार्य में उतरने के पहले साधु मत लेने की अपनी प्राचीन परंपरा है ; और भी विधान में ऐसी परंपरा सन्दर्भित
होती है |
एकबार अपने ही देश में राष्ट्रपति
को नींद न आने की पीड़ा सता रही थी | प्रचलित इलाज से कोई काम नहीं हो रहा था | उन्होंने एक फकीर बाबा से परामर्श लेना उचित समझा | उनके चुने हुए सिपाही श्री राष्ट्रपति
महोदय का संदेश लेकर फकीर बाबा के पास पहुँचे और कहे,
"हमारे राष्ट्रपति जी ने आपको याद किया है, आप हमारे साथ उनसे मिलने के लिए चलिए |"
फकीर बाबा कुछ गिने चुने मरीजों से मिलने के लिए बाहर निकलने की तैयारी कर रहे थे, "तुम्हारे सुलतान के दरबार में भला मुझ जैसे फकीर का क्या काम ! उन्हें जाकर कह दो मैं नहीं आ सकता | "
सिपाहीगण अपने ही साथ खड़े अपने मुखिया को कहने लगे, "अगर आपका आदेश हो तो ....
|"
मुखिया वापस जाकर अपने राष्ट्रापापति को बताना मुनासिब समझा और उनके दिए आदेश के मुताबिक काम करने का निश्चय करते हुए वहाँ से वापस आ गये |
"फकीर बाबा को जाकर कह दो मैं ही उनसे मिलने आना चाहूँगा
|", राष्ट्रपति महोदय इतना तो समझ ही गये कि सिपाहियों
ने उस फकीर से ठीक से बात नहीं किया होगा |
"फकीर बाबा आज आप घर पर ही रहें, आपसे सुलतान मिलने के लिए आ रहे हैं |
", सिपाही गण कुछ नम्र होकर उस फकीर से निवेदन करने लगे |
फकीर भला कहाँ रुकने वाला था, वो यथावत अपने नित्य काम से निकल गया | उसके पास और भी मरीजों से मिलने की योजना पहले से तय थी ; उस दिन भी मुलाकात नहीं हो पाई | तीसरे दिन राष्ट्रपति काफ़ी देर से आए और फकीर बाबा के डेरे पर इंतजार करने लगे | आख़िर बड़ी इंतजार के बाद मुलाकात हुई, " ऐसी क्या तकलीफ़ है आपको?"
"तकलीफ़ तो है , रात को नींद नहीं आती
|"
"एक सुलतान को भला नींद कैसे आ सकती!"
, फकीर बाबा स्पष्ट ही बोल गये |
"माने!"
"नींद इंसान को आती है , सुलतान को नहीं | बिस्तर पर जाने के पहले भूल जाया करो कि तुम किसी मुल्क का मुखिया हो तो सहज ही नींद आ जाएगी |"
"इतना भी सरल है!"
