कभी कभी यह प्रतीत होने लग जाता है कि अहिंसा का व्रत शायद व्यक्ति जीवन के दिनचर्या से अलग ही किसी विधान का हिस्सा बनकर रह गया; इसपर विमर्श और मंथन होते रहे, शायद भविष्य में भी इसे जारी रहता हुआ देखा जा सकेगा; पर व्यक्ति जीवन में इसे कहाँ तक उतरता हुआ देख पाएंगे इस विषय को लेकर हमारी शंका बानी हुई है। हम यह भी समझने लग जाते हैं कि अहिंसा का व्रत शायद संत महात्मा तक ही सीमित रहनेवाला है; इसे शायद सामान्य जानूं तक सामान्य तरीके से प्रचलित होते हुए नहीं डेक सकेंगे।
असल में अहिंसा को एक व्रत के रूप में हम कहाँ तक समझ पाते होंगे इसे लेकर हमारी द्विविधा बनी हुई है; किसी संकुचित विचार से ग्रसित होकर भी हम इस व्रत के पैमाने तय करने लग जाते हैं; कभी कभी यह भी लगता है कि हमारे सामने विचारों और मान्यताओं का पहाड़ रख दिया गया और हमें उस पहाड़ को अब पार करना होगा।
धारणा
ऐसी भी बनती है कि अब हमें ज्यादा ज्ञानवान होने के बाद ही अहिंसा को अमल में लाने
के बारे में सोचना होगा; या फिर कुछ लोग यह भी सोच लेते हैं कि अहिंसा तो कायरों का
ही मार्ग है, न कि वीरों का ! सक्षम व्यक्ति शायद ही अहिंसक बनकर समाज में अपनी भूमिका
अदा करने के बारे में सोचे। यह भी परिलक्षित होता है कि कहीं न कहीं विचारों
और मान्यताओं के द्वन्द में हम एक सरल पन्था को जटिल बनाने में लग जाते हैं और उसीमें
अपनी शान भी महसूस करते हैं। यह भी मानने लग
जाते हैं कि अहिंसा का व्रत सर्वोपरि सबके लिए शायद ही हो सके। तत्व चिंतन और विचार विनिमय के समय हर धर्म मत के
संत महात्मा एक ही मत का पोषण करते हुए अहिंसा
को परम धर्म कि आख्या दे चुके; इतना ही नहीं किसी क्षेत्र में अहिंसा कि प्रतिष्ठा
हो जाने से उस परिमंडल में रहनेवाले सभी प्राणी परायापन का त्याग कर देते हैं।
यह अहिंसा व्रत से सबंधित एक उत्तम कोटि का विधान है जिसके जरिये विश्व परिमंडल में व्यक्ति अपनी भूमिका बनाने का प्रयास करता है और उसी प्रयास के आधार पर अन्य धर्माचरण भी किया करता है। वैर त्याग का सीधा सम्बन्ध संयम से है; जहाँ व्यक्ति लोभ, लालसा, क्रोध, प्रपंच आदि वृत्ति का क्रमशः त्याग कर दिया करेगा और सभी जनों से मैत्री का सम्बन्ध स्थापित करते हुए समाज में अपनी भूमिका अदा करेगा ; सिर्फ इतना ही नहीं जीव मात्र को बिना किसी ख़ास कारण से हानि पहुंचाने से भी बचते हुए कार्यरत रहेगा; जबकि विवेक और बुद्धि से किसी भी विषय को लेकर निर्णय लेने कि प्रक्रिया बही रहेगी।
चर्चा को जारी रखते हुए हम अहिंसा से जुड़े सभी पहलू पर बारी बारी से प्रकाश डालना चाहेंगे और उस विधान को भी समझना चाहेंगे जिसके अंतर्गत अहिंसा को सत्य के साथ जोड़कर एक अवश्य पालनीय व्रत के रूप में बताया गया।
आचार्य कहते थे, “स्थूल और सूक्ष्म‚
सरल और मिश्र‚
सरल अक्षर और संयुक्ताक्षर सब सीखो और अंत में यह अनुभव करो कि परमेश्वार से ख़ाली
एक भी स्थान नहीं है। अणु-रेणु में भी वही है।
कृष्ण के हाथ की मुरली कैसे बनूं? वे अपने होंठ से मुझे लगा लें और मुझसे मधुर
स्वर निकालें‚
मुझे बजाने लगें यह कैसे होगा? मुरली बनना यानि पोला बननाǃ परमेश्वर
के हाथ का औजार बनना हो‚ तो मुझे दस सेर वजन का लोहे
का गोला नहीं बनना चाहिए।“
शरीर
के हरेक अवयव का पूर्ण और व्यवस्थित वृद्धि होना,
इंद्रियों का चतुर, चाल और कार्यकुशल बनना, विभिन्न मनोवृत्त्तियों का सर्वांगीण
विकास होना ; स्मृति, मेधा, धृति, तर्क आदि बौद्धिक शक्तियों का प्रगलब और प्रखर बनना
- इन सब नैसर्गिक और प्राकृतिक प्रवृत्तियों
का निसर्ग शिक्षा में अंतर्भाव हो जाता है | मानव को बाह्य परिस्थिति से जो ज्ञान प्राप्त
होता है और व्यवहार में जो अनुभव मिलता है, उस समस्त पदार्थ ज्ञान या भौतिक जानकारी
को वह "व्यवहार शिक्षण " नाम देता
है | निसर्ग शिक्षण से प्राप्त आत्म विकास का बाह्य व्यवहार ज्ञान की दृष्टि से बाह्य
जगत में किस प्रकार से उपयोग किया जाय , इस बारे में अन्य मनुष्यों के प्रयातनों का
जो वाचिक, सपरदायिक या विद्यालय आधारित शिक्षण मिलता है उसे व्यक्ति शिक्षण संज्ञा
दी है | क्या व्यक्ति शिक्षण क्या व्यवहार शिक्षण, दोनों व्यक्ति को बाहर से मिलते
हैं | केवल निसर्ग - शिक्षण व्यक्ति को भीतर
से मिलता है |
वस्तुतः बाह्य शिक्षण मनुष्य को विश्व के प्रत्येक
पदार्थ से लगातार मिलते रहता है | उसमें कभी बाधा नहीं पड़ती | जितने भी पदार्थ हैं
सबमें शिक्षण के सारे तत्व भरे पड़े हैं | नैयायिकों का अणु से लेकर संख्यों के महत्तम
तत्व तक, रेखागणित के बिंदु से लेकर भूगोल के सिंधु तक और बचपन की भाषा में कहना हो
तो "राम की चोटी से लेकर तुलसी के मूल तक" सभी
छोटे बड़े पदार्थ मानव के गुरु हैं | विचक्षण विज्ञान वेत्ताओं की दूरबीन में, व्यवहार
विशारादों के चर्म चक्षुओं में , कला कुशल कवियों के दिव्य चक्षुओं में या तार्किक
तत्ववत्ताओं के ज्ञान चक्षुओं में जो भी पदार्थ प्रतिभात होते हों या न होते हों, उन सभी में हमें नित्य ही शिक्षा मिलती रहती है
| यह विशाल सृष्टि परमेश्वर द्वारा हम सबकी शिक्षा के लिए हम सबके सामने खोलकर रखा
हुआ एक शाश्वत, दिव्य, आश्चर्यमय और परम पवित्र ग्रंथ है | पर यह ग्रंथ गंगा कितनी
ही गहरी हो, मानव अपने लोटे से ही उसका पानी भरेगा | इसलिए इस विश्व से बाह्यतः हमें
वही और उतना ही शिक्षण मिलेगा, जिसके और जीतने के बीज हमारे भीतर निहित होंगे | हम इस बाहरी दुनिया से जो कुछ सीखते
हैं उसे अंततः भूल जाते हैं और उसके संस्कार मात्र शेष बचता है | शिक्षण का अर्थ जानकारी
नष्ट होने पर बचे हुए संस्कार ही हैं | जो हमारे भीतर नहीं है उसका बाहर से मिलना असंभव
है | इस तरह स्पष्ट है कि बाह्य शिक्षण कोई तांत्रिक पदार्थ न होकर केवल अभावत्मक क्रिया
है |
सुख का बाह्य पदार्थों से क्या संबंध है? यदि कहें कि सुख बाह्य पदार्थों में है, तो उनसे सदैव सुख होना चाहिए; पर ऐसा होता नहीं | मानसिक स्थिति बिगड़ी रहे , तो अन्य समय जो पदार्थ सुखकर प्रतीत होते हों , वे भी सुख नहीं दे पाएँगे |
इसके विपरीत यदि ऐसा कहें " सुख एक मानसिक भावना है और बाहरी वस्तुओं से इसका कोई संबंध नहीं" तो वैसा नित्य अनुभव नहीं आता | घड़ा और मिट्टी के बीच अनिर्वचनीय संबंध है | यह संबंध अनिर्वचनीय होनेपर भी जिस तरह एक पक्ष में , "वाचारंभन विकारो नामधेयन म्रित्तिकेत्येव सत्यम" , यानी मिट्टी तात्विक और घड़ा मिथ्या, इस तरह तारतम्य से निर्णय किया जाता है , ठीक उसी तरह अंतः शिक्षण भावरूप और बाह्य शिक्षण अभाव रूप ऐसा कहा जा सकता है | अंतः शिक्षण या आत्मिक विकास भावरूप होनेपर भी वह व्यक्ति के भीतर ही भीतर अपने आप हुआ करता है | उसके बारे में हम कुछ भी नहीं कर सकते | उसके लिए कोई पाठ्यक्रम भी नहीं बन सकता | और बनाया भी जाय तो उसे कार्यान्वित कर पाना संभव नहीं | वास्तव में बाह्य शिक्षण कार्य है, उपयुक्त कार्य है; पर अभावात्मक कार्य है | शिक्षण द्वारा कोई स्वतंत्र तत्व उत्पन्न नहीं करना है, पर निद्रित तत्व को जागृत करना है | शिक्षण उत्तेजक दवा न होकर प्रतिबंध निवारक उपाय है | शिक्षण अभावत्मक होनेपर भी उपयुक्त है और प्रतिबंध - निवारण के नाते ही क्यों न हो, उसे थोड़ी भावात्मकता भी प्राप्त है |
