ज्ञान
और भक्ति का सही सम्मलेन ही वह पड़ाव है जहाँ से कर्म को एक सही दिशा मिल जाया करेगी
और व्यक्ति अपने लिए एक निर्णायक मार्ग कि तलाशी कर सकेगा ; उसे अंतरात्मा के साथ जुड़े
हुए परमात्मा का सान्निध्य भी अनुभव होता रहेगा।
कभी
कभी हम इस भ्रम में आ जाते हैं जब मन में यह विचार पनपने लगता है कि धर्मात्मा और महात्मा
बनने के लिए शायद सबकुछ छोड़कर सभी विधायक कर्मों का त्याग करके तपस्या करते रहना पड़ेगा
; शायद दिन और रात के बारे में भी जानकारी न मिल पाएगी; शायद सभी रिश्ते नातों का त्याग
कर देना होगा; ऐसा भी हो सकता कि किसी एकांत में जाकर समाज से हटकर उपायाचक के नाते
जीवन जीने के लिए प्रस्तुत होना पड़े। ऐसे संत
महात्मा जरूर हुए जिन्होंने भोग्य वस्तु का त्याग करके ज्ञान मार्ग पर चलकर भक्त वत्सल
के लिए मिसाल कायम कर गए। पर ऐसा शायद ही हुआ होगा जिसमें किसी तपस्वी साधक ने भोजन,
श्वास वायु और शौच संतोष का त्याग किया हो ; जीवन जीने के प्रयत्न के अंतर्गत हर जीव
को भोजन, श्वास वायु, शौच , संतोष आदि का सहारा तो लेना ही होगा। यहीं से जीव मात्र के लिए यह अनिवार्य बन जाता है
कि उन्हें प्रकृति के अधीन रहना पड़े और प्रकृति के कुछ नियमों का पालन करे। साधना कितनी भी गहन हो बीच में नींद आने लगे तो
फिर तपस्या को विराम देना ही होगा।
तपस्या, ध्यान, प्राण वायु का नियंत्रण, कर्म कि
शुद्धता आदि विषयों के बारे में हम कुछ भी अतिशयोक्ति करते समय इतना तो ध्यान अवश्य
रखें कि हमें उस सर्व शक्तिमान के अनुकम्पा के अधीन ही जीवन जीना होगा; उसी विधायक
कर्म को भी अपनाना होगा जिसके बल पर हमारे जीवन का रथ गतिशील हो सके; उन्हीं लोगों
के बीच रहना होगा जिनके बीच हमारे मन को संतोष मिले; उन्हीं लोगों के लिए काम करना
होगा जिनसे हमें कुछ उम्मीदें रही हो; उसी तत्व का संरक्षण और सम्प्रचार करना होगा
जिसके जरिये हम सार्विक समाधान और समन्वय का सपना देखा करते हों; उन्ही तत्वों को प्रतिफलित
होते हुए देखना होगा जिनके बीच दिव्य जीवन कि स्वच्छंद गति सुनिश्चित हो सके।
तीन
प्रकार के लोग अपने चारों और तपस्या और इष्ट चिंतन करते हुआ पाए जा सकेंगे: कुछ ऐसे
लोग रहेंगे जिन्हें धन - सम्पदा और पैसा चाहिए, कुछ ऐसे भी लोग रहेंगे जिन्हें पैसों
से ज्यादा चिंता प्रतिष्ठा पाने कि रहेगी; तीसरे कुछ ऐसे प्रकार रहेंगे जिन्हें न तो
पैसा चाहिए और न ही प्रतिष्ठा, उन्हें सिर्फ उस दिव्य ज्ञान का अनुसंधान करने कि अभिलाषा
रहेगी जिसके आधार पर व्यक्ति के लिए मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो सके। वह एक ऐसे मार्ग का पथिक होना चाहेगा जिसपर चलकर
जन्म-मृत्यु के द्वन्द से खुद को मुक्त किया जा सके।
आध्यात्मिक
परिपक्वता
पहले पहल तो
एक ऐसी परिस्थिति बनती है जब हम खुद को किसी भी कृति का कर्ता मान लेते हैं और उसी
भ्रम जीवन बिता देते हैं कि हमने कुछ किया; कुछ ऐसी कृति जिसका श्रेय हम चाहते हैं