"इतना ही सरल है, करके देखो
|"
हक़ीकत में ऐसा करने से सुलतान को नींद आने लगी | उस फकीर के चमत्कार से काफ़ी प्रभावित हुए |
आख़िर मन ही है जो व्यक्ति को कई तरह प्रभावित करते रहता है | मन अगर स्वाभिमान से ज़्यादा ग्रसित होने लगे तो समझना चाहिए परेशानी बढ़ी | अपने शंकर भगवान से जुड़ी एक कथा से हम उनके महायोगी होने का और पार्वती के तत्वज्ञानी
होने का प्रमाण प्रत्यक्ष कर पाते हैं | सती के गुजर जाने के बाद आदि देव अक्सर ध्यान मग्न ही रहने लगे | महादेव को ध्यान से उठाने का जटिल काम श्री कामदेव को दिया गया ताकि अन्य देवताओं का कल्याण हो सके |
योगी, जटिल , आकाम मन, अमंगल वेश धारी, मातृहीन, गृहहीन , जटाधारी , क्षीण और दीन ऐसे ही अवगुणों के धनी हैं अपने महादेव | श्री नारद मुनि से परिचय पाकर पार्वती के माता पिता तो काफ़ी चिंतित हो उठे पर कुमारी का मन हर्षित हो उठा ! जिसे मुनि अवगुण गिना रहे थे वे सबके सब असल में उनके ईश्वर अभिमुखी होने का ही प्रमाण दे रहा था | शिव और पार्वती को मिलाने में श्री नारद मुनि ही अहम भूमिका निभा रहे थे | उन्होंने शंकर भगवान के मन में भी काम उत्पन्न करने का प्रयास किया ; और महादेव ही थे जिन्होंने
काम को जलाने का निश्चय कर लिया | काफ़ी अनुनय करने के बाद वो मान तो गये पर उनको देखते ही पार्वती की माँ मैना के हाथ से आरती की थाल गिर गई | एक पार्वती ही थी जिसे महादेव से व्याह करने की ज़िद पड़ी थी | नियति को जो मंजूर था वो तो होना ही था ; अंततः दोनों एकरूप हुए | आदि शक्ति और जगन्माता जगदंबा की ही एकरूपता थी जिसकी कल्पना देवगण किया करते थे | हम उस मिलनेवाले और मिलानेवाले दोनों के समझदारी और सूझबूझ की सराहना करते हैं जिन्होंने लोक हितार्थ कुछ निर्णय ले पाए थे | पार्वती की भी समझदारी इस बात से आकलित की जाएगी जिसके बल पर उन्होंने अवागुणों में गुणों को तलाश लिया | संवेदनशील होना दिव्य पुरुषों और देवत्व के गुणों से पुष्ट महाजनों की पहचान है | हज़रत मोहम्मद को एक माता ने कुछ फल भेंट में देने आई | मोहम्मद तुरंत खाने लगे और सबके सब फल अन्य किसी को न दिए खा गये | उस माता को बहुत अच्छा लगा, संतोष मिला और वापस आ गई | आम तौर पर मोहम्मद बाँट कर ही खाया करते थे , पर इसबार किसी को एक भी फल न देने का कारण उनसे पूछा गया | उनका कहना था कि फल मीठे नहीं थे, और इसका पता चलने पर उस माता को अच्छा नहीं लगता यही कारण है कि मोहम्मद ने फल के खट्टे होने की बात को छिपा लिया ताकि उस माता को बुरा न लगे | उनकी इस संवेदनशीलता
और तत्परता के लिए सभी भक्त उनसे इस बात की सीख लेने लगे |
कभी कभी हक़ीकत जानकार भी बताना उचित नहीं होता |
आचार्य कहते हैं,
"सत्यम जगत तत्वतः । " जगत में दार्शनिक लोग जिसे कभी कभी असत्य मान लेते हैं वह भी असल में सत्य ही है। भ्रम स्थल में जो ज्यां का अधिस्थान होता है उसे भी आने भारतीय दर्शन में सत्य मन गया। कोई अगर एक रज्जु को देखकर भ्रम वश सर्प कह दे उसे भी तत्वतः सत्य माना जाएगा, भले ही क्षणिक काल के लिए ही क्यों न हो। संसार में होने वाला सब ज्ञान ही यथार्थ ज्ञान है। भले ही किसी किसी स्थान काल और पात्रता के आधार पर इस विषय को तर्क का विषय माना जाए , परन्तु धर्मार्थ मार्ग में तर्क की कोई प्रतिष्ठा
