हिंसा विवेक

 


शिक्षण एक निरंतर चलने वाली सतत प्रक्रिया है | इसे सिर्फ़ विद्यालय तक सीमित नहीं माना जा सकता | हमारे निसर्ग के प्रत्येक कण में शिक्षण पाने लायक तत्व भरा पड़ा है | चाहिए सेर्फ एक सकारात्मक दृष्टि ताकि उन बिखरे विचारून को हम सफलता पूर्वक ले सकें | मां, बाप, गुरु, संत, बच्चे इनमें यदि हम परमात्मा न देख सकें, तो फिर किस रूप में देखेंगे? इससे उत्कृष्ट रूप परमेश्वर का दूसरा नहीं है। ईसप के राज्य में  सियार कुत्ते कौए हिरन खरगोश कछुए सांप केंचुए- सभी बातचीत करते हैं हंसते हैं। एक प्रचंड सम्मेलन ही समझिए नǃ ईसप से सारी चराचर सृष्टि बातचीत करती है। उसे दिव्य दर्शन प्राप्त हो गया है।

संगीत का शास्त्र समझ तो लिया, किन्तु यदि कंठ से संगीत प्रकट करने की कला सधी, तो नाद-ब्रह्म की सजावट नहीं होगी। खेत का कचरा निकालते-निकालते कर्मयोगी को खुद अपने हृदय का वासना-विकाररूपी कचरा निकाल डालने को बुद्धि उपजती है। संतों ने तो घोड़ों को खरहरा करने वाला, गायें चराने वाला, रथ हांकने वाला, पत्तल उठाने वाला, लीपने वाला, कर्मयोगी परमेश्वर खड़ा किया है। तलवार हाथ में लेने से हिंसावृत्ति अवश्य प्रकट होती है, परन्तु तलवार छोड़ देने से मनुष्य अहिंसामय होता ही है, सो बात नहीं। ठीक यही बात स्वधर्माचरण की है। अकेली तेल-बत्ती से दीया नहीं जल जाता। उसके लिए ज्योति की जरूरत होती है। ज्योति होगी, तो अंधेरा दूर होगा। यह ज्योति कैसे जलायें?

बाहर से विषय भोगों को छोड़कर यदि मन में भगवान का चिंतन किया जाये, तो फिर इस बाहरी उपवास की क्या कीमत रही?

यदि कोई कहे कि ‘नमक मिर्च की तरह’‚ तो हम उसे पागल कहेंगे। पर यदि कोई यह कहे कि ‘तारे फूलों की तरह हैं तो उनमें साम्य दिखायी देने से आनंद होगा। हिंदू-मुस्लिम ऐक्य के लिए भूतकाल का विस्मरण ही एकमात्र उपाय है। मनुष्य यदि बुराई को छोड़कर सिर्फ अच्छाई को ही याद रखे तो कैसी बहार होǃ परंतु ऐसा नहीं होता। इसलिए विस्मृति की बड़ी आवश्यकता है। इसके लिए भगवान ने मृत्यु का निर्माण किया है।

अहिंसा की प्रक्रिया हृदय परिवर्तन पर आधार रखती है | हृदय परिवर्तन की अपनी एक पद्धति है | मनुष्य कभी कभी जनता भी नहीं कि उसका हृदय परिवर्तन हो रहा है | हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारे विचार, सोचने की पद्धति आदि उसके बाधक न हों |  हम जब हृदय परिवर्तन और विचार परिवर्तन की बात करते हैं, तो हमारे सामने दूसरों के विचार परिवर्तन की ही बात होती है, ऐसा नहीं है | हमारे अपने और दूसरों के भी विचार परिवर्तन और हृदय परिवर्तन की बात होती है, या होनी  चाहिए | जहाँ विचार और भ्रम दोनों होते हैं, वहीं उपासना भी होती है | यही दृष्टांत हृदय परिवर्तन की  प्रक्रिया के लिए लागू होता है | भ्रम और सत्य, दोनों का होना हृदय परिवर्तन की एक अवस्था की प्रक्रिया में ज़रूरी होता है |  मनुष्य पहले केवल भ्रम में होता है | वहाँ से उसे केवल सत्य में जाना है | अब केवल भ्रम से केवल सत्य की स्थिति में जाने के लिए रास्ते में ऐसी भूमिका आएगी , जब कि उसके मन में कुछ भ्रम और कुछ सत्य का आधार होगा | तब हम अगर फ़ौरन उसका खंडन करेंगे, तो उसका  चित्त विचलित होगा और एक विरोध स्थापित हो जाएगा | उस भ्रम का खंडन करना अहिंसा के लिए बाधक होगा, यदि सत्य के ख़याल से उसका  खंडन किया जाता हो तो | सत्य कभी चुभता नहीं | अगर वास्तव में सत्य है, तो हमेशा प्राण दायि होगा | जो तत्व प्राण दायि है,वह अहिंसक तो होगा ही, चुभेगा भी नहीं | चुभनेवाले सत्य में अहिंसा की कमी तो स्पष्ट ही है , लेकिन उसमें सत्य का  अंश भी कुछ कम होता है |

समाधि अध्ययन का मुख्य तत्व है | समाधियुक्त गभीर अध्ययन के बिना ज्ञान नहीं | अध्ययन से प्रज्ञा और बुद्धि स्वतंत्र और प्रतिभावान होनी चाहिए |  नई कल्पना,नया उत्साह, नया खोज, नई स्फूर्ति , ये सब प्रतिभा के लक्षण हैं | लंबी चौड़ी पढ़ाई के नीचे यह प्रतिभा दबकर मार जाती है | वर्तमान जीवन में आवश्यक कर्म योग का स्थान रखकर ही सार अध्ययन अध्ययन करना चाहिए | शरीर की स्थिति पर कितना विश्वास किया जाता है, यह प्रत्येक के अनुभव में आनेवाली बात है | भगवानकी हम सबपर पर अपार क्रिया ही समझनी चाहिए कि हममें वह कुछ न कुछ कमी रख ही देता है | वह चाहता है कि यह कमी जानकर हम जागृत रहें | जीवन का मार्ग दो बिंदुओं से ही निश्चित होता है: हम हैं कहाँ और हमें जाना कहाँ |[1]

मैं सत्य की ओर अपने कदम बढ़ते रहूं तो भी ईश्वर की कृपा के बिना मंज़िल पर नहीं पहुँच सकता | मैं रास्ता काटने का तो प्रयत्न करता हूँ, पर अंत में मैं रास्ता काटता रहूँगा कि बीच में मेरे ही पैर कट जानेवाले हैं, यह कौन कह सकता हैं ? प्रार्थना के सहयोग से हमें बल मिलता है | प्रार्थना में दैववाद और प्रयत्नवाद का समन्वय है | दैववाद में पुरुषार्थ को अवकाश नहीं है, इससे वह वावला है | प्रयत्नवाद में निरहंकार वृत्ति नहीं है, इससे वह घमंडी है | दैववाद में जो नम्रता है वह ज़रूरी है और प्रयत्नवाद में जो पराक्रम है वह भी ज़रूरी है | प्रार्थना इनका मेल साधती है |