क्या अहिंसक व्यक्ति सुखी, समृद्ध और स्वयंसम्पूर्ण नहीं बन सकता? क्या उसे पूर्णता पाने के लिए सदैव किसी बाहरी अवयव पर ही निर्भर रहना होगा? हमारी यह धारणा
भी बनती है कि अहिंसक व्यक्ति संतोषी भी रहता
है; उसके संतोष के पिंड पर ही सुख की
आधारशिला डाली जाती होगी; और उस परिस्थिति में व्यक्ति अपनी जरूरतों को पूरा करते हुए लोभ, मोह, क्रोध आदि अवगुणों से छुटकारा पाने में कामयाब भी हो जाता है। अहिंसा व्रत का प्रत्यक्ष सम्बन्ध संतोष और समाधान से है न कि हिंसा न करने के संकल्प से; संकल्पों का त्याग भी साधक जीवन की एक कुंजी बन जाया करेगी। अतः साधक को यह भी ध्यान रखना होगा कि संकल्पों का त्याग करते हुए जीव में ब्रह्म के अधिष्ठान विषयक रहस्य को समझे और उसी ज्ञान का आश्रय लेकर समाज में अपनी भूमिका बनाने का प्रयास करे। इसी विषय के आधार पर हम अहिंसा से धर्माचरण को शुरू होते हुए भी प्रत्यक्ष कर सकेंगे। आचार्य कहा करते थे कि सत्य अगर कड़वा हो और अप्रिय हो तो न कहा जाय | पर सत्य को अगर हम इश्वर मान लें तो असत्य कहना या सत्य को छिपाने के लिए गोल मटोल बातें करना भी कहाँ तक मानी हो सकेगा ! संस्थाओं के बनने की प्रक्रिया में कई ध्येय को सामने रखा जाता है और उस ध्येय को पाने के लिए संस्था की गतिविधियाँ बनाई जाती है | अगर ध्येय की प्राप्ति हो गई या फिर गतिविधियों को चलाने के लिए कोई माध्यम न बचा हो तो संस्था का निष्क्रिय होना स्वाभाविक है | उस परिस्थितीई में संस्था को कुछ ऐसे तट का चुनाव करना होता है जहाँ से विकास कार्य में लगे लोगों की उदार पूर्ति का काम चलता रहे | यह विषय सभी संस्थाओं के लिए सत्य नहीं भी हो सकता; जैसे शिक्षा और स्वास्थ्य जैसा विषय निरंतर ही चलनेवाला है ; किसी ख़ास तत्व को ध्यान में रखकर नागरिकों का प्रबोधन, भ्रष्टाचार के खिलाफ मोर्चा खोलना और धर्माचरण से नागरिकों को जोड़ना आदि विषय नित्य जीवन का अंग है | अतः ऐसे विषयों से जुड़ी संस्थाओं की अहमियत भी सदा के लिए रहने ही वाली है | प्रश्न उन संस्थाओं के बारे में निर्माण होता है जिन्हें ग़रीबी उन्मूलन का बीड़ा उठाते हुए जनता जनार्दन तक पहुँचना है और ग़रीब कल्याण योजनाओं के ज़रिए राष्ट्र निर्माण में अपनी भूमिका अदा करना है |
अहिंसा को अष्टांग योग में से पहले अंग के अंतर्गत एक व्रत के रूप में दर्ज किया गया; योग दर्शन के अंतर्गत व्रती को इसी कारण से सर्वोपरि अहिंसक बनाना होगा ; उसी पड़ाव को धर्माचरण की शुरुवात भी कह सकेंगे।
यह भी ध्यान देने लायक विषय है कि अहिंसा को
व्रत पालन के उस क्रम से किसी भी परिस्थिति में अलग करके पेश नहीं किया जा सकेगा और
न ही सिर्फ अहिंसा व्रत का स्वतंत्र रूप से अनुपालन को वास्तवायित किया जा सकेगा।
हम अहिंसा व्रत की अहमियत बताने के क्रम में अन्य व्रतों की अनदेखी भी नहीं
कर सकते। इस प्रकाशन में अहिंसा व्रत को आधुनिक
विश्व परिमंडल में व्याप्त तनाव की स्थिति में परखना होगा और उस व्रत के द्वारा सम्पोषित
उन सभी विधायक कर्मों की विवेचना भी करनी पड़ेगी जिसके जरिये हम इस व्रत को समाज में
व्याप्त होता हुआ देख सकें। अहिंसा व्रत से वास्ता रखनेवाले तत्व और विधान की विस्तृत
व्याप्ति के बारे में विचार करते हुए इसके व्यवहार में ला पाने लायक विषयों पर ही हम
ध्यान केंद्रित करना चाहेंगे ; हम यह भी उम्मीद रखना चाहेंगे कि अभ्यासी हर प्रकार से खुद को वलिष्ठ कर लें और ध्येन मार्ग
पर चलते समय अहिंसा व्रत की कुंजी को समय समय पर परखते रहें।
किसी भी नाम से क्यों न पुकारने लगें, जल के गुणधर्म तो अक्षुण्ण ही रहनेवाला; भला जल को इसकी क्या पड़ी कि उसे किस नाम से कहाँ और कौन बुला रहा हो! वैसे ही ईश्वर के बारे में अपनी धारणा पक्की होनी चाहिए; उनके " ईश्वरः सर्वभूतानां
……..
"
तत्व को उसके सही स्वरुप में हमें भी धर्म के दायरे को आध्यात्मिकता के चरम परिधि तक लाते हुए उसे अंततः सर्व समावेशक कर देना होगा।
धर्म के संकुचित दायरे में रहते हुए हम जगदीश्वर के व्यापक स्वरुप को लाख समझने का प्रयास करें, कुछ न कुछ कसर तो रहेंगे ही; न तो हम हिम शैल, जल और बादल के भेद के बीच निहित तत्व संगत समानता को बिना किसी ख़ास पहल किये समझ सकते और न ही जीव मात्र की रचना में परम तत्व की भूमिका को उसके व्यापक स्वरुप के साथ अनुधावन कर सकते। कुछ ख़ास फेर बदल किये बिना ही तत्ववेत्ता महर्षि और विचारक मंडली श्रीमद्भागवद्गीता में वर्णित जगदीश्वर के स्वरू और व्याति को सर्वमान्य बताकर गए। व्याख्यान कितने ही लिखे गए हों और कइयों के जरिये उन्हें उजागर किये गए हों; अंततः एक पड़ाव पर आकर उन सभी विवेचनाओं की समानता परिलक्षित होगी ही; उन समानता के दर्शन के बीच में से ही व्यापकत्व की प्रतिध्वनि भी आती रहेगी; जहां से महामानव के महामिलन का सागर संगम दृश्य जगत की वास्तविकता की भाँति अभिव्यक्त होता रहेगा। इस प्रयास के जरिये हम यह भी देखना चाहेंगे कि उस सर्व समावेशक तत्व के जरिये कहाँ तक सत्य स्वरुप जगदीश्वर को व्यक्ति मात्र की चेतना में, अंश रूप से ही क्यों न परिलक्षित होता हो, देखा जा सकेगा; उसे विकसित होते हुए भी अनुभव किया जा सकेगा और उसके विविध पक्षों और मान्यताओं के बीच सम्मलेन ला पाने का दिव्य जन्म और दिव्य कर्म विषयक संकर्षण का मार्ग प्रशस्त होगा। हमें कहाँ रुकना है और कहाँ जाकर कोई विशेष पड़ाव आने की संभावना रहेगी यह सब तो ईश्वर के अधीन ही मन जाना चाहिए; चलने भर की प्रेरणा हमें मिलती रहे और उसमें निरंतरता बनी रहे यही अभिप्रेत सत्य माना जा सकेगा; इस मान्यता को हृदयंगम करके ही भक्ति की कुंजी को धरोहर मानते हुए भक्त , जननी और कर्मी चला करेंगे।
भारतीय दर्शन और उस दर्शन से जुड़े अन्य विचार सम्मलेन और विचार सम्प्रेषण के क्षेत्र में विमर्श, भाष्य आदि का कोई अंतिम पड़ाव शायद ही मिल सके। जैसे हम धरती के एक प्रांत से यात्रा शुरू करें और घूमते घूमते, सफर जारी रखते रखते अंततः फिर से उसी स्थान पर आ जाएँ जहां से हमने यात्रा का प्रारम्भ किया था; कुछ ऐसा ही समकजें जैसे नदियां श्रोत को बनाये रखती है ऊसर अनंत अनंत काल से उसी अविरल धारा में बहते हुए अंततः समुद्र में आकर शांत हो जाती है; धारा का कोई अंतिम पड़ाव है ही नहीं; सिर्फ उत्सर्जन और विलय जरूर ह। ऐसे ही विचार और भाष्य को हम शुरू तो कर दिया करेंगे पर इसके अंतिम पड़ाव के बारे में हमें ज्ञान ही नहीं रहता; जब वैसा कुछ ज्ञान मिलाने लगेगा तबतक शायद हमें ही ज्ञान और प्रबोधन के महासागर में विलीन होना पड़े !