कि हमें मिले। फिर एक ऐसा पड़ाव आता जब हमारी
समझ बनती है कि सृष्टि और विनाश तो प्रकृति के नियमों के अधीन एक सतत चलने वाली प्रक्रिया
है और इसमें पदार्थ और ऊर्जा का आपसी मेल बंधन का विज्ञान क्रियाशील निकाय बना; यह
भी एक भवितव्य ही है है कि हर जीव के जीवन में मृत्यु का अनुशाशन कभी भी आ सकता। एक पड़ाव ऐसा भी आता है जब व्यक्ति जीवन को काफी
मूल्यवान मानते हुए सभी अल्पावधि के सुखों को छोड़कर उस आनंदमय जीवन का पथिक बन जाना
पसंद करेगा जिसपर चलकर आत्मा और अरमात्मा के रिश्तों को उनके सही स्वरुप में उपलब्धि
किया जा सके और जीव के लिए सम्यक ज्ञान के आधार पर कर्म बंधन से मुक्ति का मार्ग प्रशांत
किया जा सके।
शास्त्र,
पुराण, आगम , निगम आदि सभी दिव्य ग्रंथों और संत वाणी का एक ही मकसद रहा कि भक्त को
कर्म के बंधन से और माया के संसार से मुक्त किया जा सके; उस मुक्ति के मार्ग पर सबका
सम्यक अभिषेक हो सके; यह कुछ ऐसा ही हुआ कि किसी बगीचे में जाकर एक फल खाने के बाद
संत सभी भक्तों को बताने लगे और यही आग्रह करते रहे कि बाकी के भक्त वत्सल भी उस बगीचे
में दाखिल होकर उस फल का आस्वाद लें और जीवन को धन्य कर लें; यह कुछ ऐसा ही अनुभव मन
जाएगा जैसे एक परिंदा ऊंची उड़ान भरते हुए नीले आसमान में गोते लगाता हो; जैसे एक भक्त
प्रेम पूर्वक अपने भगवान को भोजन कराता हो और बाकी भक्तों से निवेदन करता हो कि वो
भी ऐसा ही करें। इस प्रकार दिव्य जीवन का अनुसंधान करनेवाल साधक कभी भी अकेले मुक्त
हो जाने के लिए तपस्या शायद ही करता हो। उसे
समग्र समाज को मुक्त करने कि चिंता सताया करेगी; उसे ऐसा भी लगेगा कि किसी भी भक्त
के जीवन में संकट ही न रहे; भक्त वत्सल को ईश्वर अनुकम्पा मिले। यह कुछ ऐसी ही परिस्थिति
बन जाया करेगी जिसके अंतर्गत भक्त प्रह्लाद
अपने प्रपंचक पिता के लिए इष्ट के पास क्षमा याचना करते रहे; नचिकेता विधाता से यह
निवेदन करते रहे कि उनके पिता को यश और प्रतिष्ठा मिले ; शत्रु भाव नष्ट हो जाने के
और भी कई प्रमाण गिनाये जा सकेंगे जिसके बल पर इतना तो अवश्य कहा जा सकेगा कि दिव्य
जीवन कि अनुसन्धित्सा रखनेवालों के मन से शत्रुभाव नष्ट हो जाता होगा। इसके अभ्यासी ही और सटीक तरीके से बता सकेंगे कि
उनके मन, चित्त और बुद्धि पर क्या बीत रही होगी जब उन्हें यह तय कर लेना होता है कि
ध्रुव सत्य के अनुसंधान में ही जीवन बिताना होगा।
भगवद्गीता में भी कर्म संन्यास और कर्मयोग के बीच हर प्रकार के समानता के बारे
में बताई जाती है और यह भी माना गया कि सभी प्रकार के द्वन्द से मुक्त होते होते व्यक्ति
माया के बंधनों से मुक्त हो जाया करेगा। केवल अल्पज्ञानी जन इस भ्रम में जकड़े रह जाते
हैं कि कर्मयोग और कर्म संन्यास शायद कुछ अलग
अलग विधाएँ हैं। ( V. १-४ )
वास्तव
में कर्मयोग और कर्म संन्यास को एक सामान ही देखा जाना चाहिए। भक्ति के साथ कर्म किये बिना उस परिपक्वता को पाना