आधुनिक शिक्षा

हम जिसे जीवन की तैयारी का ज्ञान कहते हैं उसे जीवन से बिल्कुल अलिप्त रखना चाहते हैं, इसलिए उक्त ज्ञान से मौत की ही तैयारी होती है | आजकी मौत कलपर ढकेलते ढकेलते एकदिन ऐसा आ जाता है कि उस दिन मारना ही पड़ता है | जिंदगी की ज़िम्मेदारी कोई निरि मौत नहीं है , और मौत ही कौन सी ऐसी बड़ी "मौत" है? जीवन और मरण दोनों आनंद की वस्तु होनी चाहिए |  ईश्वर ने जीवन दुःखमय नहीं रचा पर हमें जीवन जीना आना चाहिए | पानी से हवा ज़्यादा ज़रूरी है तो ईश्वर ने हवा को पानी से ज़्यादा सुलभ किया है | "आत्मा" अधिक महत्व की वास्तु होने के कारण वह हमेशा के लिए हरेक को दे डाली गई है |  जिंदगी की ज़िम्मेदारी कोई डरावनी चीज़ नहीं है | वह आनंद से ओतप्रोत है , बशर्ते  कि ईश्वर की रची हुई जीवन की सरल योजना को ध्यान में रखते हुए आयुक्त वासना को दबाकर रखा जाय |  यह पक्की बात समझनी चाहिए कि जो जिंदगी की ज़िम्मेदारी से वंचित हुआ वो सारे शिक्षण का फल गँवा बैठा | जिंदगी की ज़िम्मेदारी का भान होनेसे अगर जीवन कुम्हालता हो तो वह जीवन वस्तु ही रहने लायक नहीं है |  ईसप नीति के आरासिक माने हुए, परंतु वास्तविक मर्म को समझनेवाले मुर्गेसे सीख लेकर ज्वार के दानों की अपेक्षा मोतियों को मान देना छोड़ दिया तो जीवन के अंदर का कलह जाता रहेगा और जीवन में सहकार दाखिल हो जाएगा | भगवद्गीता जैसे कुरीक्षेत्र में कही गई वैसे शिक्षा जीवन - क्षेत्र में देनी चाहिए, दी जा सकती है | व्यवहार में काम करनेवाले आदमी को भी शिक्षण मिलता ही रहता है | वैसे ही बच्चों को मिले |

कर्मयोग की विद्या

कर्मयोगी बनने के लिए विद्यार्थियों को कुछ न कुछ निर्माण कार्य करते रहना चाहिए | निर्माण के बिना निःसंशय  ज्ञान भी नहीं होता | प्रयोग से प्राप्त ज्ञान ही निःसंशय ज्ञान होता है | रोटी पकना अगर लड़कियों का काम है तो रोटी खाना भी लड़कियों का काम रहने दीजिए | अपने लिए ज्ञानमृत भोजन रख लीजिए | श्री कृष्ण बचपन में हाथ से काम करते थे, मेहनत मज़दूरी करते थे | इसीलिए गीता में  इतनी स्वतंत्र प्रतिभा का दर्शनहमें होता है | जिस विद्या में कार्तृत्व शक्ति नहीं, स्वतंत्र रूप से सोचने की बुद्धि नहीं, ख़तरा उठाने की वृत्ति नहीं वह विद्या निस्तेज है |

हर एक परिश्रम का नैतिक, आर्थिक और सामाजिक मूल्य एक ही है | प्राचीन कालमें हमारे यहाँ कला कम नहीं थी | लेकिन पूर्वजों से मिलनेवाली कला एक बात है और उसमें निरंतर प्रगती करते रहना अलग बात |  अपनी प्राचीन कला को देखकर हमें आश्चर्य होता है, यही सबसे बड़ा आश्चर्य है | ऐसा हुआ कैसे?  कारीगरों में ज्ञान का अभाव और हममें परिश्रम प्रतिष्ठाका अभाव यही इसका बड़ा कारण है | कुम्हार हो या बढ़ई, उसके घर में  बच्चों को बचपन ही से उसके धंधे की शिक्षा अपने  पिता माता से मिल जाती थी | बुनकर से तो मैं कहूँगा कि अपने पिता का धंधा करना तो उसका धर्म है और हम ही उसका बनाया कपड़ा न खरीदें तो वर्णाश्रम धर्म कैसे जीवित रहेगा ?

हमारी वृत्ति के कारण उद्योग गया और उसके साथ साथ उद्योगशाला भी गई |

 

स्थूल और सूक्ष्म सरल और मिश्र सरल अक्षर और संयुक्ताक्षर सब सीखो और अंत में यह अनुभव करो कि परमेश्वार से ख़ाली एक भी स्थान नहीं है। अणु-रेणु में भी वही है।  कृष्ण के हाथ की मुरली कैसे बनूं? वे अपने होंठ से मुझे लगा लें और मुझसे मधुर स्वर निकालें मुझे बजाने लगें यह कैसे होगा? मुरली बनना यानि पोला बननाǃ परमेश्वर के हाथ का औजार बनना हो तो मुझे दस सेर वजन का लोहे का गोला नहीं बनना चाहिए।

शरीर के हरेक अवयव का पूर्ण और व्यवस्थित वृद्धि होना,  इंद्रियों का चतुर, चाल और कार्यकुशल बनना, विभिन्न मनोवृत्त्तियों का सर्वांगीण विकास होना ; स्मृति, मेधा, धृति, तर्क आदि बौद्धिक शक्तियों का प्रगलब और प्रखर बनना -  इन सब नैसर्गिक और प्राकृतिक प्रवृत्तियों का निसर्ग शिक्षा में अंतर्भाव हो जाता है | मानव को बाह्य परिस्थिति से जो ज्ञान प्राप्त होता है और व्यवहार में जो अनुभव मिलता है, उस समस्त पदार्थ ज्ञान या भौतिक जानकारी को वह  "व्यवहार शिक्षण " नाम देता है | निसर्ग शिक्षण से प्राप्त आत्म विकास का बाह्य व्यवहार ज्ञान की दृष्टि से बाह्य जगत में किस प्रकार से उपयोग किया जाय , इस बारे में अन्य मनुष्यों के प्रयातनों का जो वाचिक, सपरदायिक या विद्यालय आधारित शिक्षण मिलता है उसे व्यक्ति शिक्षण संज्ञा दी है | क्या व्यक्ति शिक्षण क्या व्यवहार शिक्षण, दोनों व्यक्ति को बाहर से मिलते हैं | केवल निसर्ग - शिक्षण व्यक्ति को  भीतर से मिलता है |