भाष्य के इस खंड में हम आत्मा, परमेश्वर, जगदीश्वर, दिव्य जन्म और दिव्य कर्म विषयक अपनी धारणा पर ही प्रमुख रूप से प्रकाश डालने का प्रयास करेंगे। भारतीय दर्शन की ही यह खूबी समझें कि हम तत्व की विवेचना कहीं से भी शुरू करके फिर घूम फिरकर उसी चूड पर पहुंच जाते जहां से चर्चा को शुरू किया गया होगा। इस चर्चा सत्र में एक यह भी परिलक्षित होने लायक विषय माना जाएगा जिसके अंतर्गत हम कभी भी खुद के विमर्श को किसी धर्म या सम्प्रदाय की पगडंडी में कैद करना ; या फिर उदात्त दर्शन और सनातन परंपरा को उस सीमांकन में कैद होता हुआ देखना ;पसंद नहीं करेंगे। न ही ऐसा ही चाहेंगे कि किसी विकार ग्रसित मानसिकता से कोई उस सनातन परंपरा के बारे में कोई टीका टिप्पणी ही करे।
हम जिस विशवास और आस्था के साथ विश्व चराचर में मानव जाति को निखरता हुआ देखना चाहेंगे और उसी आस्था विशवास के साथ हम एक उन्नत मानसिकता के साथ समाज में अपनी भूमिका को भी स्पष्ट करना चाहेंगे। भाष्य, कथा, काहिनी, व्याख्यान आदि का एक अभिप्राय यह भी हो सकता होगा कि इसके जरिये भक्त के भक्ति भाव का पोषण, संवर्धन और परिमार्जन हो; ज्ञान चक्षु के जरिये उन्हें विश्व चराचर जगत में निविष्ट ईष्ट का अनुसंधान करने का अवसर मिले; पूर्णता पाने के मार्ग में चल पड़ने लायक आत्मबल उन सबको मिले। अध्यात्मप्रसाद लाभ हो चुका है ऐसा पुरुष, न शोक करता है और न आकाङ्क्षा ही करता है; उनके मन में अप्राप्त विषय के लिए आकांक्षा रह ही नहीं सकती; उन्हें न तो किसी से कुछ पाने की अभिलाषा ही रहती। यह भी सत्यापित हो कि मानव मात्र में देवत्व तक की गुणवत्ता और कर्तव्य निष्ठा तक उन्नीत होने लायक समझा जाए; न कि इसे किसी ख़ास सम्प्रदाय और विशेष वर्ग तक परिसीमित करके देखने जैसा पाखंड का संरक्षण हो; न ही हम किसी भी जीवात्मा को ईश्वर अनुकम्पा पाने से वंचित होता हुआ देखें।
सृष्टि रचना में योगमाया का ही इस्तेमाल ईश्वर किया करते हैं; उसी योगमाया के कारण हम दृश्य जगत में निहित परम सत्ता को प्रत्यक्ष रूपप से किसी इन्द्रियग्राह्य अवयव के रूप में नहीं देख पाते; और कभी कभी ईश्वर उसी योगमाया के कारण हमारे सम्मुख एक क्रियाशील माया रचना के रूप में रकत होकर हमें भी उस और प्रवृत्त हो जाने के लिए प्रबुद्ध करते रहते है। .
अप्रत्यक्ष रूप से यही अविद्या माया है, जिसके आवेश में आकर साधक महात्मा भी कभी कभी भ्रमित हो जाते और ईश्वर के जरिये भगवान के वितरित होते रहने के रहस्य को भली भाँति नहीं जान पाते। पुरुष का कर्म ज्ञान कृत होने के कारण प्रकृति के जरिये अभिव्यक्त होते समय एक स्वच्छंदत और निरलस भाव को बनाये रखते हैं और उसी निर्मलता से ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय संकुल के साथ सामंजस्य स्थापित करते हुए मन, स्मृति और बुद्धि को कर्म में प्रवृत्त करते रहते हैं; वहीँ से कर्तव्य निर्धारण में भी उनकी ही एकमेव भूमिका बनती है; सृष्टि चक्र में व्याप्प्त इस निम्नवर्ती अभिव्यक्ति के चक्र से उन्नत होने के निमित्त से साधना में भी लगने के लिए उद्योगी होते हैं; साधना के मार्ग का चयन बुद्धि और कौशल्य के आधार पर कर लिया करते हैं; एक उन्नत पैमाने पर अन्य जीव के लिए प्रेरणा का श्रोत भी बन जाते हैं। जड़ शरीर में प्राण संचार के बाद ही विधायक पुरुष का कर्म में प्रवृत्त होना ही एक सहजात नियति है, जिसके अधीन जीव को जन्म और मृत्यु के बीच फैले संचार पथ से होकर कर्तव्य कर्म में प्रवृत्त होते हुए ही अग्रसर होना होगा; उन्नत जीवनशैली के लिए प्रत्नशील होना होगा; दिव्य ज्ञान से खुद को पुष्ट करना होगा; विवर्तन की धारा में चलते हुए देवत्व के आसान को अलंकृत करने के लिए दिव्य कर्म का अनुष्ठान भी करना होगा; उस मार्ग में आनेवाली बाधाओं को झेलना होगा; परम पुरुष के परम सत्ता को समझते हुए वैसी ही पूर्णता पाने के लिए भी अनुरक्त होना होगा।
जगदीश्वर होते ही हैं सर्व कल्याण कारण ; सर्व नीति नियंता और सर्वभूते निहित आत्मा। उन्हें अनुभव करने का और आत्मा के साथ एकरूपता की स्थिति में महसूस कर पाने का ज्ञान, भक्ति और निष्काम कर्म को माना गया। एक बार ब्रह्मा निर्वाण की अवस्था पाने के बाद व्यक्ति कभी भी मोह के वशीभूत नहीं होता
। अनावश्यक रूप से कर्म बंधन में जकड़े जाने से माया से व्याप्त दृश्य जगत के रंग बिरंगे
व्यवधान आदि में मन को न लगाते हुए उस परमेश्वर
के अंशमात्र को खुद के चेतन स्वरूप में टटोलना होगा; वहां से मिलनेवाले दिव्य निर्देश
को मान्य करते हुए अनन्य भाव से उसी ईष्ट की आराधना में भी लगाना होगा। भगवद्प्राप्ति
के बाद भक्त में कुछ विशेष परिवर्तन आना अवश्यम्भावी है: परा भक्ति के द्वारा ईश्वर
को (परम ब्रम्ह स्वरुप को) वह तत्त्वत: जानता है कि मैं वह परमेश्वर कितना व्यापक और
कितना फैला हुआ है; तथा ईष्ट क्या है। इस प्रकार
तत्त्वत: जानने के बाद वैसा तत्ववेत्ता भक्त भगवत स्वरुप ही बन जाता है। ईश्वर का अधिष्ठान कुछ गिने चुने अवयवों तक रहे और अन्य सब विश्व चराचर जगत सिर्फ मायालोक तक ही सीमित रहे ऐसा भी नहीं;
रचनाधर्मिता के आवेश में ईश्वर, या फिर सूक्ष्म स्टार पर क्रियाशील एक ईश्वर स्वरुप सत्ता, के जरिये किये जानेवाले पहल के बिना समग्र सृष्टि को अभिव्यक्त और प्रस्फुट होता हुआ भी हम शायद ही देख पाते। समग्र सृष्टि को उसके विविध स्वरुप में देख पाने के लिए और उसी सृष्टि में अंश रूप से जुड़े रहने के लिए, अभियक्त होने के लिए हमें भी उसी दिव्य स्वरुप पर निर्भर रहने की जरुरत है; हम इसी कारण से उस परम सत्ता की अनदेखी भी नहीं कर सकते और न ही उसकी अवहेलना करते हुए अग्रज की भूमिका में खुद को ढलते हुए अनुभव ही कर सकते। हर जीव में, सृष्टि के कणमात्र में उनके अधिष्ठान विषयक सत्य को कई प्रकार से शास्त्र और भाष्य कथन के जरिये इसे उजागर भी किया गया।
ब्रह्मनिर्वाण के कथन में भी उसी शुद्ध सरूप परमात्मा (परम पुरुष, ईश्वर) के अधिष्ठान विषयक अनुभव कहे जाते आये; इसी क्रम में विदेह मुक्ति की बात भी आई।
अगर माया के संसार से किसी को जीवन रहते रहते मुक्ति मिले तो फिर उस परिस्थिति के बारे
में हमें कैसे अनुभव मिले; या उसकी (मुक्तात्मा की ) पहचान कैसे की जा सकेगी? क्या
कोई ख़ास अनुक्रिया के जरिये उस विकास को समझना संभावर हो पायेगा भी? या फिर इस प्रकार
के विकासोन्मुख जीवन को महज एक कल्पना मात्र ही समझें? ; इसे अंतिम श्वास में पाने के अधिकारी भी ब्रह्मधाम ही पाएंगे।
पापमुक्ति
का विषय भी कुछ ऐसा ही माना गया। संदेह नष्ट
हो जाने की स्थिति में, जीवों के कल्याण में तल्लीन होने की स्थिति में, ब्रह्म स्वरुप
में आरूढ़ होने की स्थिति में भी योगी (ऋषि ) पापों से मुक्त होने का अधिकारी बनेंगे।
जिस योग में कर्म, ज्ञान और भक्ति की एकरूपता की बात कही जाती हो; जिसके अधीन आत्मा और परमात्मा को एकरूप हटे हुए, द्रष्टा और दृश्य जगत को परस्पर में विलीन होते हुए देखा जाना संभव माना गया; जिसके अधीन हर जीव में विराजने वाले आत्म स्वरुप परमात्मा ही कृत कर्मों के और साधना के साक्षी बनाते रहे ; उस योग को अनादि, अनंत काल से चला आता हुआ एक सनातन नियमन बताते हुए योगेश्वर बार बार उसी एकेश्वर और ब्रह्म स्वरुप परम निर्णायक और विधायक तत्व को प्रतिष्ठित करते रहे।
