काफी
बहस करने के बाद परहेजी गिने चुने पूजा पंडाल में जाने के लिए राजी हो गया।
सब
जो दुर्गा माँ, दुर्गा माँ कहके चिल्लाते हैं;
उन सबके चिल्लाने से उस पंडाल में माँ कभी आती होंगी क्या? और भी कई अजीब किस्म के
प्रश्न लेकर लालू पुजारी के साथ अक्सर उसका बहस हो जाता है। थाल में सिन्दूर सजाकर लोग माँ, माँ करते हैं; और
हड्डी मांस से बने माँ को दो रोज की रोटी तक नहीं देते। ऐसे में क्या उनके कहने से दुर्गा माता आ भी सकेंगीं?
जहाँ
हाड मांस की माता को रोटी नसीब नहीं होता,
वहाँ फिर उन्हें कौन पूछेगा?
बस
परहेजी कई पूजा पंडाल से घूमकर तो आ गया , पर यह मान लेने से इनकार कर दिया कि हकीकत
में किसी भी पंडाल में मान आई भी होंगी!
एक जगह से उसे गन्दा और अनपढ़ कहकर भगा दिया। एक पड़ोस में पंडाल के मुखिया का बूढा बाबा ही घर
में पड़े तकली से कराह रहा था; और पंडाल के पास कीमती पटाखे जलाये जा रहे थे; हिसाब
सलटाया जा रहा था ताकि सरकारी पैसे हजम किये जा सकें। गुलदस्ते सजाये जा रहे थे , ताकि नेताजी को भेंट
में दिया जा सके। कुल मिलाहर उसे देवी माँ का दर्शन तो मिला , पर
माँ को दो वक्त की रोटी ही नसीब नहीं हो रही थी।
इसलिए
अष्टमी संधि के थाल में पड़े सिन्दूर पर उसे कुछ ख़ास भरोसा नहीं रहा ; देवी माँ भी शायद
मन ही मन कह रहीं थीं आदमी का सुधरना निहायत ही कठिन है। सब खा पीकर बराबर करने वालों की टोली पंडाल में जमघट लगाकर नजरें गड़ाए बैठे थे;
उन्हें खुद की भी फ़िक्र नहीं रहती; दूसर की क्या करेंगे ।
परहेजी
को सिर्फ मास्टरजी के पास से एक पचास रुपये का नोट मिला । वो दौड़कर गया, और फलटण की माताजी को चार रोटी खरीद
कर दे आया। कमसे कम आज के दिन उसे मिला यही
बहुत !
पंडाल
जाकर प्रसाद खाने की बात कुछ बनी नहीं; कई जगहों से पहले ही अनपढ़, गंवार नालायक , और
पता नहीं क्या क्या कहकर निकाल दिया गया । एक रावण को मारने के लिए कभी रामजी पूजा
किये थे; अभी तो चारों और रावण ही रावण है; पता नहीं रामजी फिर कब पूजा करने के लिए
आएंगे; आएंगे भी या नहीं।