वस्तुतः बाह्य शिक्षण मनुष्य को विश्व के प्रत्येक पदार्थ से लगातार मिलते रहता है | उसमें कभी बाधा नहीं पड़ती | जितने भी पदार्थ हैं सबमें शिक्षण के सारे तत्व भरे पड़े हैं | नैयायिकों का अणु से लेकर संख्यों के महत्तम तत्व तक, रेखागणित के बिंदु से लेकर भूगोल के सिंधु तक और बचपन की भाषा में कहना हो तो "राम की चोटी से लेकर तुलसी के मूल तक"[2] सभी छोटे बड़े पदार्थ मानव के गुरु हैं | विचक्षण विज्ञान वेत्ताओं की दूरबीन में, व्यवहार विशारादों के चर्म चक्षुओं में , कला कुशल कवियों के दिव्य चक्षुओं में या तार्किक तत्ववत्ताओं के ज्ञान चक्षुओं में जो भी पदार्थ प्रतिभात होते हों या न होते हों,   उन सभी में हमें नित्य ही शिक्षा मिलती रहती है | यह विशाल सृष्टि परमेश्वर द्वारा हम सबकी शिक्षा के लिए हम सबके सामने खोलकर रखा हुआ एक शाश्वत, दिव्य, आश्चर्यमय और परम पवित्र ग्रंथ है | पर यह ग्रंथ गंगा कितनी ही गहरी हो, मानव अपने लोटे से ही उसका पानी भरेगा | इसलिए इस विश्व से बाह्यतः हमें वही और उतना ही शिक्षण मिलेगा, जिसके और जीतने के बीज हमारे भीतर  निहित होंगे |

 

हम इस बाहरी दुनिया से जो कुछ सीखते हैं उसे अंततः भूल जाते हैं और उसके संस्कार मात्र शेष बचता है | शिक्षण का अर्थ जानकारी नष्ट होने पर बचे हुए संस्कार ही हैं | जो हमारे भीतर नहीं है उसका बाहर से मिलना असंभव है | इस तरह स्पष्ट है कि बाह्य शिक्षण कोई तांत्रिक पदार्थ न होकर केवल अभावत्मक क्रिया है |

 

सुख का बाह्य पदार्थों से क्या संबंध है?

 यदि कहें कि सुख बाह्य पदार्थों में है, तो उनसे सदैव सुख होना चाहिए; पर ऐसा होता नहीं | मानसिक स्थिति बिगड़ी रहे , तो अन्य समय जो पदार्थ सुखकर प्रतीत होते हों , वे भी सुख नहीं दे पाएँगे |

इसके विपरीत यदि ऐसा कहें " सुख एक मानसिक भावना है और बाहरी वस्तुओं से इसका कोई संबंध नहीं" तो वैसा नित्य अनुभव नहीं आता |  घड़ा और मिट्टी के बीच अनिर्वचनीय संबंध है |  यह संबंध अनिर्वचनीय होनेपर भी जिस तरह एक पक्ष में , "वाचारंभन विकारो नामधेयन म्रित्तिकेत्येव सत्यम" , यानी मिट्टी तात्विक और घड़ा मिथ्या,  इस तरह तारतम्य से निर्णय किया जाता है , ठीक उसी तरह अंतः शिक्षण भावरूप और बाह्य शिक्षण अभाव रूप ऐसा कहा जा सकता है | अंतः शिक्षण या आत्मिक विकास भावरूप होनेपर भी वह व्यक्ति के भीतर ही भीतर अपने आप हुआ करता है | उसके बारे में हम कुछ भी नहीं कर सकते | उसके लिए कोई पाठ्यक्रम भी नहीं बन सकता | और बनाया भी जाय तो उसे कार्यान्वित कर पाना संभव नहीं | वास्तव में बाह्य शिक्षण कार्य है, उपयुक्त कार्य है; पर अभावात्मक कार्य है | शिक्षण द्वारा कोई स्वतंत्र तत्व उत्पन्न नहीं करना है, पर निद्रित तत्व को जागृत करना है | शिक्षण उत्तेजक दवा होकर प्रतिबंध निवारक उपाय है | शिक्षण अभावत्मक होनेपर भी उपयुक्त है और प्रतिबंध - निवारण के नाते ही क्यों हो, उसे थोड़ी भावात्मकता  भी प्राप्त है |

आत्म स्वरुप

 

प्रत्येक शास्त्र और दार्शनिक विवेचना में सत्य की अपनी एक प्रतिष्ठा है | योग दर्शन में सत्य को विधायक कर्म और ज्ञान मार्ग पर अग्रसर होने के लिए अवश्य पालनीय व्रत का हिस्सा माना गया जिसे अहिंसा के साथ जोड़कर पालन करना होगा | उस सत्य को पूर्ण मानते हुए ही हम ईस्वर के साथ जोड़कर देख सकेंगे ; यहाँ तक कि सत्य को ही ईश्वर मान सकेंगे | यह इंद्रिय जन्य सीमांकन ही है जिसके कारण हम सत्य के प्रत्येक स्वरूप को और उसके अपने निसर्ग में होने और न होने के विषय को सही तरीके से समझ नहीं पाते | अगर हम यह मान लें कि जो  दिखने लगे, जो सुनने में आए और जिसे महसूस किया जा सके उन तत्वों को छोड़ संसार में और कुछ है ही नहीं तो यह हमारी ज्ञान की परिधि को ही दर्शाता है | इस ज्ञान की परिधि का क्रमिक विकास एक नैसर्गिक विधान है जिसके आधार पर व्यक्ति प्रगति करते रहेगा  और अपनी समझ की सीमा को भी परिमार्जित करेगा |

 “परम सत्यम धीमहि " ऐसा कहते हुए महर्षि वाल्मीकि श्री हरि , उनका धाम और उनकी कृतियों को सत्य मान लेने के लिए सबको प्रोत्साहित करते रहे; उस परम सत्य के धनी  योगी महात्मा  भी सत्य हैं और उनकी संगत को ही सत्संग माना गया। 