अतः गीता में वर्णित योग को अलग से कर्म योग, ज्ञान योग, भक्ति योग, पुरुषोत्तम योग आदि से विशेषित न करते हुए इसे एक सर्वसमावेशक तत्व के रूप में (ख़ास टूर से आत्म तत्व और ब्रह्म तत्व के रूप में) समझना होगा जिसके अधिकारी जीवन ईष्ट में स्वरूपस्थ होने के निमित्त से पवित्र जीवन के लिए, विधायक कर्म का सम्प्पादन करने के लिए, दृश्य जगत के माया स्वरुप से छूटकर परम सत्ता को जीव मात्र में पिण्डस्थ होता हुआ प्रत्यक्ष करने के लिए प्रवृत्त होते रहेंगे; पहले भी होते रहे और कई बार उस परम तत्व के अधिष्ठान विषयक परम ज्ञान का अधिकारी बनाते हुए पुरुषोत्तम स्वरुप से अवतरित भी हुए; अन्य साधकों के लिए प्रेरणा का श्रोत भी बने। गीता में विभूति का वर्णन करते करते भगवान खुद को भी एक योगी, परम सत्ता में स्वरूपस्थ बताते गए; एक योद्धा से भी कर्म समादन के जरिये, कर्मफल को ईष्ट को अर्पित करने के जरिये; सभी दुःख- आनंद, प्रमाद, लोभ, लालसा आदि का परित्याग कर देने के जरिये उस परम स्वरुप में सवरूपस्थ होने की भी रेरना देते गए; सिर्फ ऐसा करने के लिए कर्तव्य कर्म हो जाने के लिए भी मन कर गए। किसी भी प्रकार के विधायक कर्म, यज्ञार्थ कर्म और कर्तव्य कर्म से विमुख होकर योगी , सन्यासी आदि बन जाने की भी प्रेरणा गीता नहीं देती।
ज्ञान-रहित कर्म के लिए व्यक्ति सहज ही रवितत भी हो जाता होगा और ऐसे कर्म से कुछ प्राप्तियां भी सहज ही हो जाती होगी; पर परम गति पाने के लिए और दिव्य पथ पर चल पड़ने का अधिकार इन्होने केलिए तो जनांगनी दग्ध कर्म ही चाहिए; वह भी कर्मफल त्याग कर पाने लायक (कर्मफल को ईश्वर के प्रति उत्सर्ग कर पाने की अभिलाषा के साथ) अनुरक्त भाव से कर्म में प्रवृत्त होना होगा। ऐसे सभी कर्म खुद के लिए न होकर विश्व चराचर जगत में सबकेलिए ही हुआ करेगा। जो ऐसा कर पाएंगे वो पुरुषोत्तम स्वरुप ही होंगे;
न कि प्रमाद ग्रस्त कोई मानव, मोहान्ध कोई साधक, विलासिता के दलदल में जकड़ा कोई भोक्ता
पुरुष, राज धर्म से पतित कोई राजा, कर्तव्य पथ से स्खलित कोई गृही, सम्यकत्व से छूटा
कोई साधक या फिर विलास व्यसन में अंध कोई तपस्वी।
आत्मा
में परमात्मा अधिष्ठान; या फिर अगर अन्य भाव से कहें तो योगात्मा या फिर ब्रह्मात्मा
(जैसे कि महर्षि विश्वामित्र राप्त करने के निमित्त से साधना करते रहे और पा लिए); योगियों में उत्तम बन जाने के निमित्त से योगेश्वर
एक योद्धा को प्रबुद्ध करते रहे; उनके खुद के स्वरुप में स्वरूपस्थ होने के लिए भी
प्रबुद्ध करते रहे; संसार वृक्ष के स्वरुप को (गीता के अध्याय १५ के सन्दर्भ में )
उन दिव्य गुणों का आश्रय लेते हुए जीवात्मा से परमात्मा के स्वरुप तक उन्नत होने के
लिए भी प्रेरणा देते रहे। नाशवान तत्व में जकड़े अविनाशी परम तत्व को मुक्त होने का
मार्ग समझाते रहे ।
अगर
परम सत्ता के अंश को हर जीव में (यहां तक कि विश्व चराचर जगत के हर अंश में ) रहने
की बात को सत्य माँ लें तो क्या कारण है कि उस परम तत्व के अधिष्ठान से विश्व चराचर
के हर अवयव को सक्रीय होता हुआ हम देख नहीं पाते? हम उस परम पुरुष को देखते हुए भी
उसकी अवज्ञा करने लग जाते और कभी कभी दम्भ और प्रमाद से आविष्ट हो जाते! ज्ञान के साथ
भक्ति का सहावस्थान न हो पाने की स्थिति में शायद ऐसी परिस्थितीत और भ्रम का निर्माण
हो जाता होगा; शायद साधक किसी मोह, माया या प्रमाद में आकर ऐसा कर पाते होंगे।
विज्ञान की अवधारणा के साथ अवतार तत्व और परम पुरुष का दृश्य चराचर जगत में अदिष्ठान विषयक गहन सत्य को समझना कठिन भी होगा; तर्क से परे रख पाना भी दुःसाध्य ही होगा।
आधुनिक मन की मन की अवधारणा सिर्फ दृश्य जगत की पगडण्डी में ही कैद रहा करेगी और विषय वासना से ग्रसित हो जाने के कारण उनके लिए परमात्म स्वरूप की उपस्थिति को अनुभव कर पाना काफी दुष्कर भी होगा। उन्हें शायद ही तर्क और वाक् वितंडा से बाहर निकालकर परम स्वरुप तक ले जाने में किसी साधक महात्मा को सफलता मिलेगी।
साधक की ध्यान, धारणा और समाधिस्थ स्वरुप को उस परम तत्व
के प्रति अनुरक्त कर पाने में तभी सफलता मिल सकेगी जब हमें उस साधक में दिव्य गुणों
के अधिष्ठान विषयक प्रमाण या फिर कोई स्वच्छंद स्वीकारोक्ति मिल सके। समय समय पर सिर्फ दिव्य गुणों और दिव्य कर्मों के
लिए प्रवृत्त आत्मा का ही जन्म होता रहेगा ऐसा भी नहीं। कभी कभी आसुरी वृत्ति का भी विकास हो ही जाता है;
ऐसे कई मुहूर्त आये जब बुद्धि और हुनर का व्यवहार करके आसुरी वृत्ति का विकास फलप्रद
होता चला गया और उस विकास पर अंकुश पाने के लिए जगदीश्वर को, रूद्र को और ब्रह्म स्वरुप
को अवतरित होते हुए देखा गया। उस अवतरण में कारण स्वरुप किसी भी सत्ता को मानें पर
अंततः उस आत्मा स्वरुप से पुष्ट प्राण को ही विपरीत गति से ग्रसित पाते हैं। हम यह भी महसूस कर सकेंगे कि जिस भेद बुद्धि से
और प्रमाद आदि से ग्रसित होकर कोई प्राण गात मार्ग का परिपन्थी होता होगा उसे भी परमात्मा
में स्वरूपस्थ होने के लिए मौके मिल ही जाएंगे ; और परमात्मा अंततः उन्हें किसी विनाशलीला
के माध्यम से स्वाकार करेंगे ,न कि संवर्धित करके; कुछ यही दशा लंका नरेश रावण की भी
हुई जहां अवतार स्वरुप मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम को हेतु माना जाएगा।
तो क्या यह मान
लें कि सिर्फ राक्षसराज रावण के संहार के लिए ही जगदीश्वर को और रूद्र अवतार श्री बजरंग बलि को अवतरित होना पड़ा? क्या उन्हें सिर्फ इसी कार्य को सफल करने के लिए गुरुगृह में शिक्षा मिली? क्या सीता का हरण, मर्यादा पुरुषोत्तम का वनवास सब पूर्वकल्पित था ?
गोस्वामी तुलसीदास इस भ्रम को दूर करते हुए लिखते हैं, "राम जनम जग मंगल हेतु "; इस आशय की पुष्टि के लिए कई व्याख्यान, विविध उद्धरण और उपाख्यान रचे गए; भाष्य लिखे गए; संतों के बीच चर्चा चली और भक्ति की शाश्वत धारा भी बही।
अतः उस अवतरण के विषय को किसी भी हालत में किसी संकुचित दायरे में रहकर नहीं देखा , या फिर महसूस किया, जा सकता।
अतः अवतार के किसी ख़ास हेतु की पुष्टि के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम राम, योगेश्वर श्री कृष्ण, परम रतापी परशुराम आदि दिव्य पुरुषों को अवतरित होना पड़ा, इस कथन को भी एक संकुचित वर्ग विभाजन या फिर सम्प्रदाय विभाजन के दायरे में रहकर सत्यापित नहीं किया जा सकता। उनके अवतरित होने के कई हेतु हैं और प्रत्येक हेतु को सामान रूप से दिव्य पथ पर चलने की प्रेरणा देने लायक शिक्षणीय माना गया।
व्रत के बारे
में हमारी समझ
अहिंसा के बारे में हमारी समझ दो प्रकार से बन सकेगी: एक तरफ से हम उसे हिंसा न करने के रूप में, खुद को विविध प्रकार से संयमित करने के रूप में कर सकेंगे। दूसरे रूप में हम खुद को एक ऐसे परिमंडल में ले जाना चाहेंगे जहां रहनेवाले जीव परायापन, दुश्मनी और द्वन्द छोड़ देते हैं। यह जो दूसरा परिमंडल है उसे ही हम अहिंसा का व्यापक और विस्तृत पक्ष के रूप में भी महसूस कर पाने की पात्रता पाना चाहेंगे।
अभेद श्रुति
के आधार पर हम यह मानते रहे कि आत्मा, परमात्मा , जीवात्मा और जड़ प्रकृति सबमें ब्रह्म ही का अधिष्ठान होता हुआ परिलक्षित हो सकेगा; सर्वत्र ब्रह्म ही ब्रह्म परिलक्षित होगा; वही सम्यक ज्ञान है, और विशुद्ध ज्ञान भी।
भेद श्रुति