भी संभव ही नहीं। सभी इन्द्रियों को भली भाँती
वश में रखते हुए बुद्धि का प्रयोग करते हुए कर्म करनेवालों को सहजता से ही कर्म बंधन
से मुक्ति मिल जाय करेगी; दृढ निश्चय रखनेवाले खुद को कर्ता न मानते हुए कर्म करते
रहेंगे; कर्मफल इष्ट को अर्पित करदेनेवालों
को पाप कभी भी ग्रसित नहीं कर सकता; योगीजन के लिए कर्म का प्रयोजन सिर्फ आत्म शुद्धि
पाने से है; आसक्ति रहित होकर कर्म करते रहने के कारण भी योगी जन कर्म बंधन से खुद
को मुक्त रखने में समर्थ हो जाया करेंगे; निरासक्त व्यक्ति शरीर में रहते हुए भी सभी
रकार के कर्मबन्धन से मुक्त रहेंगे (भगवद्गीता V. ५-१२) ।
कर्म फलों के बोध का पनपना प्रकृति के अधीन है; सर्वव्यापी परमात्मा भी पाप-पुण्य
के कर्मों से निर्लिप्त ही रहेंगे ; मोहान्ध भक्तों की बुद्धि भी अज्ञान से आच्छादित
रहेगी ; ज्ञान तो उस सूर्यप्रभा के सामान ही है जिसकी किरणों से संसार प्रकाशमान और
व्यक्त हो उठता है; वह ज्ञान का प्रकाश ही है जिसके प्रभाव से सभी प्रकार के पा कर्मों
का नाश हो जाया करेगा, इष्ट के प्रति श्रद्धा
और विशवास बढ़ेगा, विधायक कर्मों में लिप्त रहते हुए मुक्ति पाने के मार्ग पर
बढ़ाते रहेंगे (भगवद्गीता V. १३ -१६) ।
बुद्धि,
समझ, श्रद्धा, विशवास और संतोष को किसी भी साधक के जीवन में तभी स्थिर होता हुआ देखा
जा सकेगा जब उनके जीवन में हम दिव्य ज्ञान
का उत्सर्जन होता हुआ परिलल्क्षित कर सकें। यह एक ऐसी परिस्थित है जहाँ व्यक्ति सभी
नाशवान तत्वों से खुद को मुक्त करते हुए दिव्यज्ञान का साधक बने और ध्रुव सत्य का अनुसंधान
करता रहे।
कभी
कभी यह भी दावे किये जाते रहे हैं कि दिव्य जीवन और ध्रुव सत्य का अनुसंधान करनेवालों
कि गतिविधि से कर्म विमुखता ही पनपेगी और व्यक्ति कर्तव्य कर्म से भाग खड़े होने के
लिए मार्ग निकालने लगेंगे; ऐसे कई साधक बनेंगे जो यह कहकर कर्म विमुख हो जाया करेंगे
कि उन्हें समय नहीं मिलता; कुछ ऐसे साधक रहेंगे जिन्हें भक्त वत्सल लोगों के पास से
सिर्फ दान पाने कि अभिलाषा रहेगी; कई साधक ऐसे भी हो जाया करेंगे जिन्हें धर्म कि एक
नयी पगडण्डी बनाने कि अभिलाषा रहेगी। वैसे अनेकांतवादी यह भी विचार रख देते हैं कि
"जितने मत हैं उतने ही पथ हैं"।
ऐसा होना भी चाहिए; तभी तो जलधारा को पहाड़ी से उतर आने के लिए विविध मार्ग का
अनुसंधान करते हुए अग्रसर रहना होगा; यह भी मान्यता बन सकेगी: सभी धाराएं गंगाजी कि
पवित्र धरा रहे और उतना ही मंगलकारी हो। यह
तो हमारी समझ पर ही टिका रहेगा कि हम उस धरा को क्या समझें और कैसे स्वीकार करें। यह तो कुछ ऐसा ही हुआ कि एक कटोरा लेकर हमने समुद्र
से पानी उठाया , फिर उस पानी को समुद्र के विस्तीर्ण जलराशि में मिला दिया और यह तलाश
करने लग गए कि समुद्र में मिलनेवाले पानी का कौन सा हिस्सा उस कटोरे में था ! मौजूदा