आचार्य कहते हैं, "सत्यम जगत तत्वतः।" जगत में  दार्शनिक लोग जिसे कभी कभी असत्य मान लेते हैं वह भी असल में सत्य ही है।  भ्रम स्थल में जोज्ञान” का अधिष्ठान होता है उसे भी अपने भारतीय दर्शन और विधान चिंतन में सब प्रकार से सत्य मान लिया गया | कोई काठ के बने खंभे को देखकर यह भी कह सकता कि वह लकड़ी का है, या खंभे में लकड़ी है, या सिर्फ़ लकड़ी ही है; और कोई दिव्य दर्शी विज्ञान मनस्क व्यक्ति यह भी कह सकेगा कि खंभे में कार्बन, हाइड्रोजन, ओक्सीजन और नाइट्रोजन है | इनमें से कोई भी ग़लत नहीं कह रहा: सबके देखने का नज़रिया और ज्ञान की परिधि विषयक भिन्नता और समझ ज़रूर परिलक्षित हो रही है |  भारतीय दर्शन में सत्य को व्रत के जैसा अनुपालनीय माना गया |  कोई अगर एक रज्जु को देखकर भ्रम वश सर्प कह दे, उसे भी तत्वतः सत्य माना जाएगा, भले ही क्षणिक काल के लिए ही क्यों हो। 

संसार में होने वाला सब ज्ञान ही यथार्थ ज्ञान है। भले ही किसी किसी स्थान काल और पात्रता के आधार पर   इस विषय को तर्क का विषय माना जाए , परन्तु धर्मार्थ मार्ग में तर्क की कोई प्रतिष्ठा है ही नहीं।  यही कारण है कि सत्य को ही सभी सृष्टि और विधायक कर्म का आधार मानते हुए अपने अपने समझ की सीमा की रचना , परिमार्जन और परिवर्धन करते रहते हैं |  

"वयं अमृतस्य पुत्राः। " तत्वतः यह सत्य हो सकता है पर ज्ञान के अधिष्ठान और परिमार्जन के आधार पर   व्यक्ति से व्यक्ति का अंतर तो प्रकृति   के गुणों के अधीन है, और अभ्यास का भी विषय है।  यह मान लेना ही समीचीन होगा कि व्यवहार और क्षमता कि दृष्टि से भिन्नता रहने ही वाली है।  श्री भागवत में वैष्णव धर्म को ही परम गति का मार्ग बताया गया।  परमात्मा को पाने का यह भी एक अन्यतम मार्ग है जिसके पथगामी होकर और कुछ हद तक माया मोह से मुक्त होकर हम अपने ही दिव्य स्वरुप को देख पाते हैं।  कभी नारद मुनि को भी अपने विद्वान होने के विषय को लेकर अभिमान और अहंकार हो गया था| इस अभिमान के वशीभूत होकर महादेव के पास काम कथा सुनाने लगे,  जैसे महादेव को कुछ आता ही हो ! भोलेनाथ नारद मुनि की कथा सुन लेने के बाद उन्हें ऐसी कथा और कहीं कहने का परामर्श दिया | नारद मुनि को लगा अब महादेव को भी ईर्ष्या होने लगी | मुनि बोले, "वैसे तो कहीं यह कथा नहीं सुनाई जाती पर अगर प्रसंग निकले तो श्री हरि के दरबार में ज़रूर सुनाया जा सकेगा |"

महादेव का यह भी निवेदन था कि वहाँ श्री हरि के दरबार में भी यह कथा सुनाई जाए | इस क्रम में जब नारद मुनि के मन में विवाह करने की अभिलाषा प्रकट होने लगी और श्री हरि को इस विषय का भान हुआ तो मुनि का बचाव  करने के उद्देश्य से श्री हरि ने मुनि को अपना रूप देते हुए उन्हें एक बंदर के जैसा कुरूप दे दिया | इस विषय से यह प्रतीत हो रहा है कि ईश्वर अपने भक्तों की रक्षा करने के लिए, भक्तों को सही प्रकार से दिशा निर्देशित करने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं |

कर्तव्य बुद्धि और तत्व चिंतन

समाज में हम अपनी भूमिका तय करते समय ज्ञान और कौशल को ही आधार स्वरुप व्यवहार में लाते हैं और समाज में रिश्ते नाते बनाते रहते हैं।  एक धर्मार्थी को ऐसी कृति करते समय सिर्फ इतना धयान रखना होता है कि व्यक्ति सभी बंधनों से निर्लिप्त रहे और समय आने पर श्री हरि धाम कि यात्रा कर आये और माया रहित होकर संसार बंधन से मुक्त हो सके।  

रघुनाथ जी का चरित्र भी एक तपस्वी राजा का चरित है। श्री भरत भी मिसाल कायम करते हुए निर्लिप्त भाव से ही अयोध्या के नागरिकों को अपनी सेवा देते रहे।  इस निर्लिप्तता का एक फल यह मिलता है कि व्यक्ति बड़ी ही सरलता से संसार बंधन को छोड़ पाते और श्री हरि के चरण का आश्रय ले पाते हैं।

एक गुरु ही हैं जो अपने   भक्त को सरलता पूर्वक   बैकुंठ का सुख दे सकते हैं और व्यक्ति को देवत्व का दर्शन करने के क्रम में सहायक होते हैं।  "प्रयक्षति गुरु प्रीतो वैकुंठम योगी दुर्लभम। " ऐसा कहते हुए श्री सौनक जी गुरु महिमा का प्रतिपादन  करते हैं।  तन कि शुद्धि के लिए बहुत से साधन हैं , धन को शुद्ध करते के लिए दान आदि कर्म किये जाते हैं; चित्त शुद्धि के लिए ईष्ट चिंतन और उनके आराधना में लगे रहने को ही एकमेव मार्ग माना गया ।  मन के जरिये ही हमारा कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय नियंत्रित होते रहता है।  अतः मन को विषयों से अलग कर पाने से ही मन निर्मल और ईश्वर अनुरागी हो उठता है और हमें एक ऐसे दिव्य लोक कि अनुभूति होने लगती है जिसके आधार पर हम दिव्य स्वरुप वाले श्री हरि कि उपस्थिति और कर्तृत्व महसूस करने लगते हैं।

मन को एक प्रेत से तुलना किया गया है और इसी कारण से मन को कर्म में लिप्त किये रहने कि बात कही गई।  ईष्ट चिंता, सर्वशक्तिमान की आराधना और भजन पूजन एक बार कर लिए और निश्चिंत हो गए यह वृत्ति कभी फल देने लायक या यश कीर्ति के लिए विधायक नहीं हो सकता।  चिंतन और मनन का सातत्य उतना ही जरूरी है जितना कि इस चिंतन शुद्धता की अहमियत ।

" एतस्मान परम किंचित मनः शुद्धिं  विद्यते।  "  ऐसा कहते हुए ऋषि बताते  हैं  सिर्फ ईश्वर चरित का गुणगान करने से मन की शुद्धि पाई जा सकेगी। 