है ही नहीं। यही कारण है किहम सत्य को ही सभी सृष्टि और कर्म का आधार मान लें।
"वयं अमृतस्य पपुत्राः। " तत्वतः यह सत्य हो सकता है ार ज्ञान के अधिस्थान के आधार पर व्यक्ति से व्यक्ति का अंतर तो प्रकृति के गुणों के अधीन है और अभ्यास का भी विषय है। व्यवहार और क्षमता कि दृष्टि से भिन्नता रहने ही वाली है। श्री भागवत में वैष्णव धर्म को ही परम गति का मार्ग बताया गया। परमात्मा को पाने का यह भी एक अन्यतम मार्ग है जिसके पथगामी होकर माया मोह से मुक्त होकर हम अपने ही दिव्य स्वरुप को देख पाते हैं।
कर्तव्य बुद्धि और तत्व चिंतन
समाज में हम अपनी भूमिका तय करते समय ज्ञान और कौशल को ही आधार स्वरुप व्यवहार में लाते हैं और समाज में रिश्ते नाते बनाते रहते हैं। एक धर्मार्थी को ऐसी कृति करते समय सिर्फ इतना धयान रखना होता है कि व्यक्ति सभी बंधनों से निर्लिप्त
रहे और समय आने पर श्री हरी धाम कि यात्रा कर आये और माया रहित होकर संसार बंधन से मुक्त हो सके। रघुनाथ जी का चरित्र भी एक तपस्वी राजा का चरित है। श्री भारत भी मिसाल कायम करते हुए निर्लित भाव से ही अयोध्या के नागरिकों को अपनी सेवा देते रहे। इस निर्लिप्तता का एक फल यह मिलता है कि व्यक्ति बड़ी ही सरलता से संसार बंधन को छोड़ पाते यहीं और श्री हरी के चरण का आश्रय ले पाते हैं।
एक गुरु ही हैं जो अपने भक्त को सरलता पूर्वक बैकुंठ का सुख दे सकते हैं और व्यक्ति को देवत्व का दर्शन करने के क्रम में सहायक होते हैं। "प्रयक्षति
गुरु प्रीतो वैकुंठम योगी दुर्लभम।
" ऐसा कहते हुए श्री सौनक जी गुरु महिमा का प्रतिपादन करते हैं। तन कि शुद्धि के लिए बहुत से साधन हैं , धन को शुद्ध करते के लिए दान आदि कर्म किये जाते हैं; चित्त शुद्धि के लिए ईष्ट चिंतन और उनके आराधना में लगे रहने को ही एकमेव मार्ग है। मन के जरिये ही हमारा कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय नियंत्रित
होते रहता है। अतः मन को विषयों से अलग कर पाने से ही मन निर्मल और ईश्वर अनुरागी हो उठता है और हमें एक ऐसे दिव्य लोक कि अनुभूति होने लगती है जिसके आधार पर हम दिव्य स्वरुप वाले श्री हरी कि उपस्थिति और कर्तृत्व महसूस करने लगते हैं।
मन को एक प्रेत से तुलना किया गया है और इसी लिए मन को कर्म में लिप्त किये रहने कि बात कही गई। ईष्ट चिताएक बार कर लिए और निरश्त हो गए यह वृत्ति कभी फङाई नहीं हो सकता। चिंतन और मनन का सातत्य उतना ही जरूरी है जितना कि इस चिंतन शुद्धता का।
" एतस्मान परम किंचित मनः शुद्धिं न विद्यते। "
ऐसा कहते हुए ऋषि बताते हैं सिर्फ ईश्वर चरित का गुणगान करने से मन कीशुद्धि पाई जा सकेगी।
संतों के जीवन में भी चिंता होती है पर उनकी चिंता का मूल कारण व्यक्तिगत
सुख की कामना या फिर किसी लाभ -हानि का कोई विषय नहीं होता ; महात्मा सदा लोक कल्याण को लेकर चिंतित हो जाते हैं और धर्म की रक्षा का मार्ग सुझाते रहते हैं। यह स्वभाव ही एक संत का सहजात वृत्ति है। पाखण्ड धर्माचरण का स्वरुप बताते हुए संत जन कहा करते हैं कि जब किसी धर्माचरण को सिर्फ दिखावे के लिए किया जाता हो तो उसे लोक प्रीत्यर्थ