परिस्थिति में विविध प्रकार से विडम्बना का निर्माण होता आया जब हम किसी समुदाय को
मतों और पंथों में बँट जाते हुए देखते आये हैं।
संत महात्मा का यही प्रयास रहेगा कि सभी समुदाय को किसी ख़ास मापदंड पर एक किया
जा सके और उन्हें शाश्वत मार्ग का पथिक बनाया जा सके; अब उस मार्ग का कुछ भी नाम हो
और उस विचारधारा को किधर से भी बहने दिया जाता हो ; अंततः एक ही पड़ाव पर सबका महा सम्मलेन
होना एक भवितव्य ही है।
इसमें
कोई संदेह नहीं कि वेद, उपनिषद्, गीता, महाभारत, रामायण, पुराण, आगम ,निगम आदि पवित्र
ग्रंथों के जरिये संत महात्मा समय समय हमारा दिशा निर्देशित करते आए और ऐसा आगे भी
करते ही रहेंगे; फिर भी एक ऐसा विचार बनता है कि अब जलबिंदु को जलबिंदु ही समझा जाय
और हमारा मार्ग उस दैवत्व के विशुद्ध तत्व को सही प्रकार से समझने के लिए बने जिसपर
चलकर संत महात्मा समग्र मानव समाज को विशुद्ध दैवत्व के उपस्थिति का अनुभव दे सकें। जीव मात्र के अभिव्यक्त होने की क्रिया में उस देवत्व
को सन्निविष्ट रहते हुए भी देखा जा सकेगा;
सिर्फ इतना ही नहीं उस पूर्ण देवत्व का अंशमात्र को जीव चेतना में भी परिलक्षित किया
जा सकेगा।
एक आश्रम संस्था के प्रमुख थे ; उनको लोग स्वामी बुद्धानन्द कहा करते थे। उनकी
गाड़ी
झाड़खंड
और
ओडिशा
की
सीमा
पर
बसे
एक
जंगल
के
बीच
से
गुजर
रहा
था। उसी
जगह
कुछ
ऐसे
जनजाति
बसे
थे
जिनका
कोई
स्थायी
ठिकाना
ही
नहीं
था;
न
ही
हम
उन्हें
किसी
इ
क
जगह
पर
स्थायी
रूप
से
बसते
हुए
देख
ही
पा
रहे
थे।
ऐसे
ही
एक
स्थानांतरण
के
मुहूर्त
में
उसी
रास्ते
से
स्वामीजी
और
उनके
कुछ
साथी
गुजर
रहे
थे,
जबकि
एक
जनजाति
महिला
दर्द
से
कराह
रही
थी। जैसे
ही
सन्यासी
महाराज
का
काफिला
रुका
वैसे
ही
अन्य
सभी
जनजाति
के
लोग
वो
जगह
चढ़कर
और
उस
पीड़िता
को
भी
छोड़कर
चल
दिए;
आखिर
उस
पीड़िता
का
इलाज
करने
के
लिए
चिकित्सकों
को
उतारा
गया;
भोजन
की
व्यवस्था
की
गई;
कुछ
भोजन
वहीँ
छोड़कर
वो लोग
चले
गए। से
पहुंचाने
का
यह
सिलसिला
कई
महीनों
तक
चलता
रहा
ताकि
बिरहोड़
समुदाय
के
उस
जनजाति
का
विशवास
जीता
जा
सके। स्वामी
बुद्धानन्द
और
उनके
साथी
सम्प्रदाय
को
छोड़कर
अन्य
किसी
सम्प्रदाय
को
उस
जनजाति
का
विशवास
जीतने
में
सफलता
नहीं
मिली।
उसी जनजाति के नजदीक एक कालिंदी टोला भी था जहां नागदेवता को पकड़ने और बेचने के व्यवसाय से जुड़ा एक कालिंदी बूढ़ा भी रहता था। एकदिन आश्रम के लोगों के साथ काम में हाथ लगाते हुए खंडहर से निकलनेवाले एक नागदेवता को पकड़ने के लिए उसी कालिंदी बूढ़ा को बुलावा भेजा गया। उसने ख़ुशी ख़ुशी उस नागदेवता को अपने पास रखी टोकर में डाल दिया।
"इस नागदेवता का क्या करोगे?" स्वामीजी का सहज ही पूछना था
।
"पहले तो दांत निकालना होगा, स्वामीजी", कालिंदी "दांत" शब्द पर कुछ ज्यादा ही बल देकर अपने मन की बात कह रहा था ; और भी काफी कुछ कहा।
"ऐसा क्या किया जाय, जिसके करने पर इसे तुम गहन वन में जाकर छोड़ दोगे?"