संतों के जीवन में भी चिंता होती है, पर उनकी चिंता का मूल कारण व्यक्तिगत सुख की कामना या फिर किसी लाभ -हानि का कोई विषय नहीं होता ; महात्मा सदा  लोक कल्याण को लेकर चिंतित हो जाते हैं और धर्म की रक्षा का मार्ग सुझाते रहते हैं।  यह स्वभाव ही एक संत का सहजात वृत्ति है।   पाखण्ड   धर्माचरण का स्वरुप बताते हुए संत जन  कहा करते हैं कि जब किसी धर्माचरण को सिर्फ दिखावे के लिए किया जाता हो तो उसे लोक प्रीत्यर्थ किया जाने वाला धर्माचरण नहीं मान सकते।  आधुनिक समाज में ऐसे पाखण्ड से ग्रसित धर्माचरण का वर्चस्व चारों और दिख रहा है। 

भगवत विरोधी और भागवत विरोधी कृत कर्मों से हमें दूर ही रहना चाहिए।  अगर हम भगवत भक्तों कि आलोचना करने लगें तो भी धर्माचरण को कलंक लग जाता है।  आधुनिक परिमंडल में, जैसा कि सन्दर्भ में व्याप्त विधायक कर्म और उन कर्मकांडों में लगे विद्वजनों की अनुक्रिया से प्रतीत होता हो, ज्ञान और वैराग्य कि स्थिति जर्जर हो चुकी और लोगों का मन भी इन विधाओं से हट चूका है।  भक्ति के दो पुत्र, “ज्ञान” औरवैराग्य”, मानो आज कि स्थिति में अचेत पड़े हैं और कोई भी समाधान दे पाने के लिए असमर्थ पाए जा रहे हैं। उनकी अचेत अवस्था के कारण ही हमें उनके धर्मार्थ सेवा का फल मिल नहीं पाता। क्षणिक अवधि के लिए व्यक्ति के मन में श्मशान वैराग्य भी आता है।  श्मशान से बाहर   आते   ही उनका वो वैराग्य समाप्त हो जाता है।  

"सत्कर्म सूचकों नूनं ज्ञान यज्ञो स्मृतो बुधैः  | "

इस ज्ञान यज्ञ के आधार पर ही सत्कर्म कि गति प्रबल   होती है और लोग समाधान पाने के लिए प्रयत्नशील हो जाते हैं।  उस कर्म को ज्ञानाग्नि दग्ध होना चाहिए।  तत्व चिंतन से ही देवत्व प्राप्ति कि लालसा उत्पन्न होती है और उसके प्रीत्यर्थ लोग सत्कर्म में पुनः पुनः लिप्त होने का प्रयास करते हैं। 

वेदांत के आलोक में परिमित रूपक के निमित्त से उपनिषद् को लिपिबद्ध किया गया।  उस उपनिषद् से चुने हुए सीख को संकलित करते हुए महर्षि वेदव्यास नेश्रीमद्भगवद्गीता” का प्रतिपादन   किया।  इस गीता में सांख्य, योग और वेद - वेदांत के विचार, मत और पंथों का सफलतापूर्वक  और समुचित समन्वय हो सका। हर शाश्त्र में सत्कर्म कि महत्ता का विवरण दर्ज है।  

आत्म स्वरुप , सच्चिदानंद और विशुद्ध चैतन्य स्वरुप कि अनुभूति आने कि स्थिति को ही शास्त्र मेंज्ञान योग” कहा गया।  ज्ञान योग के अभ्यासी क्रमशः सृष्टि के रहस्य का उदघाटन करते हुए क्रमशः अपने लिए और अपने समुदाय के लिए मुक्ति का मार्ग प्रशस्त   कर लेते   हैं।  ज्ञान योग के अभ्यासी जनों को इस बात का ज्ञान हो जाता है कि संसार में सभी वस्तु, सभी रिश्ते नाते और सभी सम्पदा अनित्य हैं ; उन अनित्य वस्तुओं से योगियों का ध्यान हट जाता है और उन्हें सृष्टि के रहस्य को समझने में सहायता मिलती है।  इसी क्रम में आत्मा के अविनश्वरत्व का भी ज्ञान हो जाता है।  उसी अविनश्वर आत्मा और उसका आधार स्वरुप परमात्मा पर मन टिकने लगता है।  इस पर्याय में व्यक्ति जीवात्मा और परमात्मा के सही स्वरुप को भी समझ पाता है।  ऊर्जा संकर्षण के क्रम में जीवात्मा को परमात्मा के अंश रूप में भी प्रतिभासित होता हुआ दिखेगा।  हम उस जीवात्मा और परमात्मा के एकीकृत स्वरुप के बारे में भी अपनी समझ बना सकेंगे।  

यह एक सहजात वृत्ति है जिसके बल पर ज्ञान योगी के मन से हिंसा, द्वेष, क्रोध आदि अवगुण अपने आप ही हट जाता है और उनका मन संतोषी होने के साथ साथ ईश्वर अनुरक्त भी होने लगता है। सिर्फ़ ज्ञान अन्वेषण से ज्ञान योग का विषय प्रतिपादित नहीं किया जाता | ज्ञान के साथ जब निष्ठा जुड़ जाती है तब उसे ज्ञानयोग मान सकेंगे |

अब एक और विषय हम समझने का प्रयास करेंगे कि कौन सी परिस्थिति में हमारे मन में ब्रह्म जिज्ञासा उत्पन्न होता होगा? ऐसी कौन सी परिस्थिति होती होगी जब एक भक्त का मन ईश्वर के प्रति अनुरक्त होता होगा? क्या हर व्यक्ति के मन में ब्रह्म जिज्ञासा पनपता होगा?

प्राचीन भारत में एक ऐसे संत हमारे बीच आए जिन्हें इस ब्रह्म जिज्ञासा का विषय और संबंधित तत्वों पर काफ़ी सघनता से कार्य करते हुए देखा गया | यह भी माना गया कि उस आदि गुरु ने ही  गीता को उसके मौजूदा स्वरूप में उद्घाटित करते हुए भाष्य भी प्रस्तुत कर गये | महवाक्यों के ज़रिए व्यक्ति को उस विधायक कर्म और ज्ञान अन्वेषण की ओर दिशा निर्देशित करते रहे जिसके लिए उसका जन्म हुआ है |

चार प्रचलित ब्रह्म वाक्य निम्न रूप से हैं:

1.       अयमात्मा

2.       सर्वं खल्विदं ब्रह्म

3.       तत्वमसि

4.       अहम् ब्रह्मास्मि

गुरु मुख से इन ब्रह्म वाक्यों का श्रवण, मनन और चिंतन का विषय ही ज्ञानाग्नि दग्ध ब्रह्म जिज्ञासा का विषय है।

सत्य ही ईश्वर है !