किया जाने वाला धर्माचरण नहीं मान सकते। आधुनिक समाज में ऐसे पाखण्ड से ग्रसित धर्माचरण का वर्चस्व चारों और दिख रहा है।
भगवत विरोधी और भागवत विरोधी कृत कर्मों से हमें दूर ही रहना चाहिए। अगर हम भगवत भक्तों कि आलोचना करने लगें तो भी धर्माचरण को कलंक लग जाता है। आधुनिक स्त्थिति में ज्ञान और वैराग्य कि स्थिति जर्जर हो चुकी और लोगों का मन भी इन विधाओं से हैट चूका है। भक्ति ये दो पुत्र, ज्ञान और वैराग्य, मानो आज कि स्थिति में अचेत पड़े हैं और कोई भी समाधान दे पाने के लिए असमर्थ पाए जा रहे हैं। उनकी अचेत अवस्था के कारण ही हमें उनके धर्मार्थ सेवा का फल मिल नहीं आता। क्षणिक अवधि के लिए व्यक्ति के मन में श्मशान वैराग्य भी आता है। श्मशान से बाहर आते ही उनका वो वैराग्य समाप्त हो जाता है।
"सत्कर्म सूचकों नूनं ज्ञान यज्ञो स्मृतो बुधैः |
"
इस ज्ञान यजन के आधार पर ही सत्कर्म कि गति प्रबल होती है और लोग समाधान पाने के लिए प्रयत्नशील
हो जाते हैं। उस कर्म को ज्ञानाग्नि दग्ध होना चाहिए। तत्व चिंतन से ही देवत्व प्राप्ति कि लालसा उत्पन्न होती है और उसे के प्रीत्यर्थ
लोग सत्कर्म में पुनः पुनः लिप्त होने का प्रयास करते हैं।
वेदांत के आलोक में परिमित रूपक के निमित्त से उपनिषद् को लिपिबद्ध किया गया। उस उपनिषद् से चुने हुए सीख को संकलित करते हुए महर्षि विद व्यास ने श्री मद्भगवद्गीता का प्रतिपादन किया। इस गीता में सांख्य, योग और वेद का समुचित समन्वय हो सका।
हर शाश्त्र में सत्कर्म कि महत्ता का विवरण दर्ज है।
आत्म स्वरुप , सच्चिदानंद
और विशुद्ध चैतन्य स्वरुप कि अनुभूति आने कि स्थिति को ही शास्त्र में ज्ञान योग कहा गया। ज्ञान योग के अभ्यासी क्रमशः सृष्टि के रहस्य का उदघाटन करते हुए क्रमशः अपने लिए और अपने समुदाय के लिए मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर लेते हैं। ज्ञान योग के अभ्यासी जनों को इस बात का ज्ञान हो जाता है कि संसार में सभी वास्तु, सभी रिश्ते नाते और सभी सम्पदा अनित्य हैं ; उन अनित्य वस्तुओं से योगियों का ध्यान हैट जाता है और उन्हें सृष्टि के रहस्य को समझने में सहायता मिलती है। इसी क्रम में आत्मा के अविनश्वरत्व का भी ज्ञान हो जाता है। उसी अविनश्वर आत्मा और उसका आधार स्वरुप परमात्मा पर मन टिकने लगता है। इस पर्याय में व्यक्ति जीवात्मा और परमात्मा के सही स्वरुप को भी समझ पाटा है। ऊर्जा संकर्षण के क्रम में जीवात्मा को परमात्मा के अंश रूप में भी प्रतिभासित
होता हुआ दिखेगा। हम उस जीवात्मा और परमात्मा के एकीकृत स्वरुप के बबरे में भी अपनी समझ बना सकेंगे। यह एक सहजात वृत्ति है जिसके बा पर ज्ञान योगी के मन से हिंसा, द्वेष, क्रोध आदि अवगुण अपने आप ही हैट जाता है और उनका मन संतोषी होने के साथ साथ ईश्वर अनुरक्त भी होने लगता है।
चार प्रचलित ब्रह्म वाक्य निम्न रूप से हैं:
1. अयमात्मा
2. सर्वं खल्विदं ब्रह्म
3. तत्वमसि
4. अहम् ब्रह्मास्मि
गुरु मुख से इन ब्रह्म वाक्यों का श्रवण, मानना और चिंतन का विषय ही ज्ञानाग्नि
दग्ध ब्रह्म जिज्ञासा का विषय है।
सेवा भाव या सेवा का भाव!