का सन्दर्भ जीव और ब्रह्म के बीच सूक्ष्म भेद को प्रतिस्थापित करती है; पर आखिर सभी स्वरूपों में ब्रह्म के अधिष्ठान को स्वीकार कर लिया गया। यह मानव शरीर को अगर हम एक पीपल मान लें ; उस वृक्ष पर ईश्वर और जीव - ये दोनों सदा साथ रहने वाले दो मित्र मानो दो पक्षी हैं। ये दोनों इस शरीररूप पीपल वृक्ष में एक साथ एक ही हृदयरूप घोसले में रहते हैं। शरीर में रहते हुए प्रारब्ध सूर्य से पुष्ट होते हुए सुखद सुखरूप कर्मफल (फल) पाते हैं। जीवात्मारूप एक पक्षी हर्ष - शोक अनुभव करते हुए कर्मफल भोगता है। दूसरा ईश्वररूप पक्षी इन फलों का स्वाद नहीं लेता, बल्कि दूसरे पक्षी को स्वाद लेते हुए देखता रहता है और उसे ऐसा करते हुए आनंद मिलता है। वह (ईश्वर रुपी) पक्षी सिर्फ साक्षी बना रहता है ऐसा ही हम मान सकेंगे। साक्षी ईश्वर सत्ता के बारे में गीता कि भी यही मान्यता रही: "मैं वेद से परे और अक्षर से भी श्रेष्ठ हूँ , इसी कारण से लोक और सर्वश्रेष्ठ नाम से भी प्रसिद्ध भी हूँ। "
दोनों विचारों और मान्यताओं का मेलबंधन भी कई भांति से किया गया। जो आत्मा में स्थित है, आत्मा का स्वरूप भी तांत्रिक है, आत्मा को जाना नहीं जाता, आत्मा का अर्थ शरीर भी
है, जो आत्मा अपने नियमों में स्थापित है, वह अन्तर्यामी (आत्मा) अमृत तेरस
है।
जो सभी भूतों में स्थित हैं, सभी भूतों की विशेषता आन्त्रिक है, जिनमें से सभी भूतों का पता नहीं है, सभी भूतों के शरीर हैंऔर उनके नियम हैं, वह सर्वान्तर्यामी अमृत (आत्मा) है ।। यह आत्मा के परम सत्ता का ही द्योतक तत्व है। जो परमात्मा (अद्वितीय और सर्वथा स्वतन्त्र ) सदा सर्वथा अंतरात्मारूपसे स्थित हैं, वे ही सर्वशक्तिमान सर्वभावनसमर्थ भगवान अपने एक ही रूप को अपनी लीला से अनेक प्रकार का बना लिया करेंगे और विश्व चराचर जगत में अवतरित होते रहेंगे । उन परमात्मा को (ज्ञानी महापुरुष ) दृष्टा अपने अन्दर स्थित देखते हैं; वही सही देखते हैं । ईष्ट का यह भी कथन संदर्भित होता हुआ देखेंगे: सभी भूतों के हृदय में स्थित आत्मा मैं हूं और मैं ही सभी भूतों का आदि, मध्य और अंत हूं। मुझसे पृथक् कोई चल या अचल वस्तु है ही नहीं । सम्पूर्ण जगत अगर आपका शरीर है और एक ही के अधीन हैं। जैसे देही आत्मा के स्वामित्व में है। और जिस प्रकार आत्मा पूर्ण देह में व्याप्त है ठीक उसी प्रकार परमात्मा भी सम्पूर्ण देह में व्याप्त हुआ ऐसा मानेंगे। आत्मा स्वयं आनंदमय है; आनंद प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आत्मा का ही विषय
है। नींद से जागता है और कहता है, "आनंद आ गया"; यह क्या अभिप्राय है? यह आनंद आत्मा का है। जब हम यह कहते हैं कि गाना गाकर आनंद आ गया है; तो इसका अर्थ यह है कि गाना स्वयं ही आनंदपूर्ण था। आत्मा शाश्वत है। जन्म और मृत्यु का अर्थ शरीर का धारण और परित्याग है। आत्मा साक्षात में है और शरीर के हृदयग्रन्थि में स्थित है।
आत्मा मन, बुद्धि, इंद्रियों के द्वारा ग्राह्य नहीं है; अविकार और अपरिवर्तनशील है( अमृताक्षरं हरः ); (सत्त्व, रजस, तमस) का प्रभाव कर्म में होता है।
आत्मा स्वयं ज्ञानमय है और ज्ञानी/ज्ञाता भी; धार्मिक ज्ञान स्वयं आत्मा का स्वरूप है; स्वयं ज्ञान (चेतना) है;
धार्मिक ज्ञान हमें जाग्रत, स्वप्न, सुसुप्त, समाधि आदि स्तरों में स्वरूप का बोध कराता है। यद्दस्त विस्मृत हो जाने पर भी स्वयं को नहीं भूलना चाहिए
(धर्मी ज्ञान ) । धार्मिक ज्ञान अनुपयोगी है। धर्म-भूत ज्ञान (स्वयं-प्रकाश) की उत्पत्ति मूलतः होती है और मुक्तावस्था में इसका पूर्ण विस्तार होता है। जिसे आप स्वयं नहीं देख सकते हैं; केवल आत्मा ही स्वस्मै-प्रकाश है। पूर्व या सर्वोच्च सत्ता की करुणा की कमी होने लायक
कोई संभावना ही नहीं रहती । जो अच्छा काम करता है वह अच्छा हो जाएगा और बुरे काम करनेवाला
बुरा ; वह शुद्ध कर्मों से पवित्र और बुरे कर्मों से अपवित्र होगा। आख़िर ये सब भूत (दृश्य जगत में व्याट सृष्टि )
उत्पन्न क्यों होते हैं? उत्पन्न होने वाले आश्रय से ये जीवित रहते हैं ; क्रमिक प्रगति
की धारा से विनाशोन्मुख का आधार विषयक केन्द्रक में ये लीन होते हैं उनके विशेष रूप
से दर्शन की इच्छा से ब्रह्म को प्रत्यक्ष
करने की अभिलाषा समझें । वह ब्रह्म ही है जिससे सारा जगत उत्पन्न हुआ, जिसमें यह प्रलय
का समय लीन होता है और जिसे धारण किया जाता है।
पूर्ण ऐश्वर्य, पूर्ण धर्म, पूर्ण यश, पूर्ण ज्ञान और पूर्ण वैराग्य - इन छः का नाम 'भग' है। ये सभी पूर्णता जिसमें हो, उनको ही भगवान कहेंगे। उत्पत्ति और प्रलय को, भूतों के आने और जाने को तथा विद्या और अविद्या कि सम्यक जानकारी रखनेवाले दिव्यजन ही भगवान कहे जाएंगे ;
मूलतः भगवान का अर्थ सर्वऐश्वर्यसंपन्न, सर्वज्ञ और साक्षात् स्वरुप परमात्व तत्व का आधार विशेष ही होंगे।
भगवान के प्रमुख गुण "अनंत कल्याण गुण" की जननी है। आत्मा
, परमात्मा और जीवात्मा के बीच सामंजस्य और एकरूपता का सिद्धांत ही एकांत या अद्वैत
मत का परिचायक होने के साथ साथ केन्द्रक भी बना।
उसी अद्वैत की कुंजी लेकर आचार्य शंकर अपना विचार और भाष्य की रूपरेखा को सजाते
रहे; भाष्य लिखते रहे और ईष्ट की आराधना में तल्लीन रहे; वो भी जीवन पर्यन्त। द्वैत के बारे में यह मत पोषण किया गया कि जबतक
अज्ञान रहेगा तबतक द्वैत भी रह ही जाएगा: मैं (अहम्) को अगर पूरी तरह प्रशमित न किया
जा सके और अगर इस "मैं" को पक्का न बनाई जा सके तो वैसा मैं रहे पर
"मैं दास", "मैं भक्त", "मैं साधक", "मैं शरणागत"
इस भांति (एक पक्का मैं - अपनी सही भूमिका के साथ स्वरूपस्थ और पिण्डस्थ )। नारायण के बारे में भी अपनी धारणा बन जानी चाहिए।
भगवान
का शील (भव्यता), उनकी सहायता के लिए है, जो स्वयं को अविकसित मानते हैं; आर्जवन्
(सत्यता), उनकी सहायता के लिए है, जो स्वयं कप्ति तत्व हैं; सहृदयता, जो स्वयं को अच्छा नहीं मानते; मार्धवं (हृदय की
कोमलता), जो भगवान से वियोग सहन नहीं कर सकते; सौलभ्यं (सुलभता), जो सदा उनके दर्शन
करना चाहते हैं।
भगवान के प्रत्येक दिव्य गुण जीवात्मा के लिए अजनबी हैं। लोकाचार्य
स्वामी कहते हैं कि जो जीवात्मा भगवान के पर्त्वं और स्वातंत्र्य से प्रकट होते हैं,
भगवान के घाट जाने से संकुचाते हैं, उन्हें भगवान के सौलभ्यम् (सुगमता से प्राप्त होने
वाले), सौशिल्य (संतोषुता/उदारता), करुण्य और वात्सल्य (मातृ प्रेम) गुणात्मक हैं;
शरणागत देवताओं के लिए भगवान का जन्म, ज्ञान, कर्म आदि के आधार पर उनका कोई भी दोष
नहीं देखा जाता; पूर्व या सर्वोच्च सत्ता की करुणा की कमी की कोई संभावना नहीं है।
जो अच्छा काम करता है वह अच्छा हो जाता है, जो बुरा काम करता है वह बुरा हो जाता है।
वह शुद्ध कर्मों से पवित्र और बुरे कर्मों से बुरा बनता है। सर्वोच्च
होने की करुणा की कमी का कोई मौका नहीं है। जो अच्छा काम करता है वह अच्छा हो जाता
है, जो बुरा काम करता है वह बुरा हो जाता है। वह कर्मों से शुद्ध होता है और कर्मों
से बुरा होता है।
जिस प्रेम और चिंता से एक गाय अपने नए जन्मों के लिए बड़े-बड़े
शिष्यों को दूर कर देती है उसी प्रकार, भगवान भी नए जीवात्मा के शरणागत होने पर श्रीमहालक्ष्मीजी
और नित्यसूर्यों को पीछे कर देते हैं।
आख़िर ये सब भूत उत्पन्न क्यों होते हैं? उत्पन्न होने
वाले आश्रय से ये जीवित रहते हैं और अंत में विनाशोन्मुख का आधार होता है जिसमें ये
लीन होते हैं उनके विशेष रूप से दर्शन की इच्छा वही ब्रह्म है। जिससे
सारा जगत उत्पन्न हुआ, जिसमें यह प्रलय का समय लीन होता है और इसे धारण किया जाता है;
सत्यत्व (अनन्तता), ज्ञानत्व (ज्ञान से बना रूप), अनंतत्व (समय, स्थान, वस्तु द्वारा
सीमित न होना), आनंदत्व (असीम आनंद), अमलत्व (किसी को भी दोष से मुक्त); निरूपक धर्म
माने जाएंगे । (भाग) पूर्ण ऐश्वर्य, पूर्ण धर्म, पूर्ण यश, पूर्ण