सत्य को एक और पड़ाव और एक आधुनिक विधान मिला जिसके आधार पर हम सत्य को ईश्वर का स्वरूप मान सकेंगे | सत्य भी पूर्ण है, ईश्वर भी पूर्ण है ; सत्य और ईश्वर दोनों तर्क और संदेह की सीमा से परे एक सर्व जान विदित विधायक अनुक्रिया का हिस्सा है | यह तो हमारी ही कमज़ोरी समझनी चाहिए कि हम इंद्रिय की सीमा से चेतना को सीमित रख लेते हैं और उसके बाहर आकर कुछ भी ठोस निर्णय नहीं ले पाते कि क्या सत्य और क्या असत्य हो सकता है ; अपितु हम ईश्वर के सर्व व्यापक स्वरूप को भी उसके सही स्वरूप में समझ पाने में विलंब कर देते, कभी कभी समझ भी नहीं पाते |

इंद्रिय की सीमा से अगर ज्ञान को भी सीमंकित कर लिया जाए या फिर ज्ञान के सीमंकित होते रहने के विषय को समझ लिया जाए तब तो हर प्रकार से पूर्ण ज्ञान का अधिकारी कोई जीव हो ही नहीं सकता | जिसे हम देख नहीं पाते, जिसे महसूस नहीं कर पाते और जिसे सुन नहीं पाते उसके निसर्ग में नहीं होने को ही हम सत्य मान लेंगे; वस्तुतः ऐसे कई तत्व अपने परिमंडल में व्याप्त भी हैं और सक्रिय भी | प्रकाश को हम नहीं देख पाते और सूर्य की ओर देख पाने की शक्ति हमें मिली नहीं |  विषय चिंता से हटकर तत्व चिंता को आधार मान लेने के बाद यह भी प्रतीत होता होगा कि हमने काफ़ी कुछ हासिल कर लिया ; ऐसा भी शायद सीमंकित ही समझना होगा |

कुछ ऐसी ही परिस्थिति एक देवस्थान में निर्मित हो गई थी: वहाँ के नित्य पूजा  करने वाले पुजारीजी  परंपरागत मंत्र उच्चारण करके विधि विधान से पूजा अर्चना नहीं करते थे | देवी माँ को इस भाँति भोग चढ़ाते थे जैसे कोई अपनी माँ को भोजन परोस रहा हो; कभी कभी जूठा भी खिला देते | लोगों को लगने लगा कि शायद पुजारीजी को परंपरागत पूजा का विधान आता ही न हो ! जाहिर सी बात है कई विशारद, तत्व चिंतक और शास्त्री वहाँ आ गये और पुजारीजी से शास्त्र विषयक चर्चा करने लगे | सबको शांत करते हुए पुजारीजी का यह कहना था कि , "एकबार नमक का पुतला सागर नापने गया और बीच रास्ते में ही पिघल गया ; उसकी घर वापसी न हो सकी !"

सभी आगंतुकों, वेद विशारदों और तत्व चिंतकों को यह लगने लगा कि जो वेदांत का सार इतनी सरलता से बता सकता उसे शास्त्र का ज्ञान नहीं है ऐसा भी कह पाना कठिन है; अपितु उन शास्त्र और तत्व चिंतकों को तो यही लगने लगा कि आगंतुकों ज्ञान ही सीमित है और कभी भी उस परिस्थिति का सामना करने के लिए शायद ही पर्याप्त हो जिस परिस्थिति में पुजारीजी कोई कठिन सवाल पूछ बैठें | ऐसा हुआ भी, पुजारीजी का कहना था कि अपनी माँ को कुछ भी खिलाने के पहले यह भी देख लेना ज़रूरी हो जाता है कि कहीं उस भोजन में जहर तो नहीं मिला दिया गया होगा, या फिर खाना सड़ गया हो, यो फिर स्वादिष्ट न हो !  जिस दिव्य दृष्टि से पुजारीजी मृण्मयी को चिन्मयी और जगदंबा के रूप में देख पा रहे थे उस दृष्टि से अन्य जनों का अभिषेक तब तक नहीं हो पाने का ही नतीजा था कि लोगों को पुजारीजी का काम कुछ अटपटा लग रहा था |

वस्तुतः इतना ही कहा जा सकेगा कि हमारी जैसी समझ बन पाती है और जिस विधायक कर्म को ज्ञान और चैतन्य का आश्रय मिल पाता है उसके आधार पर ही व्यक्ति को यश और कीर्ति का परिमंडल मिल सकेगा और उसी आधार पर वैसे व्यक्ति को विधायक कर्म से जुड़ता हुआ देखा जा सकेगा |

जिज्ञासा

ब्रह्म विषयक जिज्ञासा [3] से ही अपने मन में यह वृत्ति को उजागर होते हुए देखा जा सकेगा जिसके आधार पर हम उस शक्तियमान के स्वरुप के बारे में सम्यक ज्ञान पाने का प्रयास करते रहे; शास्त्रों का निर्माण हुआ; व्याख्यान रचे गए; श्रुतियों में भी उन सभी तत्वों को पिरोया गया; ज्ञान काण्ड और कर्म काण्ड की शाखाएं पल्लवित होती रही। महर्षि वेदव्यास ने ब्रह्म को विश्व चराचर जगत का उपादान और निमित्त कारण माना। [4]