अपने देश में सेवा भाव से काम करनेवाली संस्थाओं की कमी नहीं है | उस संस्थाओं को देश विदेश से सेवा कार्य और ग़रीब कल्याण के नाम से पैसे भी मिल जाते हैं | इस प्रकार से सेवा करने के लिए बनी संस्थाओं की गतिविधि चलती चली आ रही है | उसी संस्था के आस पास समान विचारधारा
वाले और समरूप तत्वज्ञान से प्रबुद्ध होकर कार्य करनेवालों
का जमावड़ा भी होता आ रहा है | जब कोई व्यक्ति किसी दरिद्र व्यक्ति तक आसानी सा पहुँचना चाहे तो भी इन सेवा भावी संस्थानों के ज़रिए पहुँचने का प्रयास किया जाता है ताकि दान को महिमा मंडित किया जा सके और उस सेवा भाव का मूल मकसद सध सके | आचार्य चाणक्य कहा करते थे कि सत्य अगर कड़वा हो और अप्रिय हो तो न कहा जाय | पर सत्य को अगर हम इश्वर मान लें तो असत्य कहना या सत्य को छिपाने के लिए गोल मटोल बातें करना भी कहाँ तक मानी हो सकेगा !
ग़रीबी उन्मूलन अगर किसी संस्था का ध्येय हो सकता तो सरकार बहादुर का भी यही ध्येय है और उनका प्रयास भी यही है कि ग़रीब नागरिक के ग़रीबी से ग्रसित होना का सही कारण पता करते हुए उसे उस ग़रीबी के जाता जाल से छुड़ा सके |
संवेदनशीलता
पुराण और वेदों में ऐसे काफ़ी उदाहरण मिलते हैं जिसके ज़रिए हम एक सम्राट और एक नागरिक के संवेदनशीलता
को समझ सकें | एकबार भक्त सुदामा के परिवार वर्ग ने सुझाया कि उनके मित्र श्री कृष्ण कन्हैया सम्राट बन चुके , अब तो सुदामा को इस अवसर का भरपूर लाभ उठाते हुए अपनी ग़रीबी दूर कर लेनी चाहिए ! पर सुदामा के मन में कुछ संकोच था; जिस मित्र को एक मुट्ठी चावल की भुजिया नहीं दे पाए थे उसी मित्र से कुछ कैसे माँगा जाय ! और फिर मित्र भला किसी मित्र से कहाँ कुछ माँगता है ! मित्र से सिर्फ़ मैत्री का ही संबंध रहता है | उस मैत्री के संबंध में स्वार्थ का आना उचित नहीं है और ऐसा करना भी नहीं चाहिए |
काफ़ी अनुनय विनय करने के बाद सुदामा मान तो गये पर उनके मन में किसी और कारण से आनंद और हर्ष का बाढ़ आया ; काफ़ी लंबी अवधि के बाद उन्हें अपने मित्र से मिलने का मौका मिलेगा और इस मौके को सुअवसर में बदलते हुए सुदामा वही भेंट लेकर निकल पड़े आश्रम प्रवास के समय जो कृष्ण के माँगने पर भी नहीं दे पाए थे | उस कारण से बने आत्म ग्लानि को धो डालने का समय आया है यह जानकार भी सुदामा हर्षित हो रहे थे | गिरिधारी का मित्र वह भी ऐसी दशा में ! विश्वास भला किसे हो पाता , अतः सैनिकों का भ्रमित होना भी जायज़ था | सुदामा को कृष्ण के सिंह द्वार पर ही रोका गया | अंदर जानकारी भेजी गई, और फिर क्या; गिरिधारी अपने उस मित्र को गले लगाने के लिए दौर पड़े और अपने परिषदों को अचंभे में डाल दिया | उस मित्र को अपने ही आसान पर बिठाया और दोनों का प्रेम संवाद फिर देखते ही बन रहा था |
चंदन सुकुमार सेनगुप्ता