यह तो उस कालिंदी के लिए काफी कठिन एक विषय बन गया। मन ही मन सोचा इस संत महात्मा से भी क्या कुछ लेना उचित होगा! पर उसे पैसा टी चाहिए, और फिर यह जो उसका व्यवसाय ठहरा!
ज्यादे देर तक कालिंदी को चुप्पी साढ़े देख महाराज समझ गए कि इसे कुछ बड़े रकम की उम्मीद रही होगी और उसके माँगने में भी कुंठा हो रही होगी। वो स्वयं ही उनके पिछले महीने के संग्रह में से आधी जे ज्यादे की रकम निकालकर कालिंदी को देने के लिए कहे और यह बोलकर गए कि नागदेवता को कुछ गभीर वन में जाकर प्रकृति की गोद में छोड़ दिया जाय; नैसर्गिक रूप से उसे जो जहर की झोली और विषदंत जैसे मिला होगा उसे भी चढ़ दिया जाय।
पैसों में रखा ही क्या है! भक्तों के पास जाने से और अनुभव कथन कहने से फिर दान मिलाने की संभावना जरूर बनेगी। सामने चलनेवाला वीर सन्यासी भला तूफ़ान से और जोखिमों से कभी घबराया है, ता फिर आगे कभी घबराएगा ! नागवता को सिर्फ इसलिए भी कैद में रखना उन्हें मंजूर नहीं था को वो जहरीलेल हैं, अनायास ही अन्य जीवों का नाश भी कर देते हैं; नैसर्गिक रूप से मिले विष से वो शिकार भी करते होंगे, भोज्य को भी मौत के घात उतारते होंगे और वैसे प्राणी की जनसंख्या को भी नियंत्रण में भी रखते होंगे; यह तत्व कालिंदी के समझ से परे रहा होगा, पर स्वामीजी भली भाँती समझ रहे थे; स्वामीजी प्राण संचार और संहार वृत्ति का विषय भी समझ रहे थे जिसमे अनाधिकार हस्ताक्षिओ कर दिन मनुष्य का धर्म नहीं माना जाता; अतः ऐसा अधर्म करने की वृत्ति से स्वामीजी ने उस कालिंदी को रोका। .
भाष्य
की
भाषा
क्या
यह जरूरी है की हर वक्त तत्ववेत्ता ऋषि महात्मा जब भी भाष्य लिखें तो वह संस्कृत में
ही हो और उसे ही शास्त्रीय योगदान माना जाएगा? क्या अन्य विविध भाषा में लिखे कथामाला
और व्याख्यान को भाष्य नहीं माना जाएगा?