(सौम्या को सम्बोधित करते हुए) जिस ब्रह्मांड को आप अब तक कई सिद्धांतों और उद्देश्यों के साथ प्रत्यक्ष करते रहे होंगे, इसके निर्माण से पहले ऐसा नहीं था, बल्कि "सत्" का  रूप में मौजूद था; जिसका सूक्षम भेद करना कठिन ही मान सकेंगे [5] "सत्" की इच्छा थी कि "मैं बहुसंख्यक (विस्तारित-स्तूला) चित और अचित तत्त्व यानि ब्रह्मांड बन जाऊँ।" “सत्अभिलाषा और प्रयोजन के मुताबिक़  अनेकों हो गई; इसे  "सत्" का प्रथम संकल्प ही मानेंगे । आरंभ में विश्व चराचर में हर वस्तु (परा और अपरा प्रकृति ) विपरीत आत्मा ही थी। और कुछ भी सक्रिय  नहीं था।   जीव के अस्तित्व में आने का तो प्रश्न ही था सिर्फ जड़ प्रकृति का ही वर्चस्व बना था ; सर्वशक्तिमान ने सोचा  `(अब) वास्तव में मैं दुनिया का निर्माण कर लूंगा।[6] इस भांति संसार की रचना को हम आज वास्तवाईत होता हुआ देख पाएंगे। ईष्ट के प्रति कहा जाता है: उन्होंने (स्वयं) कामना की, "मैं एक से अनेक हो जाऊं, मेरा विश्व चराचर जगत में जन्म हो जाए।" वह (ब्रह्म) सृष्टि को रचकर उसी में प्रविष्ट हो गया। और वहां प्रवेश करके, वह मंच और निराकार, परिभाषित और विशिष्ट, धारण करने वाला और न टिकने वाला, चेतन और अचेतन, सत्य और असत्य ; इस भांति परस्पर विरोधाभाषी तत्व स्वरुप बन गया; सत्य (जिसे ईश्वर का एक और स्वरू मान सकेंगे) वह सब कुछ बन गया जो वहाँ है। वे उसे (जिसे ब्राह्मण भी मानते हैं ) सत्य कहते हैं। आरंभ में यह सब अव्यक्त/सूक्ष्म (ब्राह्मण) ही था और विवर्तन की क्रमिक धारा में प्रकट होता चला आया ; इस धारा को आज भी निरंतर प्रवाहित होता हुआ देख सकेंगे। [7]  ब्रह्म स्वरुप और उसके सर्वव्यापी अधिष्ठान के बारे में भी यही मान्यता चलती चली आई  कि ब्रह्म को  सर्वव्यापी परम  सत्ता के रूप में स्वीकार किया गया ; आदि में ब्रह्मा ही थे।[8]

ब्रह्म अस्वीकृत आनंद का स्रोत है; उस स्रोत के संपर्क में आने से व्यक्ति खुश हो जाता है। कौन सांस लेगा, और कौन छोड़ेगा, अगर यह आनंद परम स्थान (हृदय के अंदर) में नहीं है;  जीवंत रचना है; जब कभी  भी कोई साधक इस अगोचर, अशरीरी, अनिर्वचनीय और निराधार ब्रह्म में निर्भयतापूर्वक अधिष्ठान पाता है; तो वह अकुतोभय की स्थिति में पहुँच जाएगा ;  यह  अंतर्ज्ञान उत्पन्न करने के साथ साथ विद्वान व्यक्ति के लिए भय का कारण भी बनेगा; ख़ास टूर पर पर उनके लिए जिनमें एकतावादी दृष्टिकोण का अभाव हो जाएगा । [9] एक कथा ऐसी भी प्रचलित हुई जिसमें पिता अपने पुत्र को कुछ लवण देकर पानी में डालकर आने के लिए कहे; दूसरे दिन फिर से पुत्र से वही नमक वापस मांगी गई, उस वक्त पुत्र को वह नमक नहीं मिला; वो पूरी तरह पानी में घुल-मिल चूका था। फिर उस जल का स्वाद कहीं से भी लेने के लिए कहा गया; और हर बार उस जल का स्वाद एक जैसा (नमकीन) ही पाया गया। [10] हम  वटवृक्ष के बीज को भी अगर खोलकर देखने का प्रयास करें तो हमें उस बीज के अंकुरण से निकलनेवाले नए वटवृक्ष को नहीं देख पाते। [11] न ही चराचर जगत उत्पन्न करनेवाले उस परम सत्ता के अधिष्ठान को ही महसूस कर पाते।  क्या किसी डाल  पर प्रहार करने से किसी वृक्ष का जीवन नाश किया जा सकेगा? क्या वृक्ष के तनों पर प्रहार करने से उसके जीवन का नाश किया जाना संभव हो पायेगा? क्या यह भी संभव है किसबके सब डाल काट दिए जाएँ तो वृक्ष की जीवन लीला समाप्त हो जाए ?   [12] क्या नदी को इस बात का ज्ञान हो पायेगा कि उसके उत्पत्ति और समाप्ति का निमित्त कारण समुद्र ही होता रहेगा? समुद्र में मिल जाने के बाद फिर उसके (नदी के और उसमें बहनेवाले जा कणों के) अस्तित्व ही कहाँ रह जाता होगा ! [13]

यज्ञ संस्कृति अपने समुदाय में प्रचलित एक उत्तम संस्कृति का परिचायक बना; लोग विविध प्रकार से कर्म काण्ड और ज्ञान काण्ड के आलोक में इसे अपनाते रहे; विविध कर्म अनुष्ठान को यज्ञ का रूप दिया गया; गुरुगृह में शिक्षु भी ज्ञान यज्ञ में भाग लेकर खुद को ज्ञानवान बनाने के लिए जुटेंगे; चिकित्सक का यज्ञार्थ कर्म चिकित्सा नहीं, शिक्षक का शिक्षण नहीं, कृषक का खेती नहीं; सबका यज्ञार्थ कर्म शुद्ध रूप से ईश्वर आराधना को ही समझें; हर काम में लगे रहते समय भी निर्लिप्त भाव का होना अनिवार्य माना जाएगा।[14] शरीर, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ आदि अपने नहीं हैं और अपने लिये भी नहीं है- यह सिद्धांत है। अतः अपने-अपने कर्तव्य का पालन करने से स्वतः एक दूसरे की उन्नति होती है। निःस्वार्थ भाव से उन संबंधियों की सेवा करके हम अपना ऋण चुका दें; हमारे जितने भी सांसारिक संबंधी- माता-पिता, स्त्री- पुत्र भाई- भौजाई आदि हैं, उन सब की हमें सेवा करनी है; मर्यादा के अनुसार उन्हें सुख पहुँचाना ; उनसे कोई आशा रखना और उन पर अपना अधिकार मानना नहीं; उनकी सेवा करना, हमारा कर्तव्य है। देवता से प्राप्त सामग्री का यथोचित व्यवहार न करने कि स्थिति में: देवता भी (दोनों से भावित हुए) कर्तव्य पालन की आवश्यक सामग्री देते रहेंगे।  उन प्राप्त हुई सामग्री को दूसरों की सेवा में लगाये बिना जो मनुष्य स्वयं ही उसका उपभोग करता है, वह चोर ही है।

 



[1] ग्रामसेवा वृत्त से

[2] अपने देश में बच्चे एक दूसरे से स्पर्धा करने में या कसमें खाते समय इन मुहावरों का प्रयोग करते पाए जाते हैं |

[3]भृगुर्वै वारुणिः। वरुणं पितृमुपासर। अधिहि भगवो ब्रह्मेति। तस्मा एतत्प्रोवाच। अन्नं प्राणं चक्षुः श्रोत्रं मनो वाचमिति। यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते। येन जन्मनि जीवन्ति। यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति। तद्विजिज्ञस्व. तद्ब्रह्मेति।“