ज्ञान और पूर्ण वैराग्य - इन छः का नाम 'भग' है। ये सब जिसमें हो, उसे भगवान कहते हैं। उत्पत्ति और प्रलय को, भूतों के आने और जाने को
तथा विद्या और अविद्या को जो जानता है, वही भगवान है। मूलतः
भगवान का अर्थ सर्वऐश्वर्यसंपन्न, सर्वज्ञ और साक्षात् भगवान है ; 6 प्रमुख गुण अनंत कल्याण गुण (कृपा की तरह) की जननी
है।
भगवान श्री विष्णु का यह अनुभव अत्यंत आनंददायक है। इस
प्रकार जीव भगवान विष्णु के साथ अपने निज व नित्य संबंध को समझकर भगवान के प्रति समर्पित
हो, तब वह जीव सुख व आनंद का अनुभव करता है। ईश्वर अनुकम्पा से किसी भी जीव को अलग
नहीं किया जा सकेगा, बल्कि प्रवृत्ति के अनुसार जीव का कर्म तत्पर होना ही एक भवितव्य मान पाएंगे; हम यह भी महसूस कर
सकेंगे कि जगदीश्वर का
अधिष्ठान विश्व चराचर जगत
के साथ साथ अपना अंतर भी है। उसी सृष्टिकर्ता
सर्वशक्तिमान को अंशरूप से सृष्टि के हर कण में पा सकेंगे। भगवान दृष्टिगोचर
नहीं होते, फिर भी,वो इन आँखों से ही दर्शनीय हो जाते हैं (अवतार लेना)। ईष्ट निर्गुण-निराकार; सगुण-साकार प्रकट होते हैं।
गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं: "निर्गुण ब्रह्म सगुण सोइ कैसे, जलु हिम उपल बिलग नहिं जैस॥ अगुण अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥", "जल हम पेय पदार्थ द्रव्य पदार्थ देख रहे हैं। पानी और बर्फ एक ही पदार्थ के दो रूप भले ही हों; तत्वतः एक ही हैं। ब्रह्मसूत्र
का यह भी प्रतिपादन है जिसमें जीव के कर्तापन के लिए परमात्मा को ही कारण माना गया
(२/३/४१)। जीवात्मा (विभू) का एकदेशित्व शरीर से है, वास्तव में नहीं (२/३/२९)। ज्ञानीजन
लोकसंग्रह के लिए विहित कर्म कर सकेंगे (ब्रह्मसूत्र ४/१/१६-१७)। ब्रह्म विद्या पाने
का अधिकार सभी आश्रमों के अनुगामी को है और ऐसा करते हुए उन सबको ब्रह्म ज्ञान मिल
ही जाएगा, न कि सिर्फ ब्राह्मणों को (ब्रह्मसूत्र ३/४/४९)। शम- दम आदि साधन के साथ
साधक को यज्ञादि आश्रम कर्म भी निश्काम भाव से ही करना चाहिए (ब्रह्मसूत्र ३/४- २६-२७)।
ब्रह्मविद्या कर्मों का मार्ग नहीं, बल्कि भागवत प्राप्ति का मार्ग समझें। (ब्रह्मसूत्र
३/४/२ से २५); ब्रह्मज्ञान परमात्मा प्राप्ति का हेतु ही है (ब्रह्मसूत्र ३/३/४७ एवं
३/४/१)।
ब्रह्मज्ञान विषयक इन सभी तत्वों को भली भांति ध्यान में
रखकर ही इस ग्रन्थ का बारी बारी से अध्ययन करना होगा। जो भी तत्व सूत्रवत दिए गए होंगे उन सभी तत्वों
को विस्तार के साथ समझना होगा; सिर्फ इतना ही नहीं आत्मा, परमात्मा और विश्व चराचर
जगत की व्याति में भी उस परम सत्ता के अधिष्ठान विषयक तत्व को समझना होगा। इसी आलोक
में अविनश्वरता का सिद्धांत भी समझने का प्रयास कर सकेंगे; क्षर - अक्षर को भी उजागर
किया जाना संभव हो पायेगा; जिस तत्व की पुष्टि करते हुए एक योद्धा को युद्ध करने की,
साधक को विधायक कर्म में लगने की, अकर्ता को कर्तापन का त्याग करने की और भक्त को भक्ति
में तल्लीन रहने की सीख दी गई; विधाता सर्वदा अपने भक्त और ज्ञाता पुरुष के साथ ही
रहेंगे इस तत्व की भी पुष्टि विश्व चराचर के परा और अपरा प्रकृति के परस्पर अनुक्रियात्मक
पहल के आलोक में कही गई। सिर्फ द्वैत ही नहीं,
और सिर्फ अद्वैत भी नहीं; समझदारी के क्षेत्र का जैसे जैसे निर्माण होता चलेगा वैसे
वैसे साधक का द्वैत से अद्वैत तक का सफर होता रहेगा। अंततः तत्वों को हृदयंगम कर लेने के बाद न द्वैत
रहेगा और न ही अद्वैत; सिर्फ एक पक्का मैं अपना "अहम्" का त्याग करके सर्वोत्कृष्ट
साधक की भांति ईष्ट के अधीन खुद को उसी ईष्ट में पूरी तरह समाविष्ट पायेगा। यही वो पड़ाव समझें जहां हर प्रकार से भेद बुद्धि
नष्ट हो जाया करेगी; और फिर ,"सिया-राममय जगत" प्रतिभासित होने लगेगा। जब परमात्मा में दृढ़ विश्वास, मन और इंद्रियों
पर नियंत्रण, विनम्रता पूर्वक कर्म का अनुष्ठान, आत्मा और शरीर को अलग-अलग समझना और
ब्रह्म अवस्था सभी का संयोजन होता है, उस परिस्थिति में व्यक्ति जीवित रहते हुए भी परम आनंद का अनुभव कर पायेगा; इतना कहते हुए गीता
रुक नहीं जाती ; उसमें सार्विक समाधान पाने के लिए उत्तम मार्ग का बीजक है, भक्त के
लिए भक्ति मार्ग की शिक्षा और दीक्षा मन्त्र है (मुख्यतः अध्याय १२ )।
जब राजा विश्वामित्र को यह लगने लगा कि भुजबल से ब्रम्ह ज्ञान कहीं श्रेष्ठ है तो खुद को गहन साधना में लगा दिए और अरण्य जीवन को स्वीकार कर लिया; तपस्या से संतुष्ट होकर ब्रह्मा उन्हें ऋषि पद से विभूषित करने के लिए आये। इस उपाधि से विश्वामित्र संतुष्ट नहीं हुए और न ही अपने तपस्या को ही छोड़ा। काम और क्रोध को वशीभूत करके विश्वामित्र को महर्षि का पद मिला; इसमें भी उन्हें संतोष कहाँ मिलनेवाला था! अब तो उनके मस्तक से तपस्या कि दीप्ति निकलने लगी; पूरा परिमंडल भी आभा से भर आया। सभी देवता ब्रह्मदेव से आवेदन निवेदन करने लगे। असल में विश्वामित्र उस ब्रह्मज्ञान का धन पाना चाहते थे जिसके पाने से उनके समक्ष ब्रह्म का अधिष्ठान प्रतिभासित हने लगे, वो जहां भी जाएँ वहीँ ब्रह्मज्ञान का भी अवतरण सहज ही हो; इस अभिलाषा को पूर्ण करने के लिए ब्रह्मदेव विश्वामित्र को ब्रह्मर्षि पद से अलंकृत करते हुए उनकी अभिलाषा को पूर्ण कर दिए।
यह अथक और निरंतर साधना का ही फल था जिसके बल पर विश्वामित्र महर्षि से ब्रह्मर्षि तक का सफर तय कर पाए। सभी बाधाओं को पार करते हुए अपने कर्तव्य पथ पर निरंतर आगे रहे और प्राप्त की प्राप्ति कर लेने में सफल हुए। प्राप्त की प्राप्ति इसलिए भी कहा गया ताकि हम ईश्वर के द्वारा सबकुछ निर्लित होने के बावजूद उसके अकर्ता स्वरुप में परिव्यात होते हुए परिलक्षित होता रहेगा।
ईष्ट सबके कर्मों का अधिष्ठाता, सबका सर्जक, जीवमात्र का अंतरात्मा, साक्षी चेतन सत्ता होते हुए भी विशुद्ध और निर्गुण है ।
समग्र विश्व चराचर की उत्पत्ति, विकास और विनाश उस ब्रह्म से ही घटित होता आया ; जीवन समाप्त हो जाने के बाद जीवात्मा का ब्रह्म में ही विलय हो जाता है (तै. उप. ३/१); इस विषय का सम्यक ज्ञान होने के बाद ही महर्षि तपस्या करते करते ब्रह्मर्षि बनाकर गुणातीत सर्वशक्तिमान को अनुभव करना चाहते रहे ; तपस्या में लगे रहे। ब्रह्म ने स्वयं ही इस जगत रुपी जड़ प्रकृति का सृजन किया और उसी में परिव्याप्त भी होता आया; अतः प्रकृति को प्रत्यक्ष रूप से जगत का कारण स्वरुप तत्व नहीं माना जा सकता; उसके निरपेक्ष रूप से ब्रह्म को ही इसका कारण स्वरू भी माना जाना चाहिए ।
त्यागनेयोग्य न बताये जाने के कारण "आत्मा" प्रकृति का वाचक नहीं हो सकता।
आत्मा को गैर-संवेदनशील तत्वों के समान वर्ग या श्रेणी से संबंधित नहीं माना जा सकता है। आत्मा एक
ही स्थिति में रहती है और परिवर्तन से अलग नहीं है। आत्मा को “अक्षर” (न बदलने वाला)
माना जाएगा। आत्मा ज्ञान का आधार (ज्ञान का भंडार या स्थान)
है । आत्मा स्वयं ज्ञान है और ज्ञान का स्थान भी (उपनिषद)। सम्पूर्ण कर्म सब प्रकारसे
प्रकृति (दुर्गा) से उत्पन्न रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिव जी अर्थात् तीनों
गुणोंद्वारा संस्कार वश किये जाते हैं; अहंकार से ग्रसित मनुष्य शिक्षित होते हुए तत्वज्ञान
हीन अज्ञानी की भांति ‘मैं कर्ता हूँ‘ ऐसा मानता है। आत्मज्ञान की ओर ले जाने वाले दो मार्ग हैं : चिंतन की ओर इच्छुक लोगों के लिए ज्ञान का
मार्ग, और कर्म की ओर इच्छुक लोगों के लिए कर्म का मार्ग।
“लोकेस्मिन द्विविधा निष्ठा……..”