वस्तुतः भाष्य किसी भी भाषा में लिखे गए
हों, अगर शास्त्र की गंभीरता और तत्वगत विवेचना विघ्नित न होती हो तो उस हास्य को शास्त्रीय
योगदान मान लेने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए; उन तत्व विवेचना को किसी भी परिस्थिति
में स्वीकार कर लेनेवालों की संख्या भी बढ़ती
ही रहेगी; इस मार्ग में तत्व वेत्ता ऋषियों में आपसी सामंजस्य भी रह जाती है; हम उन सभी ऋषियों और विदूषकों
से जब भी भाष्य सुनें तो उन सभी प्रस्तुति में भी सामंजस्य का निदर्शन मिलता ही रहेगा
; वस्तुतः शास्त्र विषयक चिंतन और विमर्श में तर्क की कोई संभावना है ही नहीं।
भाषा के विषय में परस्पर भेद बुद्धि का
विषय कुछ ऐसा ही है जैसे विविध नदियों की धारा विविध स्थान से निकलकर बीहडों, पहाड़ियों,
खाड़ी और अरण्य भूमि के बीच से होते हुए अंततः सागर में ही जा मिलता और एकरूप हो जाता;
इस पूरे सफर में रहते हुए भी जलबिंदु अपने तत्वगत स्वरुप को बनाये रख लेता और फिर से
उस जलचक्र में समाविष्ट होने के लिए और आकाश मार्ग से विचरते हुए उच्च स्थानों पर जाकर
फिर से नदी की धारा का हिस्सा बन जाता है; यह निरंतर चलनेवाली एक नैसर्गिक चक्र होने
के साथ जीवन का समर्थन , संवर्धन और सम्पोषण करने लायक एक तत्व-सांगत चक्र भी बन जाता। विज्ञान के आधार पर अगर विचार करें तो व्याख्यान
की भाषा और स्वरुप भी बदल जाएगा; अगर धर्म दर्शन के सन्दर्भ को सामने रखकर विचार करते
रहें तो शास्त्र की भाषा कुछ और प्रकार की होगी; विज्ञान की प्रगति के साथ सामंजस्य
रखते हुए हमें भी अब उन अनजाने तत्व को अपनी चर्चा का हिस्सा बना लेना होगा जिसके बारे
में हमारे पूर्वज कुछ हद तक अनभिज्ञ थे; सृष्टि और विनाश विषयक चक्र में, बतौर उदाहरण
भी अगर चर्चा करें तो पायेह्गे, जैसी कल्पना वेदों और पुराणों में दर्ज थी उसी के मुताबिक़
कृष्ण अंचल में पूरे नक्षत्र मंडल और आकाश गंगा को ही समाविष्ट होते हुए और विनाश लीला
का सामना करते हुए देखा गया। कितना ही प्रयास
और यत्न क्यों न कर लें सावर मंडल के साथ अपने इस आकाश गंगा का भी वही अंजाम होनेवाला
है जो अन्य सर्जन को होता हुआ परिलक्षित किये जा रहे हैं। जगत को नाशवान समझते हुए
भी हमारे मन में व्याप्त सभी भेद बुद्धि का प्रशमित हो जाना और ब्रह्म ज्ञान का उत्सर्जन
एक सहज प्रगति के रूप में ही देखा जाना चाहिए, न कि किसी रूप से थोपा गया अनचाहे उत्सर्जन
के रूप में।
अभिन्न परम सत्ता
सृष्टि के आदि काल से ही हम यह प्रत्यक्ष करते आ रहे हैं कि विश्व चराचर के विक्सित होने के हर क्रम में ब्रह्म स्वरुप परम सत्ता की उपस्थिति आवश्यम्भावी माना जाएगा। कण मात्र को भी जो हम अस्तित्व में आते हुए और विक्सित होते हुए देख रहे हैं उसके पीछे उस परम तत्व की ही भूमिका मानी जा सकेग्गी; उसे ही चिरंतन अविनश्वर सत्ता भी मानेंगे।
[1] परमात्मा को प्रकट करनेवाला सत्ता भी स्वप्रभ ज्ञान ही है; [2]
इसे अक्षर ब्रह्म को ध्यान में रखकर भी कहा गया। यही अक्षर ब्रह्म हमें अज्ञानता से
छुटकारा पाने के लिए और परमात्मा के सान्निध्य को अनुभव करने के लिए सहायक बना रहेगा।