वरुण के प्रसिद्ध पुत्र भृगु, अपने पिता के पास (औपचारिक रूप से आवेदा निवेदन करते हुए ) आशीर्वाद के साथ निवेदन करते हुए कहते हैं: , 'हे श्रद्धेय श्रीमान, मुझे ब्रह्म का उपदेश दें। '  उन्होंने (वरुण ने) कहा: 'अन्न, प्राण, आंख, कान, मन, वाणी - ये ब्रह्म के ज्ञान के साधन हैं। जिससे ये सभी जीव जन्म लेते हैं, जीवित रहते हैं और मृत्यु के बाद फिर से इस चराचर जगत में ही  विलीन हो जाते हैं उसे जिस महान तत्व को महसूस करने की लालसा रहा  करेगी , वह ब्रह्म है।

तैत्तिरीय उपनिषद - 

[4] " जन्माद्यस्य यतः " ,  "यह विश्व चराचर जगत (जड़-चेतनात्मक व्याप्ति) का उपादान और निमित्त कारण ब्रह्म ही है। " ( ब्रह्म सूत्र - ,. )

[5] "सदेव सोम्येदमग्र असीडेकमेवद्वितीयम्। तद्धैक अहुर्सदेववेदमग्र असीडेकमेवाद्वितीयं तस्मादसतः सज्जयत् तदैक्षत् बहु स्यां प्रजायेयति तत्तेजोऽसृजत् तत्तेज् अक्षत् बहु स्यां प्रजायेयति तदपोऽसृजत्। छान्दोग्य उपनिषद 6.2.1"

[6] आत्मा वा इदमेक अवाग्र आसीत्। नान्यत् किंचन मिष्ट। एकत् लोकान्नु सृजा इति।  इमाळलोकानसृजत्।।।ऐतरेय उपनिषद् 1.1.1।।

[7] सोऽकाम्यत्। बहुस्यां प्रजायेयति। तत्सृष्ट्र। तदेवानुप्रविशत्। तदनुप्रविश्य। सच्च त्यच्च्भवत्। निरुक्तं चानिरुक्तं च। नीलयनं चानिलेनं च। विज्ञानं चाविज्ञानं च। सत्यं चानृतं सत्यमभवत्। यदिदं किंच। यदिदं किंच। तत्सत्यमित्यचक्षते। असद्वा इदमग्र आसीत्। ततो वै सदजायत। तैत्तिरीय उपनिषद 2.6

[8] "ब्रह्मा वा इदम् अग्र असित। "।।।  बृहदारण्यक 1.4.10; मैत्री उपनिषद 6.17

[9] रसो वै सः। रश्नयेवायं लब्ध्वनन्दि भवति। को ह्येवन्यात्कः प्रणयत्। तदेष आकाश आनन्दो स्यात्। एष ह्येवानंदयाति। यदा हयेवैष एतस्मिन्नदृष्टिएऽनात्म्येऽनिरुक्तेऽनिलयनेऽभयं प्रतिष्ठां विन्दते। अथ सोऽभयं गतो भवति। यदा ह्यैवैष एतस्मिन्नुदरमन्तरं कुरुते। अथ तस्य भयं भवति। तत्त्वेव भयं विदुषोऽमन्वानस्य। तदपयेश् श्लोको भवति।। तैत्तिरीय उपनिषद 2.7.1।।

[10] लवणमेतदुदकेऽवधायाथ मा प्रातरुपसीदथा इति तथा चकार तँ् होवाच यद्दोषा लवणमुदकेऽवाधा अङ्ग तदाहरेति तद्धावमृश्य विवेद ।। 6.13.1 ।।

यथा विलीनमेवाङ्गास्यान्तादाचामेति कथमिति लवणमिति मध्यादाचामेति कथमिति लवणमित्यन्तादाचामेति कथमिति लवणमित्यभिप्रास्यैतदथ मोपसीदथा इति तद्ध तथा चकार तच्छश्वत्संवर्तते तँ् होवाचात्र वाव किल सत्सोम्य निभालयसेऽन्नैव किलेति ।। 6.13.2 ।।

[11] न्यग्रोधफलमत आहरेतीदं भगव इति भिन्द्धीति भिन्नं भगव इति किमत्र पश्यसीत्यण्व्य इवेमा धाना भगव इत्यासामङ्गेकां भिन्द्धीति भिन्ना भगव इति किमत्र पश्यसीति किञ्चन भगव इति ।। 6.12.1 ।।

[12] अस्य सोम्य महतो वृक्षस्य यो मूलेऽभ्याहन्याज्जीवन्स्रवेद्यो  ध्येऽभ्याहन्याज्जीवन्स्रवेद्योऽग्रेऽभ्याहन्याज्जीवनस्रवेत्स एष जीवेनात्मानानुप्रभूतः पेपीयमानो मोदमानस्तिष्ठति ।। 6.11.1 ।।

अस्य यदेकाँ् शाखां जीवो जहात्यथ सा शुष्यति द्वितीयां जहात्यथ सा शुष्यति तृतीयां जहात्यथ सा शुष्यति सर्वं जहाति सर्वः शुष्यति ।। 6.11.2 ।। एवमेव खलु सोम्य विद्धीति होवाच जीवापेतं वाव किलेदं म्रियते जीवो म्रियत इति |

[13] इमाः सोम्य नद्यः पुरस्तात्प्राच्यः स्यन्दन्ते पश्चात्प्रतीच्यस्ताः समुद्रात्समुद्रमेवापियन्ति स समुद्र एव भवति ता यथा तत्र न विदुरियमहमस्मीयमहमस्मीति ।। 6.10.1 ।।

[14] इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः

तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः ।। 12 ।।

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः- 

इष्टभोग:  शब्द का अर्थ इच्छित पदार्थ नहीं हो सकता।

भोगों की इच्छा रहते परम कल्याण कभी हो नहीं सकता।

इष्ट शब्दयज् धातु से निष्पन्न होने से तथा

भोग: आवश्यक सामग्री; “वे देवता यज्ञकरने की आवश्यक सामग्री देते रहेंगे।

यज्ञभाविताः देवाःदेवता तो अपना अधिकार समझकर मनुष्यों को आवश्यक सामग्री प्रदान करते ही हैं, केवल मनुष्यों को ही अपना कर्तव्य निभाना है।

तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते- देवताओं के लियेते देवाः पदों का प्रयोग ; उनके सामने मनुष्य थे, देवता नहीं। परंतु यहाँएभ्यः समीपता का द्योतक है। भगवान के लिये सभी समीप ही हैं।

भुङ्क्ते:  केवल भोजन करन से ही नहीं है, प्रत्युत शरीर-निर्वाह की समस्त आवश्यक सामग्री[ को अपने सुख के लिये काम में लाने से है।

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