अर्जुन युद्ध नहीं करना चाहते थे, अतः उन्होंने समतावाचक ‘बुद्धि’ शब्द का अर्थ ‘ज्ञान’ समझ लिया और उसी के अनुसार गांडीव डालकर रथ के पिछले हिस्से में आकर बैठ गए । श्री भगवान पहले ‘बुद्धि’ और फिर ‘बुद्धोयोग’ शब्द से समता का वर्णन करते हुए एक योद्धा को युद्ध करने के लिए उठ खड़ा होने के लिए प्रेरित करते रहे; अतः यहाँ भी भगवान ज्ञानयोग और कर्मयोग- दोनों के द्वारा समता का ही विवरण देते रहे।
दो निष्ठाएँ बतायी गई हैं- “सांख्यनिष्ठा और योगनिष्ठा;“ जैसे लोक में दो तरह की निष्ठाएँ हैं- ‘लोकेऽस्मन्द्विविधा निष्ठा’, ऐसे ही लोक में दो तरह के पुरुष हैं ‘द्वाविमौ पुरुषौ लोके’ वे हैं- क्षर और अक्षर। क्षर की सिद्धि-असिद्धि, प्राप्ति-अप्राप्ति में सम रहना ‘कर्मयोग’ है और क्षर से विमुख होकर अक्षर में स्थित होना ‘ज्ञानयोग’ है।
क्षर और अक्षर इन दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही है (परमात्मा): ‘उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः’। वह परमात्मा क्षर से तो अतीत है और अक्षर से उत्तम है; अतः शास्त्र और वेद में वह ‘पुरुषोत्तम’ नाम से प्रसिद्ध है। ऐसे परमात्मा के सर्वथा सर्वभाव से शरण हो जाना ‘भगवन्निष्ठा’ है। इसलिये क्षर की प्रधानता से कर्मयोग, अक्षर की प्रधानता से ज्ञानयोग और परमात्मा की प्रधानता से भक्तियोग चलता है ।
सांख्यनिष्ठा और योगनिष्ठा- ये दोनों साधनों की अपनी निष्ठाएँ हैं; परंतु भगवन्निष्ठा साधकों की अपनी निष्ठा नहीं है। कारण कि सांख्यनिष्ठा और योगनिष्ठा में साधक को ‘मैं हूँ’ और ‘संसार है’- इसका अनुभव होता है; अतः ज्ञानयोगी संसार से संबंध-विच्छेद करके अपने स्वरूप में स्थित होता है और कर्मयोगी संसार की वस्तु को संसार की ही सेवा में लगाकर संसार से संबंध-विच्छेद करता है। परंतु भगवन्निष्ठा में साधक को पहले ‘भगवान है’- इसका अनुभव नहीं होता; पर किसी विलक्षण तत्व की स्थिति का ज्ञान हो ही जाता है। वह श्रद्धा-विश्वासपूर्वक भगवान को मानकर अपने-आपको भगवान के समर्पित कर देता है। इसलिये सांख्यनिष्ठा और योगनिष्ठा में तो ‘जानना’ मुख्य है और भगवन्निष्ठा में ‘मानना’। ईष्ट को
निवेदन करने के उपरांत भोजन ग्रहण करनेवाले ही वास्तव में सभी प्रकार के पापों से मुक्त
हो जाते हैं; स्वयं के लिए पकाया हुआ विविध व्यंजन का आनंदपूर्वक सेवन करनेवाले साधक
ऐसा नहीं कर पाते। जीवात्मा
को नियम्य और अन्तर्यामी को नियंता बताया गया ; अतः अन्तर्यामी पद ‘परब्रह परमात्मा’
का ही वाचक है, ‘जीवात्मा’ का नहीं। स्तितप्रज्ञ
साधक का लक्षण बताते हुए ब्रह्म निर्वाण पाने का भी अधिकारी बताया गया। परस्पर निर्भरशीलता
का विज्ञान इस बात से ही सत्यापित की जा सकेगी जब हम यह देखेंगे कि जीव मात्र को जीवित
रहने के लिए भोजन चाहिए; भोजन के उत्पादन में लगे वनस्पति को प्रकाश और वर्षा चाहिए;
यज्ञार्थ कर्म करने से वर्षा होगी; सभी साधक को यह यज्ञार्थ कर्म में लगाना होगा; यही
प्रकृति में जीव के परस्पर सहावस्थान का भी सिद्धांत माना जाएगा। निर्धारित कर्म (कर्तव्य
कर्म और विधायक कर्म) करने से ही प्रकृति को पुष्ट और समृद्ध किया जा सकेग। इस तत्व की पुष्टि कई स्थानों पर विविध रूप से की जा चुकी और ऐसा कहते हुए भगवान
भक्त को कर्म से जोड़ने का भी प्रयास करते हैं, न कि कर्म का सम्पूर्ण त्याग करने की।
विधायक कर्म
का विवरण वेदों में भी दर्ज किया गया जो कि भगवान का ही कथन माना जाएगा। ब्रह्म की
संगती पानेवाला शाश्वत आनंद की अनुभूति पा लेगा, गुरु की संगती करनेवाला सत्संगी साधक
वह योग को धारण करनेवाला आत्मा (योगात्मा ) कहा जाएगा। ऐसी भी मान्यता
है कि वेद भगवान के सांस से निकले; जिसमें मनुष्य के कर्तव्य कर्म स्वयं ईश्वर द्वारा
निर्देशित हुआ। तंत्र सार में यज्ञ को स्वयं सर्वोच्च दिव्य भगवान
कहते हैं, यज्ञ में सदैव ईष्ट का ही अधिष्ठान माना जाएगा; इस तत्व की प्रतिष्ठा वेद
उपनिषदों में भी कई प्रकार से हो चुकी और कई बार दोहराये भी गए। वेद विदित
यज्ञ चक्र का अनुष्ठान न करनेवाले का जीवन ही व्यर्थ समझा जाएगा। आत्मा ईश्वर से अलग
होते ही भ्रम से ढक जाता है।
यज्ञार्थ कर्म
की बात गीता के सन्दर्भ कोई नयी
परिकल्पना नहीं समझी जा सकती; इस कर्म से हम उन सभी कर्मों को समझेंगे जो व्यलक्ति को कर्तव्य और सृष्टि चक्र के नियमन से जोड़ देगा; जो व्यक्ति को कर्तव्य निष्ठा बनाये रखने के लिए प्रेरित करेगा; जिसके करने से व्यक्ति को आत्मा से परमात्मा के मिलन का मार्ग मिल पायेगा। यज्ञ के लिये किये जाने वाले कर्मों से अन्यत्र कर्मों में लगा हुआ यह मनुष्य-समुदाय कर्मों में बँधता है, आसक्ति-रहित होकर उस यज्ञ के लिये ही दूसरों के कल्याण के लिए निःस्वार्थ भाव से कर्तव्य-कर्म करने के लिए ईश्वर प्रेरणा दे रहे हैं।
याज्ञार्थ कर्म करने से आसक्ति बहुत जल्दी मिट जाती है तथा कर्मयोगी के संपूर्ण कर्म
के प्रति आकर्षण और फल की अभिलाषा विषयक आकर्षण नष्ट हो जाते हैं ; अर्थात वे कर्म स्वयं तो बंधन कारक होते नहीं, अपितु
पूर्व संचित कर्म के कारण उत्पपन्न होनेवाले आकर्षण , मोह आदि को भी नष्ट कर देंगे।
यज्ञार्थ कर्म करते समय कर्मयोगी की मनोस्थिति
अपने
उद्देश्य (परमात्मा) में ही रहती है और कर्म समाप्त करते ही उसकी वृत्ति परमात्मा की तरफ
(ईष्ट आराधना के निमित्त से ) चली जाती है।
वास्तव
में मनुष्य की स्थिति उसके उद्देश्य के अनुसार होती है, क्रिया के अनुसार नहीं। जैसे व्यापारी का प्रधान उद्देश्य धन कमाना रहता है; अतः वास्तव में उसकी स्थिति धन में ही रहती है और दुकान बंद करते ही उसकी वृत्ति धन की तरफ चली जाती है। ऐसे ही सभी वर्णों के लिये अलग-अलग कर्म हैं। एक वर्ण के लिये कोई कर्म स्वधर्म है तो वही दूसरे वर्ण के लिये[4] परधर्म अर्थात अन्यत्र कर्म हो जाता है; जैसे- भिक्षा से जीवन-निर्वाह करना ब्राह्मण के लिये तो स्वधर्म है, पर क्षत्रिय के लिये परधर्म है। इसी प्रकार निष्काम भाव से कर्तव्य कर्म करना मनुष्य का स्वधर्म है और सकाम भाव से कर्म करना पर धर्म है। जितने भी सकाम और निषिद्ध कर्म हैं वे सब के सब ‘अन्यत्र कर्म’ की श्रेणी में ही हैं. अपने सुख, मान, बड़ाई, आराम आदि के लिये जितने कर्म किये जायँ, वे सब के सब भी ‘अन्यत्र कर्म’ हैं।
अतः छोटा से छोटा तथा बड़ा से बड़ा जो भी कर्म किया जाय, उसमें साधक को सावधान रहना चाहिये कि कहीं किसी स्वार्थ की भावना से तो कर्म नहीं हो रहा है !