[3]
ब्रह्म की संगति भक्त को परम आनंद देनेवाला ही है।
[4] बुद्धिमान
साधक सदा सर्वदा विद्वान और विनम्र ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ते और असंस्कारी को समान
मानते हैं । [5]
ब्रह्म में दृढ़, ब्रह्म को जाननेवाला, शांत बुद्धि वाला और मोह रहित व्यक्ति कोई प्रिय
वस्तु प्राप्त होने पर उत्साहित नहीं होता, और न ही कोई अप्रिय वस्तु प्राप्त होने
पर निराश होता है। [6]
पगड़ी
योगी पुरुष, परिब्राजक युवा , रेगिस्तान के पथ कड़ी धूप में पैदल ही जा रहे थे; उस प्रकार की कड़ी धुप से कुछ अनभिज्ञ भी थे। सर पर केशराशि भी काफी कम ही बचे थे।
पहले तो गला सूखने लगा ; उन्हें लगा कुछ और दूर जाकर जरूर कोई छत्र छाया मिल ही जायेगी,
पर दूर दूर तक इस प्रकार से कोई पगडंडी या फिर आसरे और जलछत्र का नाम मात्र भी नहीं था।
पानी मिले या न मिले कम से कम कड़ी धूप
से राहत मिले तो भी बात बन जाती; मीलों तक उसकी भी कोई संभावना न थी। कुछ देर चलने के बाद युवा महाराज जी का सर चकराने
लगा।
"अरे
गिरा, गिरा। " , ऐसा कहते हुए चार पांच अपने गागरोन को दर किनार रखते हुए दौड़
पड़ीं ; करीब आकर उस युवा सन्यासी के सर पर और मुख मंडल पर पानी का छिड़काव किया गया। एक बाला ने अपना ओढ़ना निकालकर महाराज जी के लिए
लपेटा बनाकर सेर पर डालते हुए फटकार भी लगाने लगी, "इस रेगिस्तान में रहते हुए
और इस तरह कड़ी धूप में चलते हुए इस पगड़ी को बनाये रखना , समझ गए?"
[1]
सन्दर्भ
गीता
अध्याय
१५: गीता में जिसे अक्षर
ब्रह्म स्वरुप माना गया;
[2]
'ज्ञानेन
तु
तदज्ञानं
येषां
नाशितमात्मनः।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं
प्रकाशयति
तत्परम्॥'
–
'जिसने ज्ञान के द्वारा आत्मा के अज्ञान को नष्ट कर दिया है, उसके लिए वह ज्ञान, सूर्य की तरह, परमात्मा को प्रकट करता है (गीता ५ .१६)।
[3]
'सत्यं
ज्ञानमनन्तं
ब्रह्म'
- 'सत्यं
ज्ञानम्
अनंतम्
ब्रह्म'
- 'अक्षरब्रह्म
शाश्वत,
ज्ञानस्वरूप
और
असीम
है'
(तैत्तिरीय
उपनिषद
२
.१
)।
'प्रज्ञानं
ब्रह्म'
- 'प्रज्ञानं
ब्रह्म'
- 'अक्षरब्रह्म
ज्ञान
का
स्वरूप
है'
(ऐतरेय
उपनिषद
३
.३
)।
उपरोक्त श्लोक का सार यह है कि अक्षरब्रह्म गुरु हमें अज्ञानता से छुटकारा पाने और परमात्मा की प्राप्ति का साधन है।
[4]
'स
ब्रह्मयोगयुक्तात्मा
सुखमक्ष्यमश्नुते'
- 'स
ब्रह्मयोगयुक्तात्मा
सुखमक्षय्यमश्नुते'
- 'जो
ब्रह्म
की
संगति
पाता
है;
मन,
वचन
और
कर्म
से
अक्षरब्रह्म
गुरु
की
संगति
करता
है;
वह
शाश्वत
आनंद
पाने
का
अधिकारी
बन
जाता
है;अपनी आत्मा में परमात्मा के रूप में दृढ़ विश्वास, परम भक्ति, स्वेच्छा सेवा आदि गुणों को प्राप्त कर लेता है और ब्रह्मरूप बन जाता है (गीता ५ .२२ )।
[5] 'विद्याविन्यस पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि। शुनि चैव स्वप्नकेच पण्डिताः समदिशानः॥' – (गीता ५ .१८ )।
[6]
न
प्रहृष्येत्प्रियं
प्राप्य
नोद्विजेत्प्राप्य
चाप्रियम्।
स्थिरबुद्धिरसंमूढ़ो
ब्रह्मविद्ब्राह्मणि
स्थितः॥ – - अर्थ:
(गीता
५
.२०)।