‘अन्यत्र-कर्म’ के विषय में गुप्त भाव- बाहरी रूप से किसी कर्म या आचरण का समर्थन करें और भीतरी सत्ता में उसका समर्थन न हो; जैसे हम कुछ सम्बोधन करके अतिथि का स्वागत करें और भीतर ही भीतर कह दें कि वो क्यों आ गया, न आता तो अच्छा होता, आदि ; अन्यत्र कर्म के परिचायक होंगे। समस्त क्रियाएँ जड़ में और जड़ के लिये ही होती है। चेतन में और चेतन के लिये नहीं ; ‘करना’ अपने लिये है ही नहीं, कभी हुआ नहीं और हो भी नहीं सकता । शरीर आदि जड़ पदार्थों को चेतन जितने अंश में ‘मैं’, ‘मेरा’ और ‘मेरे लिये’ मान लेता है, उतने अंश में उसका स्वभाव ‘अपने लिये’ करने का हो जाता होगा।
सत्संग सभा आदि में कोई व्यक्ति मन में इस भाव को रखते हुए प्रश्न करता है कि वक्ता और श्रोतागण मुझे अच्छा जानकर समझेंगे तथा उन पर मेरा अच्छा असर पड़ेगा तो यह ‘अन्यत्र कर्म’ ही है, यज्ञार्थ कर्म नहीं।
निर्वाह
बुद्धि से कर्म करने पर भी जीने की कामना बनी रहती है। अतः निर्वाह बुद्धि भी त्याज्य है। साधक को केवल साधन बुद्धि से ही प्रत्येक कर्म करना चाहिये। सबसे उत्तम साधक तो वह है, जो अपनी मुक्ति के लिये भी कोई कर्म न करके केवल दूसरों के हित के लिये ही करता है। इसलिये लौकिक तथा शास्त्रीय जो कर्म किये जायँ, वे सब-के-सब केवल लोक-हितार्थ होने चाहिये।
अपने सुख के लिये किया गया कर्म तो बंधन कारक है ही, अपने व्यक्तिगत हित के लिये किया गया कर्म भी बंधनकारक है;
जप, चिंतन, ध्यान, समाधि भी केवल लोकहित के लिये
ही करे।
‘कर्म’ संसार के लिये है और संसार से संबंध विच्छेद होने पर परमात्मा के साथ ‘योग’ अपने लिये है
(कर्मयोग)। ‘लोकोऽयं कर्मबन्धनः’- कर्तव्य कर्म करने का अधिकार मनुष्य को है। इसका वर्णन सृष्टि चक्र
(प्राणिमात्र का हित करना, उनको सुख पहुँचाना) के प्रसंग में भी किया है;
उसी के द्वारा कर्तव्य-कर्म हुआ करते हैं। जब मनुष्य दूसरों के हित के लिये कर्म न करके केवल अपने सुख के लिये कर्म करता है, तब वह बंधन (आसक्ति और स्वार्थभाव ) है;
भाव से होता है, क्रिया से नहीं।
दूसरों के लिये कर्म करने से ममता-आसक्ति सुगमता से मिट जाती है। शरीर की अवस्थाएँ
बदलने पर भी ‘मैं वही हूँ’- इस रूप में अपनी एक निरंतर रहने वाली सत्ता का प्राणिमात्र
को अनुभव होता है; स्वाभाविक ही समझें कि इस
मैं - पन का प्रशमन हुए बिना और कर्तापन का त्याग किये बिना कर्मयोग के उन्नत परिधि
तक व्यक्तित्व का उत्थान हो ही नहीं सकता। कर्म चंचलता, कर्म तत्परता, कर्म के परिमंडल
से व्यक्ति का लगाव, भला और बुरा कर्म विषयक भेद बुद्धि, खुद के लिए और अन्य सन्दर्भ
के लिए कुछ कर गुजरने कि प्रवृत्ति प्रत्यक्ष रूप से आत्मा का विषय न होते हुए भी आत्मा
द्वारा प्रवृत्त होनेवाले विषय जरूर माने जाएंगे।
ईष्ट को भी इसकी चिंता रहने के कारण खुद को नियत कर्म से दूर नहीं रख पाते।
अतः संक्षेप में भी अगर कहें तो ईश्वर अनुकम्पा के बिना किसी भी प्रकार से कर्म का
सम्पाद। प्रशमन, नियमन, समाकल आदि कुछ भी नहीं हो सकता।
‘तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः
समाचर’- ममता, आसक्ति रहने से कर्तव्य-कर्म भी स्वाभाविक एवं भलीभाँति नहीं होते। ममता-आसक्ति न रहने से परहित के लिये कर्तव्य-कर्म का स्वतः आचरण होता है और यदि कर्तव्य-कर्म न हो तो स्वतः निर्विकल्पता में, स्वरूप में
साधक की
स्थिति होती है;
परिणाम
स्वरूप साधन निरंतर होता है; कई स्थितियों में कर्म का त्याग भी होगा ही। इसलिये यहाँ भगवान अर्जुन को कर्मों का त्याग करने के लिये नहीं कहते, प्रत्युत स्वार्थ, ममता, फलासक्ति, कामना, वासना, पक्षपात आदि से रहित होकर शास्त्रविधि के अनुसार सुचारू रूप से उत्साहपूर्वक कर्तव्य-कर्मों को करने की आज्ञा देते हैं, जो ‘सात्त्विक त्याग’
कहलाता है।
कर्तव्य-कर्मों का अच्छी तरह आचरण करने में दो कारणों से शिथिलता आती है- व्यक्ति
का स्वभाव , अन्य दृष्टी से अगर कहें तो सहजात प्रवृत्ति ही समझें, जिस कारण से वह पहले फल की कामना करके ही कर्म में प्रवृत्त होता है। जब मनुष्य देखता है कि कर्मयोग के अनुसार फल की कामना रखनी है, तब वह विचार करता है कि कर्म क्यों करूँ? जब अंत में पता लग जाय कि कर्म
का फल विपरीत होगा, तब वह विचार करता है कि मैं कर्म तो अच्छा-से-अच्छा करूँ, पर फल विपरीत मिले तो फिर कर्म करूँ ही क्यों?
कर्मयोग से प्रवृत्त साधक
न तो कोई कामना करता है और न कोई नाशवान फल ही चाहता है, वह मात्र संसार का हित सामने रखकर ही कर्तव्य कर्म करता
रहता है और अपने परिमंडल में व्याप्त अन्य नियामकों से भी इसी प्रकार की अपेक्षा रखता
है। अतः
उपर्युक्त दोनों कारणों से उसके कर्तव्य कर्म में शिथिलता नहीं आ सकती।
इस इसलिये शरीर के संबंध के बिना हम कोई भी क्रिया नहीं कर सकते।
कुछ करना, किसी समूह के लिए कुछ भूमिकाएं बांधना, किसी समूह को ध्यान में रखकर कुछ
कर गुजरना, कुछ कर पाने को अपना अधिकार या कर्तव्य समझना आदि , ये सभी प्रवृत्तियां
व्यक्ति बाहरी परिमंडल से जोड़ता है। ‘करना’ उसी पर लागू होता है, जो स्वयं कर सकता है। जो स्वयं कुछ कर ही नहीं सकता, उसके लिये ‘करने’ का विधान है ही नहीं। अपने लिये करने से ही मनुष्य कर्मों से बँधता है- ‘यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधनः।
’
विनाशी और परिवर्तनशील शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि आदि के साथ अपने अविनाशी और अपरिवर्तनशील स्वरूप का कोई संबंध नहीं है, भोजन करना, सांस लेना, निरोगी रहना, शुद्ध और सात्विक रहना , ये सभी कुछ ऐसे विधायक कर्म हैं जिसे किये बिना साधक महात्मा भी जीवन चर्या को जारी नहीं रख सकते। शरीर के विविध अंग परपत्यंगों का संचालन और उस संचालन से होनेवाली सभी अनुक्रिया का अधिकारी भी शरीर ही है। इस शरीर को भी शायद ही जनानी साधक अपना मान सकेंगे। ज्ञान पाने के लिए, ज्ञान और भागवत प्राप्ति के मार्ग पर किये गए सभी कर्म अनुष्ठान को भागवत कर्म, विधायक कर्म या फिर यज्ञार्थ कर्म मान सकेंगे और उस कर्म में प्रवृत्त होने के लिए साधकों को प्रेरित कर सकेंगे; जैसा कि गिरिधारी श्री भगवद्गीता में अनुराग रुपी अर्जुन को उपलक्ष रूप से सामने रखकर करते आये। इसे कुछ ऐसा ही समझें जैसे जल अन्य सभी घुलनशील पदार्थ को अपने में मिला लेता है और उसी स्वाद को प्रस्तुत भी कर देता है; साधक का सत स्वरुप में आ जाना ही कर्मयोग की एक परिधि मान सकेंगे।
योगसूत्र, ब्रह्मसूत्र , गीता और अन्य विविध शास्त्र
में आनंदमय नाम से जिसका वर्णन हुआ है वह भगवान के स्वरुप का परिचायक ही माना जाएगा। आनंद सिंधु मध्य तव वासा। बिनु जाने कत मरसि पियासा॥ (रामचरितमानस); "आनन्द के महासागर भगवान, जो तुम्हारे भीतर बैठे हैं उन्हें जाने बिना आनन्द प्राप्ति की तुम्हारी प्यास कैसे बुझेगी ।" हम युगों से पूर्ण आनन्द पाने का प्रयास करते रहते हैं और उसी आनंदमय स्थिति में रहकर पूर्णता पाने के लिए भी उद्ग्रीव हो उठाते हैं ।
--- चन्दन सुकुमार सेनगुप्ता
प्रवरगुणाष्टकं प्रथमजं गुणानानिसिम्नां गणनाविगुणानां पूर्वभूः । (वरदारराजस्तव.15)
यज्ञशिष्टशिनः सन्तो
मुच्यन्ते सर्वकिल्बषैः । भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ।।
………. श्रीमद्भागवद्गीता अध्याय
३ श्लोक १३ ।।
यज्ञ-शिष्ठ – यज्ञ में अर्पित
भोजन के अवशेष ; अशिनः – खाने वाले ; सन्तः - साधु व्यक्ति ; मुच्यन्ते – मुक्त हो
जाते हैं ; सर्व – सभी प्रकार के ; किल्बिषैः – पापों से ; भुञ्जते – आनंद लो ; ते
- वे ; तू - परंतु ; अघम – पाप ; पापः – पापी ; तु - कौन ; पचन्ति – पकाना (भोजन)
; आत्म-कारणात् - अपने स्वयं के लिए;
‘यज्ञशिष्टाशिनः संतः’- कर्तव्यकर्मों
का निष्काम भाव से विधिपूर्वक पालन करने पर[3] योग अथवा समता ही शेष रहती है। यज्ञशेष
का अनुभव करने पर मनुष्य में किसी भी प्रकार का बंधन नहीं रहता।
कर्म ब्रह्मोद्भवम् विद्धि ब्रह्मक्षर-समुद्भवम्।
तस्मात् सर्व-गतम्
ब्रह्म नित्यम् यज्ञे प्रतिष्ठितम्।। श्री
मद्भागवद्गीता अध्याय ३ श्लोक १५।।
कर्म - कर्तव्य
; ब्रह्मा - वेदों में ; उद्भवम् – प्रकट ; विद्धि - तुम्हें पता होना चाहिए ; ब्रह्मा
– वेद ; अक्षर - अविनाशी (ईश्वर) से ; समुद्भवम् – प्रत्यक्ष रूप से प्रकट ; तस्मात्
- इसलिये ; सर्व- गतम् – सर्वव्यापी ; ब्रह्मा - भगवान ; नित्यम् – सदैव ; यज्ञे –
यज्ञ में ; प्रतिष्ठितम् - स्थापित